गठबंधन बरकरार तो बिहार में ’बहार‘

Last Updated 27 Sep 2020 02:05:03 AM IST

तारीखों के ऐलान के साथ ही बिहार में विधानसभा चुनाव का औपचारिक शंखनाद हो गया है।


गठबंधन बरकरार तो बिहार में ’बहार‘

कोरोना संक्रमण के कारण चुनाव के फलित होने को लेकर जो संदेह था, वो इस ऐलान के साथ अब दूर हो गया है। सब ठीक रहा तो तीन चरणों का चुनाव अक्टूबर के आखिरी हफ्ते से शुरू होकर नवम्बर के पहले सात दिन में पूरा हो जाएगा और 10 नवम्बर तक जनादेश भी सामने आ जाएगा।

मुख्य चुनाव आयुक्त ने दुनिया के 70 देशों में चुनाव टलने का हवाला देते हुए बिहार चुनाव के संचालन को बेशक न्यू नॉर्मल बताया हो, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि देश की सबसे दिलचस्प सियासी महाभारत में गठबंधनों की तस्वीर बनने-बिगड़ने के अलावा कुछ भी नया नहीं दिख रहा है। चुनावी सीजन में पाला बदलने का खेल पहले ही शुरू हो गया था, अब चुनावी कार्यक्रम पर मुहर लगने के बाद ‘भगदड़’ और तेज होने की संभावना है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पुराने मतभेद भुलाकर अपनी पुरानी छवि और पुराने सहयोगी के साथ फिलहाल मजबूती से एक पाले में खड़े दिख रहे हैं। साल 2015 में प्रधानमंत्री के ‘डीएनए’ वाले तंज को लेकर नीतीश को अब कोई रंज नहीं है। लिहाजा सुशासन बाबू और बीजेपी इस बार फिर साथ हैं, लेकिन लोक जनशक्ति पार्टी के नेतृत्व की ‘महत्त्वाकांक्षा’ ने एनडीए के सामने चिराग तले अंधेरा वाले हालात खड़े कर दिए हैं। इसकी एक वजह यह मानी जा रही है कि पिछले तीन दशकों से हर केंद्र सरकार में मंत्री रहे रामबिलास पासवान अपने बेटे चिराग पासवान के लिए इसी तरह का ‘स्थायित्व’ बिहार में तलाश रहे हैं। बेटे को पार्टी की गद्दी सौंपने के बाद अब वो उसे बिहार की सत्ता का किंग बनाने की हसरत पाले बैठे हैं, किंग नहीं तो कम-से-कम किंगमेकर ही बन जाए। पासवान जानते हैं कि 25-30 सीटों पर चुनाव लड़कर तो यह सपना पूरा होने से रहा, इसके लिए राज्य में एलजेपी की जमीन को और विस्तार की जरूरत पड़ेगी, लेकिन नीतीश भी राजनीति के पुराने चावल हैं और पासवान की चाल को पहले ही ताड़ चुके हैं। इसीलिए वो भी एलजेपी को ज्यादा सीटें नहीं देने की जिद पर अड़े हैं।

रही बात बीजेपी की, तो इस विवाद पर उसकी चुप्पी में भी कई थ्योरी काम कर रही हैं। जेडी (यू) और बीजेपी ऊपर से भले साथ दिखते हों, भले बीजेपी नीतीश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बता रही हो, लेकिन दोनों के आपसी रिश्ते कभी सहज नहीं दिखे हैं। अनुच्छेद 370, राम मंदिर और नागरिकता कानून जैसे मुद्दों पर दोनों के बुनियादी मतभेद हैं और नीतीश कई मौकों पर विचारधारा से समझौता नहीं करने की बात कह चुके हैं। ऐसे में बीजेपी भी चाहेगी कि बिहार में चिराग का दबदबा बढ़े, जिससे उन्हें नीतीश पर नकेल की तरह इस्तेमाल किया जा सके। इसमें कोई दो राय नहीं कि हाल के दिनों में चिराग की राजनीतिक हैसियत में खासा इजाफा हुआ है। उन्होंने एलजेपी को नई पहचान देने काम का किया है। उनके पिता के जमाने में एलजेपी को केवल दलितों की पार्टी कहा जाता था, लेकिन प्रादेशिक से लेकर राष्ट्रीय मुद्दों पर बेबाक राय रखकर चिराग तेज-तर्रार युवा नेता बनकर उभरे हैं। इस मामले में वो तेजस्वी पर बीस पड़ते हैं, लेकिन चिराग इससे संतुष्ट नहीं हैं, वो नीतीश से भी आगे जाना चाहते हैं। ऐसी सूचनाएं हैं कि इसके लिए चिराग उसी रणनीति पर काम कर रहे हैं, जिस पर 15 साल पहले उनके पिता चले थे।

2005 के विधानसभा चुनाव में दलित, मुस्लिम और अगड़े भूमिहारों का समीकरण बनाकर एलजेपी ने 29 सीटें जीत कर सत्ता की चाबी भी हासिल कर ली थी, लेकिन मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की जिद पर अड़े रहकर सीनियर पासवान ने तब मौका गंवा दिया था। जूनियर पासवान को यह चुनाव उस ‘गलती’ की भरपाई का मौका दिख रहा है।  एलजेपी की योजना है कि वो बिहार में 143 सीटों पर चुनाव लड़े और ये सभी वो सीटें होंगी जिन पर जेडीयू का प्रत्याशी खड़ा होगा। यानी एलजेपी बीजेपी के खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगी। ऐसी सूरत में जो नुकसान होगा वह जेडीयू का होगा और बीजेपी को ‘छोटे भाई’ वाली मजबूरी से छुटकारा मिल जाएगा। दूसरी तरफ नीतीश भी एक्टिव हैं। एलजेपी के मोल-भाव को सीमित रखने के साथ ही उसके एनडीए छोड़ने तक की सूरत के लिए डैमेज कंट्रोल की उन्होंने पहले से ही तैयारी कर ली है। दलित नेता और मुख्यमंत्री रह चुके जीतनराम मांझी की एनडीए में एंट्री करवाकर नीतीश ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा ठोक रहे दो युवा नेताओं  चिराग पासवान और तेजस्वी यादव की राह में उन्होंने एक चाल से सियासी भूचाल ला दिया है। आने वाले दिनों में नीतीश की इस टीम में उपेन्द्र कुशवाहा भी नये किरदार के तौर पर दिखाई दें, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।  

ऐसे में चिराग पासवान ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली जिद को कितना आगे लेकर जा पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी, लेकिन तेजस्वी यादव के सामने तो इस चुनाव में अस्तित्व का संकट है। कांग्रेस को छोड़ दिया जाए, तो महागठबंधन में शामिल दूसरे दल ही उन्हें नेता मानने को तैयार नहीं हैं। तेजस्वी की छवि ऐसे नेता की बनती जा रही है, जो बिहार की जनता की लड़ाई जमीन पर नहीं, बल्कि ट्विटर पर लड़ता है। चुनाव की तारीखों का ऐलान होते ही लालू ने भी ‘उठो बिहारी, करो तैयारी’ जैसा नारा देकर तेजस्वी को एक तरह से प्रदेश की जनता से जुड़ने की जरूरत ही समझाई है, लेकिन खुद तेजस्वी की तैयारी काफी पिछड़ी दिख रही है। महागठबंधन में चार-पांच दल हैं और चुनावी अधिसूचना जारी हो जाने के बाद भी ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ का कहीं पता नहीं है। खोई हुई सियासी जमीन तलाश रहे मांझी जैसे तपे-तपाए नेता तेजस्वी पर मनमर्जी का आरोप लगाकर पहले ही एनडीए का हाथ थाम चुके हैं। उपेन्द्र कुशवाहा भी उसी राह पर हैं। अपने आखिरी दिनों में रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे वरिष्ठ और संकटमोचक नेता का पार्टी से मोहभंग हो गया था और उन्हें मनाने के लिए लालू प्रसाद यादव तक को दखल देना पड़ा था। रघुवंश प्रसाद सिंह का मामला भी अपवाद ही कहा जाएगा, क्योंकि तेजस्वी ने कभी बड़े नेताओं के महागठबंधन में बने रहने पर कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। दरअसल, लोक सभा चुनाव में मांझी और कुशवाहा भी अपने-अपने समाज का वोट यूपीए में ट्रांसफर नहीं करवा पाए थे। तेजस्वी की नजर में इनकी अहमियत तभी से कम होने लगी थी। तेजस्वी को लगता है कि अगर कुशवाहा भी साथ छोड़ते हैं तो पूर्व स्पीकर उदय नारायण चौधरी और पूर्व मंत्री श्याम रजक जैसे दलित नेताओं के आरजेडी में आने से इसकी भरपाई हो जाएगी। आरजेडी के अलावा तेजस्वी के तरकश में अब कांग्रेस का ही तीर दिखाई दे रहा है, लेकिन आज की कांग्रेस उस कांग्रेस की परछाई भी नहीं है, जो तीन दशक पहले तक राज्य का मुख्य विपक्षी दल हुआ करती थी। बिहार की जनता में पैठ की बात तो दूर, महागठबंधन में ही उसकी हैसियत पिछलग्गू पार्टी की हो गई है। इसको लेकर राज्य इकाई के बड़े नेताओं में खासी छटपटाहट भी दिख रही है।

यह नेता छोटे दलों के साथ संपर्क में हैं और अगर महागठबंधन में बात नहीं बनी तो यह कांग्रेस छोड़कर नया मोर्चा भी खड़ा कर सकते हैं, जो चुनाव में महागठबंधन को ही नुकसान पहुंचाएगा। ऐसे में भविष्य में सफलता सुनिश्चित करने के लिए इतिहास से सबक लेने में कोई बुराई नहीं। बिहार में आखिरी बार साल 1990 में किसी एक पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी। उसके बाद के चुनावों में गठबंधन ही सत्ता का सहारा बना है। साल 2005 से यह ट्रेंड रहा है कि जेडी (यू), आरजेडी और बीजेपी में से दो दल के साथ आने पर ही सत्ता का सफर पूरा हो पाया है। साल 2020 में भी यह ट्रेंड बरकरार रहने के ही आसार दिख रहे हैं, लेकिन सत्ता तक पहुंचने से पहले दोनों ओर चुनौती गठबंधन को साथ रखने की होगी।

उपेन्द्र राय


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