अन्नदाता की ’आजादी‘ का नया आंदोलन

Last Updated 20 Sep 2020 12:33:17 AM IST

मोदी सरकार ने देश के किसानों की दशा और दिशा बदलने के अपने लक्ष्य की ओर एक कदम और बढ़ा दिया है।


अन्नदाता की ’आजादी‘ का नया आंदोलन

लोक सभा में इस हफ्ते किसान कल्याण से जुड़े तीन विधेयक कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) 2020, कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक पारित हो गए। तीनों विधेयक अब उन अध्यादेशों की जगह लेंगे, जिन्हें सरकार लॉकडाउन के दौरान लाई थी। सरकार का सोचना है कि तीनों विधेयक मिलकर किसानों के जीवनस्तर में क्रांतिकारी बदलाव लाएंगे और इससे किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य पूरा करने में आसानी होगी। हालांकि गैर-एनडीए दलों और पंजाब-हरियाणा जैसे प्रमुख अनाज उत्पादक प्रदेशों में सरकार की इस सोच को शंका से देखा जा रहा है।

तकनीकी शब्दावली से इतर आसान भाषा में समझकर देखते हैं कि इन विधेयकों को लेकर सरकार के दावे और विरोधियों की शंकाएं केवल समझ का फेर है या फिर यह वाकई खेती-किसानी की जमीनी हकीकत है। सरकार दावा कर रही है कि अब किसान अपनी मर्जी का मालिक होगा यानी वो मंडियों और बिचौलियों के जाल से निकलकर अपनी फसल को अपनी पसंद के व्यापारियों या कंपनियों को बेच सकेगा। इस खरीद-बिक्री पर किसानों को अब मंडियों में कोई शुल्क भी नहीं देना होगा। नए जमाने की जरूरत को देखते हुए आलू-प्याज, अनाज, दलहन को आवश्यक वस्तु के 65 साल पुराने अधिनियम से मुक्त कर दिया गया है। इससे किसानों को सरकारी दखल से मुक्ति मिलेगी और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलने से कोल्ड-स्टोरेज सुविधाओं का विस्तार और देशव्यापी बाजार का रास्ता खुल सकेगा। पहले से तय मूल्य पर उपज की बिक्री होने से किसानों को बिचौलिए के जाल से छुटकारा और आखिरकार खेतों में बहे अपने पसीने के वाजिब दाम मिल सकेंगे।

कानून बनने पर यह विधेयक उन छोटे किसानों के लिए बहुत बड़ी राहत बन सकते हैं, जिन्हें छोटी जोत होने की वजह से बड़े निवेशक नहीं मिलते। देश के कुल किसानों में से 86 फीसद लघु और सीमांत किसान हैं। नए विधेयक की राह आसान होने से इन किसानों तक पहुंचने वाले निजी निवेश की राह भी आसान हो जाएगी। केवल यही एक आंकड़ा यह समझने के लिए काफी है कि कृषि क्षेत्र में इन नए विधेयकों का कितना बड़ा सकारात्मक असर दिखाई देने वाला है। आम तौर पर छोटे किसानों की उपज इतनी कम होती है कि उसे मंडियों तक ले जाना फायदे का सौदा नहीं होता। बिचौलिए इस मजबूरी का फायदा उठाकर दशकों से छोटे किसानों का शोषण करते आए हैं, लेकिन नई व्यवस्था आने से अब निजी कंपनियां छोटे किसानों के खलिहानों तक पहुंच सकेंगी। इससे उत्पादन से निर्यात तक के रास्ते आसान हो सकेंगे और छोटे किसानों को शोषण की जगह अपने परिवारों का उचित ‘पोषण’ करने का सपना सच हो सकेगा।

यह तमाम बदलाव उन्हीं सपनों को सच करने की कोशिश हैं, जिसके लिए हमारे किसान दशकों से संघर्ष कर रहे हैं। फिर इस पर शंकाएं क्यों? विपक्ष को लगता है कि नए बदलाव की आड़ लेकर सरकार एमएसपी की व्यवस्था खत्म कर देगी।  जबकि हकीकत कुछ और है। सरकार ने साफ किया है कि वो सरकारी खरीद की व्यवस्था खत्म नहीं कर रही है बल्कि फसल बेचने के लिए किसानों को बेहतर विकल्प दे रही है। इसी तरह कमीशन एजेंटों को नए कानून से कमीशन बंद होने का डर परेशान कर रहा है। पंजाब-हरियाणा में इसे लेकर विरोध इसलिए ज्यादा दिख रहा है, क्योंकि अकेले पंजाब में 28,000 से ज्यादा कमीशन एजेंट हैं, दूसरा यहां के अधिकतम गेहूं-चावल की सरकारी खरीद एफसीआई के जरिए होती है। सरकार का कहना है कि इन राज्यों के किसानों को भ्रमित किया जा रहा है कि अब एफसीआई उनका गेहूं-चावल नहीं खरीदेगी, जिससे उन्हें एमएसपी से हाथ धोना पड़ेगा।

इन्हीं कोशिशों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विरोधियों पर खुलेआम झूठ बोलने और भ्रम फैलाने की बात कही है। विरोधियों को मुखरता से जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने उम्मीद जताई है कि दशकों से किसानों से झूठ बोलने वाले अब उन्हें और नहीं छल सकेंगे क्योंकि नए विधेयक अब किसानों के रक्षा कवच का काम करेंगे। बेशक प्रधानमंत्री के हमलों का कलेवर सियासी लग सकता है, लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस ने भी 2019 के अपने चुनाव घोषणा पत्र में तीनों ही बिल को शामिल किया था। इसलिए जब सरकार भी उसी नीति पर काम कर रही है, तो कांग्रेस का विरोध किसान-हित में कम, बल्कि उन्हें राजनीतिक मोहरा बनाने की कोशिश ज्यादा दिखता है।

सियासी वजहों से बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के कोटे से मंत्री हरसिमरत कौर के इस्तीफे को भी इसीलिए ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। पिछले महीने तक अकाली दल अध्यादेश का समर्थन कर रहा था, लेकिन पंजाब में किसान आंदोलन उग्र हो गया, तो अकाली दल को राज्य में डेढ़ साल बाद होने वाले चुनाव में वोट बैंक खिसकने का खतरा दिखने लगा। हरसिमरत कौर का इस्तीफा इसलिए भी डैमेज कंट्रोल ज्यादा दिखता है, क्योंकि उनकी पार्टी ने गठबंधन तोड़ने या सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला टाला हुआ है। इसकी बड़ी वजह यह है कि चाहे ‘रु ठे’ सहयोगी हों या ‘हमलावर’ विपक्ष, विरोध का सुर इसलिए ज्यादा ऊंचा नहीं लग पाता क्योंकि दोनों ही जानते हैं कि मौजूदा सरकार ने अपने दोनों कार्यकाल में किसानों के लिए काफी काम किए हैं। सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक धान, गेहूं, मूंगफली जैसी उपज का एमएसपी कृषि लागत मूल्य से डेढ़ गुना तक किया है। कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने की सरकार की कोशिशों से ही दलहन और तिलहन फसलों की रिकॉर्ड खरीदारी संभव हो पाई है। कोरोना काल में गिरती अर्थव्यवस्था के बीच सबसे पहले बाउंस बैक करने वाला सेक्टर भी कृषि ही था। दस साल पहले कृषि का जो कुल बजट 12 हजार करोड़ रु पए हुआ करता था, वो अब बढ़कर 1.34 लाख करोड़ रु पए तक पहुंच चुका है। नए कानूनों के तहत निजी निवेशकों के आने से कृषि क्षेत्र में पूंजी का स्तर और सुधरेगा।

यह समझना कठिन नहीं है कि पूंजी और वैज्ञानिक जानकारी में सुधार उत्पादन बढ़ाने में सहायक होगा। ऐसा होने पर साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का मोदी सरकार का बड़ा मिशन भी पूरा हो सकेगा। यह संयोग नहीं कि इस लक्ष्य के लिए प्रधानमंत्री ने आजादी के 75वें साल को चुना है। आजादी से किसानों का करीब का रिश्ता है। फरवरी 1916 में काशी हिंदू विविद्यालय के उद्घाटन समारोह में बापू ने कहा था कि आजादी वकील, डॉक्टर या संपन्न जमींदारों के कारण नहीं, बल्कि किसानों के योगदान से संभव होगी। आजादी के लिए बापू का पहला आंदोलन भी चंपारण के किसानों को अंग्रेजों के जुल्म और अन्याय से आजाद करने के लिए ही था। सरकार को उम्मीद है कि आज के दौर में किसानों को बिचौलियों से आजाद करने का वही काम नए विधेयक कर सकते हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा भी है 21वीं सदी में भारत का किसान बंधनों में नहीं, खुलकर खेती करेगा, जहां मन आएगा अपनी उपज बेचेगा और अपनी आय भी बढ़ाएगा।’

उपेन्द्र राय


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