कृषि सुधार नई हरित क्रांति की बुनियाद

Last Updated 26 Sep 2020 02:01:26 AM IST

देश का अन्नदाता एक बार फिर चर्चा में है। लेकिन इस बार वजह बिल्कुल अलग है, क्योंकि चर्चा का विषय उसकी बेहाली, परेशानी और मजबूरी नहीं, बल्कि इस कुचक्र से बाहर निकलने की वह क्रांतिकारी सोच है, जिसने उनके भविष्य को उम्मीदों से भर दिया है। इस सोच के मूल में हैं मोदी सरकार के वे तीन विधेयक, जो कृषि क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव के प्रेरक बन सकते हैं।


कृषि सुधार नई हरित क्रांति की बुनियाद

कृषि प्रधान देश होने के बावजूद इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे किसानों को परेशानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलती आई हैं। सरकारें आई-गई, किसानों का हाल बदलने की बड़ी-बड़ी बातें हुई, अधूरे वादों के बीच कुछ दावे सच भी हुए लेकिन देश के करोड़ों परिवारों को भरपेट सुलाने वालों के बच्चे पेट काटकर ही जीते रहे। भारत को ‘अच्छे खान-पान वाले देश’ की पहचान देने वाला किसान परिवार अच्छा ओढ़ने-बिछाने तक के लिए तरसता रहा। बेशक, 21वीं सदी में हुई तरक्की के कुछ छींटे खेती-किसानी पर भी गिरे लेकिन कुल मिलाकर किसान की बेहाली जस-की-तस रही।

इस लिहाज से मौजूदा दशक बदलाव का समय कहा जा सकता है, जिसमें किसानों की हालत सुधारने के लिए पहले से कहीं ज्यादा गंभीर प्रयास हुए हैं। इसमें किसानों को लेकर केंद्र की मोदी सरकार की सद्इच्छा का बड़ा हाथ रहा है। विरोधी भी इस बात से इनकार नहीं कर पाते कि मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही किसानों की समस्याओं की दशकों पुरानी चक्की से छुटकारा दिलाने के लिए कमर कसे हुए है। किसानों की आय दोगुना करना सरकार का सबसे बड़ा सपना है और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगातार कदम उठाए गए हैं। हालिया तीनों विधेयक भी कृषि सुधार की उसी श्रृंखला का सकारात्मक विस्तार है। सवाल उठता है कि इनके कानून बन जाने से क्या खेती-किसानी वाकई बदल जाएगी? क्या किसानों की आमदनी वाकई कभी दोगुनी हो पाएगी? क्या वाकई भारत के किसान भी ‘अच्छे दिनों’ के लाभार्थी हो पाएंगे? दरअसल, इन सभी सवालों के जवाब उम्मीद से भरी उस चमचमाती इमारत की तरह हैं, जो उत्पादन बढ़ाकर किसानों को आर्थिक मजबूती देने और कृषि क्षेत्र का विकास सुनिश्चित करने की मजबूत बुनियाद पर खड़ी है। नये विधेयक किसानों को मिले ऐसे शक्तिशाली पंख हैं, जो उन्हें बिचौलियों के बिछाए जाल से बचने और स्थानीय मंडियों तक सीमित अपनी परवाज को नये बाजार तक ले जाने की ताकत दे सकते हैं।

फसल बेचने के मिलेंगे समान अवसर
कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढांचे की कमी, स्थानीय बिचौलियों की दादागीरी और मूल्यों में पारदर्शिता के अभाव से किसानों को पग-पग पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। बड़े किसान और छोटे किसान का फर्क अन्याय और अपमान के दायरे को और बढ़ा देता था। 2015-16 में हुई कृषि गणना बताती है कि देश के 86 फीसदी किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी छोटी जोत हैं। ये वो किसान हैं जिनकी उपज इतनी कम होती है कि किसी-किसी सीजन में उनके लिए अपनी फसल को स्थानीय मंडी तक ले जाकर बेचना भी कमाई से ज्यादा खर्चीला हो जाता है। एक देश, एक बाजार का सपना ऐसे ही किसानों को केंद्र में रखकर गढ़ा-बुना गया है। अब इसके सच होने से देश के एक-एक किसान को फसल बेचने के एक समान अवसर मिलेंगे जिससे खेती-किसानी में बड़े-छोटे का फर्क भी मिट जाएगा। खासकर नगदी उपज और एग्रो इंडस्ट्री की जरूरत के हिसाब से फसल उगा कर कॉरपोरेट के साथ मिलकर चुनिंदा राज्यों के बड़े किसान जो फायदा उठाया करते थे, अब उस क्षेत्र में पूरे देश के छोटे किसान भी पहुंच बना सकेंगे।

तो जब सरकार के लाए नये कृषि सुधार उत्पादन और मूल्य, दोनों से जुड़े जोखिमों को दूर करने वाले हैं, तो इसका विरोध क्यों हो रहा है? खिलाफत की आवाज में सबसे ज्यादा तीखापन एमएसपी को लेकर है। विरोधियों को लगता है कि नये विधेयक लाकर सरकार एमएसपी से पल्ला छुड़ा रही है और फसल के दाम पूरी तरह से कॉरपोरेट के हवाले करने जा रही है। संसद के दोनों सदनों से विधेयक पास हो जाने के बाद मोदी सरकार ने गेहूं, धान, दाल, सरसों और मूंगफली का एमएसपी बढ़ाकर इस मोर्चे पर विरोधियों को जवाब दे दिया है। सरकार का पक्ष यह है कि नये कानून से एमएसपी की पुरानी व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आएगा, बल्कि किसानों को मनमाफिक दामों पर फसल बेचने का एक और विकल्प मिल जाएगा। हालांकि सरकार के सामने एमएसपी का फायदा ज्यादा-से-ज्यादा किसानों तक पहुंचाने की चुनौती जरूर रहेगी। एफसीआई की कार्यपण्राली में सुधार के लिए बनी शांता कुमार समिति की रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में सिर्फ 6 फीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाते हैं। वैसे इस दिशा में भी पिछले दिनों में काफी काम हुआ है। मोदी सरकार अब तक यूपीए सरकार से दोगुने एमएसपी का भुगतान कर चुकी है। 2014-15 में एमएसपी के हिसाब से 3,76,359.25 करोड़ रुपये अनाज की खरीद में खर्च किए गए, जो 2014-19 के बीच बढ़कर 6,97,645.53 करोड़ रुपये हो गए यानी 85 फीसद की बढ़ोतरी।

पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी यूपी में चल रहे विरोध में मंडी सिस्टम खत्म होने की आशंका को भी आवाज मिली है। यह भी तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत करीब 80 करोड़ देशवासियों को जिस राशन की आपूर्ति होती है, वह सरकार किसानों से ही खरीदती है। इस राशन को रोके जाने को लेकर कोई बात नहीं है यानी आगे चलकर भी यह व्यवस्था कायम रहनी है, तो जब सरकार किसानों से उनकी फसल खरीदती रहेगी तो मंडियां भी पूर्व की तरह ही कामकाज करती रहेंगी। हां, मंडियों पर आढ़ितयों ने जो शिंकजा कसा हुआ था, वो अब जरूर टूट जाएगा।   

निजी निवेश के दो नजरिए
निजी निवेश को दो नजरियों से देखा जा रहा है। एक नजरिया है खेती-किसानी में बहुत ज्यादा पैसे का आना जिससे स्टोरेज, परिवहन और एग्रो इंडस्ट्री लगाने का रास्ता खुलता है और जिसके प्राथमिक लाभार्थी किसान ही होंगे। दूसरा नजरिया समूचे कृषि क्षेत्र को कॉरपोरेट के हवाले कर देने का है। हालांकि इस बात में कोई दो-राय नहीं कि खुला बाजार और नया निवेश किसानों की जिंदगी बदल देगा, लेकिन इसमें हमारी खेती-किसानी का तौर-तरीका भी बदल सकता है। अब तक फसल के बाजार में आने के बाद उसकी कीमतें तय होती रही हैं, लेकिन नये बदलाव के बाद फसल बोने से पहले ही कीमतें निर्धारित होने का खेल शुरू हो सकता है। सबसे बड़ा खतरा छोटे किसानों को लेकर है, जिन्हें ज्यादा दाम का झुनझुना दिखाकर स्थानीय रिवाज की जगह कॉरपोरेट का मिजाज देखकर फसल बोने के लिए मजबूर किया जा सकता है। उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक खादों का इस्तेमाल बढ़ाना स्थानीय मिट्टी की उर्वरा शक्ति के लिए घातक साबित हो सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विधेयक तैयार करते समय इन बातों का ख्याल रखा गया होगा और सरकार के स्तर पर जरूर कुछ तैयारी की गई होगी।

बहरहाल, यह सब तो भविष्य में स्पष्ट हो सकेगा लेकिन फिलहाल तो उत्पादन की भारी गुंजाइश साफ-साफ दिखाई पड़ रही है। अपने पड़ोसी चीन से ही तुलना कर लें, तो बात और स्पष्ट हो जाती है। चीन की प्रति हेक्टेयर उपज 5,332 किलोग्राम की है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 1,909 किलोग्राम तक ही पहुंचा है। संसाधनों की कमी और सिस्टम की उदासी के साथ-साथ खेती-किसानी में अवसरों की निराशाजनक तस्वीर भी इसकी वजह है। एनएसएसओ का ही एक सर्वे कहता है कि कल रोजी-रोटी का दूसरा जरिया मिल जाए, तो देश के 45 फीसद किसान आज खेती छोड़ दें। ऐसे में नई पीढ़ी को खेती से जोड़ना और फिर किसानी में रोके रखने को महज चुनौतीपूर्ण कहना इस चुनौती को ही कम करके आंकने जैसा होगा। शायद इसीलिए हरित क्रांति के छठवें दशक में पहुंच जाने के बावजूद भूख के विरुद्ध हमारा युद्ध खत्म नहीं हो पाया है। इस पर गंभीर चिंतन इसलिए जरूरी है कि साल 2050 तक हमारी आबादी 1.75 अरब तक पहुंच जाएगी। उस मान से प्रति व्यक्ति कृषि भूमि घटकर 0.089 हेक्टेयर रह जाएगी, जबकि खाद्यान्न की जरूरत दोगुनी हो जाएगी। यानी देश को एक दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है जिसका लक्ष्य केवल उत्पादकता ही नहीं, बल्कि नये अवसरों का सृजन कर आमदनी बढ़ाने का भी होना चाहिए। इस लिहाज से कृषि सुधारों को देर होने से पहले ही सही दिशा में उठाया गया दुरुस्त कदम कहा जाना चाहिए।

उपेन्द्र राय


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