किसका होगा अमेरिका?

Last Updated 11 Oct 2020 10:14:45 AM IST

दुनिया भर में किसी एक तारीख का दो ही सूरत में बेसब्री से इंतजार होता है-या तो उस तारीख का संबंध किसी आपदा से हो या फिर वह तारीख कोई अवसर लेकर आ रही हो। तीन नवम्बर ऐसी ही तारीख है, जिसका प्रत्यक्ष संबंध यूं तो अमेरिका से है, लेकिन परोक्ष रूप से आने वाले चार साल तक पूरी दुनिया उसका असर महसूस करेगी। इस तारीख को अमेरिका को अपना अगला राष्ट्रपति मिलेगा।


किसका होगा अमेरिका?

अमेरिका में चुनावी रस्म के मुताबिक प्रेसीडेंशियल डिबेट शुरू हो चुकी है और चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी आने लगे हैं। ज्यादातर सर्वे में अमेरिकी जनता राष्ट्रपति चुनाव को डोनाल्ड ट्रंप से छुटकारा पाने के अवसर के तौर पर देख रही है। इन सर्वे में जो बाइडेन 50 फीसद से ज्यादा वोट प्रतिशत के साथ डोनाल्ड ट्रंप पर 10 प्वॉइंट से ज्यादा बढ़त लेते दिख रहे हैं। साल 2016 में ट्रंप को वोट करने वाले 80 फीसद से ज्यादा लोग उनकी दोबारा वापसी नहीं चाहते। चुनाव में फर्क पैदा करने वाले राज्यों के 75 फीसद वोटरों का कहना है कि ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति के पद की गरिमा के अनुरूप बर्ताव करने में नाकाम रहे हैं। चुनावी माहौल के बावजूद गाहे-बगाहे ट्रंप खुद भी इसकी मिसाल देते रहते हैं। पिछले राष्ट्रपति बराक ओबामा को जेल भेजने, पिछली उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को ‘रूसी साजिश वाली थ्योरी’ के नतीजे भुगतने जैसे गैर-जिम्मेदाराना बयान ट्रंप की छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं। कोरोना से ठीक होने के बाद ट्रंप ने अपनी पहली मुलाकात में कैबिनेट के वरिष्ठ अधिकारियों को अपने विरोधियों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं करने यानी ट्रंप के मुताबिक ‘ठीक से काम न करने’ पर सार्वजनिक रूप से फटकार भी लगाई है। विपक्षियों की ही तरह कई अमेरिकी यह मान रहे हैं कि चुनाव जीतने के लिए ट्रंप इस बार किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। कई मौके पर ट्रंप खुद कह चुके हैं कि इस बार के चुनाव धांधली से जीते जाएंगे और अगर नतीजे उनके खिलाफ गए तो सत्ता हस्तांतरण ‘शांतिपूर्ण’ नहीं होगा। ऐसी भी आशंका है कि ट्रंप प्रशासन डेमोक्रेटिक गढ़ समझे जाने वाले राज्यों में कानून के अधिकारियों की तैनाती से चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करेगा।

अनुमान लगाए जा रहे हैं कि मतदान के बाद उसी रात लाखों पोस्टल बैलेट की गणना से पहले ही ट्रंप अपनी जीत का ऐलान कर सकते हैं। ट्रंप को लेकर ‘विास’ का स्तर इतना गिर चुका है कि ऐसे भी कयास हैं कि हार टालने के लिए ट्रंप कोरोना महामारी की आड़ लेकर चुनाव को टाल सकते हैं। हालांकि अमेरिका की जटिल चुनावी प्रक्रिया के कारण ट्रंप के लिए अकेले ऐसा फैसला लेना संभव नहीं होगा, लेकिन सच्चाई यही है कि ट्रंप और सत्ता के बीच अगर कोई एक वजह सबसे बड़ी साबित होगी तो वो कोरोना से निपटने में उनकी नाकामी ही होगी। अमेरिका पिछले चार महीनों से कोरोना के मामलों में ‘दुनिया का सिरमौर’ बना हुआ है। ट्रंप को मिलाकर 78 लाख से ज्यादा अमेरिकी कोरोना संक्रमित हो चुके हैं, जबकि मौत का आंकड़ा दो लाख के पार जा चुका है। पिछले हफ्ते के एक सर्वे में 62 फीसद लोगों ने कहा है कि कोरोना को लेकर ट्रंप की ‘हल्की’ सोच के कारण अमेरिकी को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। टेक्सास, फ्लोरिडा, अरीजोना जैसे कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में पिछली बार ट्रंप का समर्थन करने वाले 78 फीसद लोग केवल इसी वजह से उन्हें दोबारा वोट नहीं करेंगे। कोरोना को लेकर रिपब्लिक और डेमोक्रेट शासित राज्यों में बंटवारे की सोच भी ट्रंप को खासा नुकसान पहुंचा रही है। इसके अलावा नस्लभेद, जलवायु परिवर्तन, अमेरिका फस्र्ट की नीति के कारण बाकी दुनिया खासकर यूरोपीय देशों से बिगड़ते संबंध, चीन को लेकर ढुलमुल रवैया, रूसी राष्ट्रपति पुतिन जैसे ‘तानाशाह’ को बार-बार अपना रोल मॉडल बताना जैसी कई बातें अमेरिकी वोटरों को ट्रंप से दूर कर रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका में इस तरह का ट्रंप-विरोधी माहौल बनाने में डेमोक्रेट उम्मीदवार जो बाइडेन का कोई खास हाथ नहीं दिख रहा। पांच दशकों से राजनीति में सक्रिय होने के बावजूद आज भी ज्यादातर अमेरिकियों की तरह बाकी दुनिया भी उन्हें बराक ओबामा के उप राष्ट्रपति के तौर पर ही जानती है, लेकिन ट्रंप को मिल रही तमाम चुनौतियों के साथ भारतवंशियों में गहरी पैठ बाइडेन को फायदा पहुंचा रही है।  

अमेरिका में इस बार 18 लाख भारतवंशी वोट डालेंगे। फ्लोरिडा, पेंसिलवेनिया और मिशीगन जैसे राज्यों में तो इनके वोट निर्णायक भी साबित हो सकते हैं। इसीलिए ट्रंप और बाइडेन खेमा इन्हें अपने पाले में लाने में जुटा हुआ है। ट्रंप ने इसकी पहचान अपने पिछले चुनाव अभियान में ही कर ली थी, जब उन्होंने हिंदुओं के लिए अपने ‘प्यार’ का सार्वजनिक इजहार किया था। पिछले एक साल में ट्रंप ‘हाउडी मोदी’ और ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसे दो बड़े अवसरों पर भारतवंशियों में जबर्दस्त लोकप्रिय भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ दिखे हैं। अमेरिकी भारतवंशियों से ट्रंप का कोई भी संवाद प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी दोस्ती के जिक्र के बिना पूरा नहीं होता, लेकिन ट्रंप की यह तमाम कोशिशें भी रंग नहीं जमा पा रही हैं। हाल में हुए एएपीआई सर्वे से पता चल रहा है कि इस बार केवल 28 फीसद भारतवंशी ट्रंप के साथ खड़े हैं, जबकि दो-तिहाई बाइडेन को समर्थन देते दिख रहे हैं। इसकी दो बड़ी वजहें हैं-पहला यह कि भारत को लेकर ट्रंप केवल ‘आसमानी’ बयानबाजी ही करते रहे हैं, उन्होंने भारत या भारतवंशियों के लिए कभी कोई ‘जमीनी’ कोशिश नहीं की है। दूसरी वजह है बाइडेन की भारत-समर्थक नेता की छवि जो आमतौर पर डेमोक्रेट नेताओं की पहचान रही है। भारतीय मां की बेटी कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर बाइडेन ने इस सोच को और पुख्ता कर लिया है। साल 2006 के एक इंटरव्यू में बाइडेन ने कहा था कि उनका सपना है कि साल 2020 में दोनों देश सबसे निकट के संबंधों वाले देश बनें। इस अंतराल में बाइडेन ने खुद लगातार इस दिशा में कई प्रयास भी किए हैं। 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे। बाइडेन ने इन्हें हटाने के लिए साल 2001 में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को खत लिखा था। साल 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते में उनकी बड़ी भूमिका रही थी। अमेरिकी उपराष्ट्रपति रहते हुए साल 2013 में जब बाइडेन भारत के दौरे पर आए थे, तब भी द्विपक्षीय संबंधों को उन्होंने पीढ़ियों को प्रभावित करने वाली साझेदारी बताया था। हालांकि कश्मीर में धारा 370 हटाने, असम में एनआरसी लगाने जैसे भारत के आंतरिक मुद्दों को लेकर बाइडेन का रुख भारत के लिए अनुकूल नहीं रहा है, लेकिन इतिहास इस तरह के कई वाकयों से मिलकर ही बनता है। हम यह भी कैसे भूल सकते हैं कि 1971 में अमेरिका के रिपब्लिकन राष्ट्रपति र्रिचड निक्सन न केवल पाकिस्तान के साथ खड़े थे, बल्कि चीन को भी अपने खेमे में लाने की साजिश रच रहे थे। राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ट्रंप का उदाहरण हमारे सामने है।

दूसरी तरफ डेमोक्रेट ओबामा रहे, जो अपने कार्यकाल में दो बार भारत की यात्रा करने वाले प्रथम अमेरिकी राष्ट्रपति बने, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के दावे को ताकत दी और भारत के साथ अहम रक्षा करार भी किया। डेमोक्रेट पार्टी के प्रचार अभियान से अब तक यह समझ बनी है कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने के मोदी के सपने को पूरा करने में बाइडेन मौजूदा सत्ता से ज्यादा मुफीद साबित होंगे। बाइडेन ने आर्थिक सुधार और खुलेपन के साथ ही वैिक सप्लाई चेन में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया है। एच-1बी और फैमिली वीजा मामले को लेकर भी बाइडेन भारतीय नजरिए से अधिक सहयोगात्मक बातें कर रहे हैं। भारतीय नजरिए से महत्त्वपूर्ण चीन और पाकिस्तान के मसले पर सत्ता बदलने पर भी अमेरिका भले अपनी नीतियों में ज्यादा बदलाव न ला सके, फिर भी वे ट्रंप के मुकाबले ज्यादा भरोसेमंद साथी साबित हो सकते हैं।
(लेखक सहारा न्यूज नेटवर्क के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एडिटर इन चीफ हैं)

उपेन्द्र राय


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