छोटी जंग, बड़ा खतरा

Last Updated 04 Oct 2020 12:07:26 AM IST

मध्य एशिया में लगी चिंगारी बड़ी आग का संकेत दे रही है। आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच जारी खूनी जंग अब दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर रही है।


छोटी जंग, बड़ा खतरा

नागोर्नो-काराबाख को लेकर दोनों देश पहले भी भिड़ते रहे हैं, लेकिन हाल के दिनों में लड़ाई कभी इतनी लंबी नहीं चली है। नागोर्नो-काराबाख दक्षिण कॉकेशस का एक पहाड़ी इलाका है, जिस पर कब्जे को लेकर दोनों देशों का दशकों पुराना विवाद है, लेकिन कभी किसी ने यह नहीं सोचा था कि जमीन के एक टुकड़े को लेकर चल रही दो देशों की लड़ाई, आगे चलकर दुनिया के कई देशों को एक-दूसरे पर चढ़ाई का मौका भी दे देगी।
आर्मेनिया और अजरबैजान को विभाजित करने वाली लाइन ऑफ कॉन्टैक्ट पर 27 सितम्बर से लड़ाई जारी है। सैन्य झड़प में अब तक 100 से ज्यादा नागरिक और आर्मेनियाई सैनिक मारे जा चुके हैं। आर्मेनिया ने भी अजरबैजान को भारी नुकसान पहुंचाने का दावा किया है, लेकिन अजरबैजान ने अपने देश के हताहत नागरिकों और सैनिकों की संख्या जारी नहीं की है। ऐसी खबरें हैं कि इस बार हमले की शुरु आत अजरबैजान की ओर से ही हुई है। इसका मकसद अलगाववादियों के कब्जे वाले कुछ हिस्से छुड़ाने को बताया जा रहा था। इस बार की झड़प में अलग बात यह है कि पहली बार दोनों देशों ने अपने यहां माशर्ल लॉ लगाया है। आर्मेनिया, नागोर्नो-काराबाख और अजरबैजान-तीनों जगह सैनिकों की कमी पड़ने पर पुरु ष नागरिकों को भी मोर्चे पर झोंक दिया गया है। अजरबैजान का कहना है कि अपनी सीमाओं के पास सिक्योरिटी जोन बनाने के लिए रूस आर्मेनिया को सीधे मदद कर रहा है। इस लड़ाई में दुनिया की दिलचस्पी की अब तक दो वजह सामने आई हैं। पहला तो यह कि जहां लड़ाई छिड़ी है, उस इलाके से कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की पाइपलाइन निकलती है, जिनसे होने वाली सप्लाई का बड़ा हिस्सा यूरोपियन यूनियन को जाता है। दूसरी वजह के मायने ज्यादा व्यापक हो सकते हैं। ईसाई बहुल आर्मेनिया और मुस्लिम बहुल अजरबैजान का विवाद धार्मिंक खेमेबंदी में बदलता जा रहा है। फ्रांस खुलकर आर्मेनिया के समर्थन में आ गया है और अगर जंग लंबी चली तो सैन्य समझौते की वजह से रूस भी आर्मेनिया को मदद कर सकता है।

फिलहाल तो रूस इस विवाद में संतुलन की राजनीति कर रहा है, क्योंकि वो अजरबैजान को भी हथियार देता है। दूसरी तरफ तुर्की और पाकिस्तान अजरबैजान के साथ खड़े हैं। अपुष्ट खबरें हैं कि आईएसआई और तुर्की ने अजरबैजान में किराये के लड़ाके उतार दिए हैं। पाकिस्तान को तो अजरबैजान से नया-नया प्यार हुआ है, लेकिन तुर्की अजरबैजान का पुराना यार है। उसने 1993 से ही आर्मेनिया से लगी अपनी सभी सीमाओं को सील किया हुआ है। इस बार तो तुर्की ने अजरबैजान को हर हाल में बिना शर्त समर्थन का ऐलान किया है। अजरबैजान को हथियार सप्लाई करने के आरोपों के बाद इजराइल भी संदेह के घेरे में आ गया है। इस जानकारी को पुख्ता करने के लिए आर्मेनिया ने इजराइल से अपने राजदूत को तलब भी किया था। हालांकि आर्मेनिया ने अब तक ना तो इस खबर की पुष्टि की है, ना ही खंडन किया है।  तुर्की और रूस सीरिया और लीबिया में चल रहे गृहयुद्ध में भी अलग-अलग पक्षों को समर्थन देने के कारण आमने-सामने हैं। अजरबैजान को तुर्की का समर्थन नागोर्नो-काराबाख में रूस के प्रभुत्व की काट की तरह भी देखा जा रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युल मैक्रों ने तुर्की के रुख पर चिंता जताते हुए कहा है कि विवादित क्षेत्र में चली हर गोली युद्ध की बोली बोल रही है। फ्रांस इस विवाद को सुलझाने के लिए बने ऑर्गनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड को-ऑपरेशन इन यूरोप (ग््रच्क्क) मिंस्क ग्रुप का सदस्य है। फ्रांस में आर्मेनियाई मूल के नागरिकों की संख्या भी हजारों में हैए लेकिन फ्रांस ने भी आर्मेनिया को मदद का भरोसा देकर आग में घी डालने का ही काम किया है। पड़ोसी देशों ईरान, जॉर्जिया और कतर ने जरूर मध्यस्थता की पेशकश की है, क्योंकि उनके लिए गैस और तेल की पाइपलाइन की सुरक्षा का बड़ा आर्थिक महत्त्व है। 75वें साल में प्रवेश कर चके संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता इस तनाव से फिर सवालों में घिर गई है। पहले तो सुरक्षा परिषद की नींद हालात बिगड़ने के दो दिन बाद टूटी और फिर अपनी ओर से कोई सक्रिय पहल करने के बजाय उसने मिंस्क समूह को उसका फर्ज याद दिलाकर अपना पल्ला झाड़ लिया। अजरबैजान और आर्मेनिया के झगड़े का भविष्य खतरनाक ही नहीं है, बल्कि इसका इतिहास भी खूनी रहा है।
साल 1922 में जब सोवियत रूस का गठन हुआ, तो अजरबैजान और आर्मेनिया दोनों को उसमें मिला दिया गया। उस समय दोनों के बीच रिश्ते सामान्य थे। यहां तक कि नागोर्नो-काराबाख को लेकर भी दोनों में कोई विवाद नहीं था। हालांकि आपसी झड़प की छिटपुट घटनाएं तब भी होती थीं, जैसे 1948 और 1964 में आर्मेनिया में हुआ जनविद्रोह, जिसके कारण अजैरियों का बड़े पैमाने पर पलायन भी हुआ था, लेकिन कड़ी सोवियत सेंसरशिप के कारण ऐसी घटनाएं दुनिया के सामने नहीं आ पाई। विवाद की शुरु आत अस्सी के दशक के आखिरी वर्षो में हुई जब सोवियत संघ का विघटन शुरू हुआ। साल 1988 में आर्मेनिया की स्थानीय संसद ने नागोर्नो-काराबाख को आर्मेनिया को स्थानांतरित करने के पक्ष में वोट किया, लेकिन तत्कालीन सोवियत सत्ता ने इस रायशुमारी को मान्यता देने से इनकार कर दिया। इसके बाद नागोर्नो-काराबाख का मसला सुलगता रहा।
साल 1994 में जब रूस ने दोनों देशों के बीच सीजफायर करवाया, तब तक आर्मेनिया के अलगाववादियों का नागोर्नो-काराबाख पर कब्जा हो चुका था। अनुमान है कि 1988 से 1994 के बीच तनाव के दौर में दोनों ओर से करीब 30 हजार लोग मारे गए और 10 लाख से ज्यादा विस्थापित हुए। जिस नागोर्नो-काराबाख को लेकर झगड़ा चल रहा है, वो पश्चिम एशिया और पूर्वी यूरोप के बीच फैला एक पहाड़ी इलाका है। यहां ज्यादातर आर्मेनियाई मूल के लोग रहते हैं, फिर भी यह सोवियत काल से ही अजरबैजान का हिस्सा रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी इसे अजरबैजान के हिस्से के तौर पर ही मान्यता देता है, लेकिन इसके ज्यादातर हिस्से पर आर्मेनियाई अलगाववादियों का नियंत्रण है, जिन्होंने इस इलाके को नागोर्नो-काराबाख ऑटोनॉमस ओब्लास्ट के नाम से स्वतंत्र गणतंत्र घोषित कर रखा है। हालांकि बाकी दुनिया की तरह आर्मेनियाई सरकार भी इसे मान्यता नहीं देती, लेकिन अलगाववादियों को उसका राजनैतिक और सैन्य समर्थन हासिल है। फ्रांस, रूस और अमेरिका की अध्यक्षता वाला मिंस्क ग्रुप दोनों देशों के बीच वर्षो से शांति बहाल करने की कोशिश कर रहा है। दोनों देशों के रिश्ते इतने तल्ख हैं कि आर्मेनिया का कोई नागरिक अजरबैजान नहीं आ सकता। इतना ही नहीं, किसी दूसरे देश में रहने वाले आर्मेनियाई मूल के व्यक्ति के भी अजरबैजान में आने पर पाबंदी है। यहां तक कि अगर किसी शख्स के पासपोर्ट में नागोर्नो-काराबाख की यात्रा का कोई जिक्र भी होता है, तो उसे एयरपोर्ट से ही बैरंग वापस भेज दिया जाता है। इस बार कुछ ऐसा ही हाल दुनिया भर से आ रही शांति की अपीलों का हो रहा है।
सीजफायर की अपीलें अनसुनी की जा रहीं हैं। तो यह लड़ाई किस ओर जा रही है? इस बार दोनों पक्षों की लंबी लड़ाई की तैयारी दिख रही है और जमीनी हालात बड़े खतरे का इशारा कर रहे हैं। अब तक दोनों देशों के बीच लड़ाई होती थी तो दो-एक दिन चलकर थम जाती थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है। 1990 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि विवादित क्षेत्र में रह रहे नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है। अजरबैजान का रु ख पिछली लड़ाइयों से अलग है और उसने आर्मेनिया की बातचीत की पेशकश ठुकरा दी है। तुर्की समेत दूसरे देशों की खेमेबंदी भी कभी इतनी खुलकर सामने नहीं आई। इसलिए विवाद सुलझने के बजाय सुलगता जा रहा है। बड़ा सवाल शायद यह भी होगा कि जब पूरी दुनिया ही आग में कूद जाएगी तो आग बुझाने का काम करेगा कौन?

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment