विस्तारवाद पर ग्लोबल प्रहार

Last Updated 05 Jul 2020 02:12:07 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी तमाम खूबियों के साथ ही आउट ऑफ द बॉक्स सोच के लिए भी जाने जाते हैं।


विस्तारवाद पर ग्लोबल प्रहार

इस सोच से सांप भी मर जाता है और लाठी की सेहत पर भी कोई असर नहीं पड़ता। लद्दाख की सीमा से उनकी ललकार के मायने कुछ इसी तरह से निकाले जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने नाम लिये बिना बेहद सख्त अंदाज में चीन को भारत के मन की बात बता दी। वैसे यह काम दिल्ली की चाक-चौबंद सुरक्षा के बीच बैठे-बैठे भी हो सकता था, लेकिन युद्ध की आशंका की आहट से पहले मोर्चे पर पहुंचकर जो कुछ हुआ है तो उसके पीछे का संदेश बेहद खास है। यह दुश्मन की चौखट पर पहुंचकर, उसका दरवाजा खुलवाकर, उसकी आंख में आंख डालकर समझाने जैसा है कि अब उसकी कोई भी गलती माफी के काबिल नहीं होगी, और किसी भी ऐसी-वैसी गुस्ताखी की बड़ी कीमत चुकानी होगी। ठीक उसी तरह जैसे बंसी बजाने वाले कृष्ण जरूरत पड़ने पर सुदशर्न चक्र चलाकर दुश्मन का संहार करना भी जानते हैं। शांति को चुनौती देने वाले ऐसे खतरे का अलर्ट प्रधानमंत्री ने पिछले साल सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए भी दिया था। तब प्रधानमंत्री ने दुनिया को बुद्ध और युद्ध का दर्शन समझाया था।

उस संदेश में भी एक परोक्ष चेतावनी थी पाकिस्तान के लिए, कि भारत बुद्ध को मानता जरूर है, लेकिन सीमा पर शांति खतरे में पड़ेगी तो हम युद्ध से भी पीछे नहीं हटेंगे। शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने जिस नीमू बेस कैंप का दौरा किया वो चीनी सीमा के साथ ही पाकिस्तानी बॉर्डर से भी ज्यादा दूर नहीं है पूर्व में एलएसी, पश्चिम में एलओसी यानी एक तीर से दो शिकार। नीमू बेस कैम्प से जवानों का हौसला बढ़ाने के बीच प्रधानमंत्री ने चीन के विस्तारवाद को लेकर ठीक ही कहा है कि जब विस्तारवाद जुनून बन जाए तो वह विश्व शांति के लिए खतरा बन जाता है। हमारे लिए तो चीन तभी से खतरा है, जब उसने तिब्बत पर धोखे से कब्जा जमा लिया था। तब चीन की उस हरकत को डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ‘शिशु हत्या’ बताते हुए तत्कालीन सरकार को चीन से सावधान रहने की सलाह दी थी। डॉ. लोहिया की सात दशक पुरानी वो सलाह आज दुनिया के एक बड़े हिस्से के लिए सबक बन चुकी है। अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण चीन आज पूरी दुनिया के लिए खतरा बन गया है।

जमीनी और समुद्री सरहदों को लेकर चीन इस वक्त कम-से-कम 23 देशों का सिरदर्द बना हुआ है। चीन में शामिल 41 लाख वर्ग किलोमीटर का इलाका उसने दूसरे देशों से हथियाया है। यह चीन के मौजूदा क्षेत्रफल का 43 फीसद हिस्सा है, यानी करीब-करीब आधा चीन दूसरे देशों से हड़पी गई जमीन को मिलाकर बना है। जमीन हथियाने की उसकी यह नीति साल 1949 से चली आ रही है जब वहां कम्युनिस्ट शासन की स्थापना हुई थी। तुर्किस्तान इस नीति का पहला शिकार हुआ जब चीन ने उसका पूर्वी हिस्सा हड़प लिया। आगे चलकर मंगोलिया, हांगकांग, मकाऊ सब उसी सिलसिले की कड़ियां बनते गए। चीन की सरहद से 14 देश जुड़े हैं और हर देश की सरहद खतरे में है  यहां तक कि रूस और उत्तरी कोरिया भी दोस्ती के बावजूद चीन को भरोसे के काबिल नहीं समझते हैं। चीन की विस्तारवादी जिद जमीनी सीमाएं पार करने के साथ ही समुद्र को भी लांघ चुकी हैं। चारों ओर से समुद्र से घिरे ताइवान पर चीन की लंबे समय से नजर है। दक्षिण चीन सागर में ताइवान के अलावा चीन छह और देश इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, वियतनाम और ब्रुनेई में भी घुसपैठ की फिराक में रहता है। वैसे दावा तो वह दक्षिण चीन सागर के 90 फीसद इलाके पर करता है। यही हाल जापान के आठ द्वीपों का भी है। 

दिलचस्प बात यह है कि हमारे देश में इस पर बहुत कम बात हुई है कि चीन स्वाभाविक रूप से हमारा पड़ोसी नहीं है, बल्कि वो जबरन हमारे पड़ोस में आकर बैठ गया है। 50 के दशक में उसने तिब्बत पर कब्जा जमाया, जहां से वो सिक्किम को मान्यता देने के बावजूद घुसपैठ से बाज नहीं आता है। यही हाल उत्तराखंड का है, जहां नक्शे में अदला-बदली करके वो हमारे क्षेत्र पर दावा ठोकता रहता है, लेकिन गलवान घाटी में चीन की ताजा हिमाकत उसके विस्तारवादी मंसूबों के अंत की शुरु आत बन सकती है। चीन के 59 ऐप्स पर डिजिटल स्ट्राइक, अरबों रु पये के करार तोड़ने और चीन को पाकिस्तान के साथ ‘प्रायर रेफरेंस कंट्री’ की लिस्ट में डालकर मोदी सरकार ने बिल्ली के गले में जो घंटी बांधी है, उसके असर से भारत की अगुवाई में चीन के खिलाफ एक ग्लोबल गठबंधन बड़ी तेजी से आकार लेने लगा है। चीनी कंपनियों को दुनिया भर से बुरी खबरें मिलनी शुरू हो गई हैं। ट्रंप सरकार ने हुआवे और जेडटीई को सुरक्षा वजहों से अमेरिका से अपना कारोबार समेटने का फरमान सुना दिया है। कनाडा ने तो हुआवे के एक अधिकारी को गिरफ्तार भी कर लिया था। हांगकांग, ताइवान, फिलीपींस से चीन का झगड़ा भी आक्रामक होता जा रहा है।

इन सबके बीच चीन का ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम से भी छत्तीस का आंकड़ा बन गया है। अमेरिका तो अब चीन से सीधे-सीधे टकराव के मूड में दिख रहा है। ट्रेड वॉर और कोरोना के कारण दोनों देशों के रिश्ते पहले से खराब चल रहे थे, वो और बिगड़कर शीत युद्ध वाले दौर के समान हो गए हैं। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के लिए खतरा बन चुके चीन के कदम को रोकने के लिए अमेरिका यूरोप से अपनी सेना कम करके दूसरी जगहों पर नये सिरे से सैन्य जमावट कर रहा है। हालांकि अमेरिका की इस तैयारी को एक तीर से दो शिकार की कोशिश भी कहा जा सकता है जिसमें चीन पर निशाना लगाने के साथ ही वो हिंद महासागर में अपने हितों पर भी नजर रख सकता है।

बहरहाल मौजूदा हालात में हमारे लिए संदेश बेहद साफ है। चीन एलएसी के साथ ही पीओके, नेपाल, भूटान और तिब्बत की सीमाओं के करीब सड़क और रेल का जो नेटवर्क तैयार कर रहा है, उसका मकसद केवल आर्थिक गतिविधियों को रफ्तार देना भर नहीं है। यह हमारे लिए पहले से ज्यादा सावधान हो जाने का संकेत है। हालांकि प्रधानमंत्री के सिंहनाद के बाद चीन ने जिस मिमियाने वाले अंदाज में दोनों ओर से संयम बरतने की अपील की है, वो तो यही बताता है कि कूटनीतिक स्तर पर सक्रियता और सैन्य जमावट में आक्रामकता बढ़ाकर सरकार ने लंबे समय के लिए बेशक नहीं, लेकिन फिलहाल तो चीन पर नकेल कसने में कामयाबी जरूर हासिल कर ली है।

उपेन्द्र राय


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