चीनी विस्तारवाद नई वैश्विक चुनौती

Last Updated 11 Jul 2020 12:17:03 AM IST

हमें सदैव स्मरण रखना होगा कि जमीन, जनता और आर्थिक क्षमता के स्तर पर अगर कोई एक देश चीन की ‘दीवार’ के उस पार जाने का दम रखता है, तो वो भारत ही है। लद्दाख से दुनिया को चीन के विस्तारवाद की याद दिलाने के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया को भारत की इसी ताकत का अहसास भी करवाया है


चीनी विस्तारवाद नई वैश्विक चुनौती

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब लेह पहुंच कर चीन का नाम लिए बगैर उसके विस्तारवाद का जिक्र किया, तो दुनिया को भी इस बात का अहसास हुआ कि जमीन हड़पने के चीन के जुनून से कितने देश पीड़ित हैं। भारत समेत सभी 14 पड़ोसियों से चीन का सीमा को लेकर विवाद है। कंबोडिया, लाओस, इंडोनेशिया, मलयेशिया, फिलीपींस और सिंगापुर जैसे देश जो उसके पड़ोसी भी नहीं हैं, उनसे भी चीन सीमा को लेकर झगड़ता रहता है। जमीन ही नहीं, चीन का हिन्द महासागर और दक्षिण चीन सागर में बसे देशों से भी सीमा को लेकर विवाद है। चीन के कुल क्षेत्रफल का 43 फीसद हिस्सा उसका अपना नहीं, बल्कि कब्जा किया हुआ हिस्सा है। पूर्वी तुर्किस्तान, तिब्बत, दक्षिण मंगोलिया, ताइवान, हांगकांग और मकाऊ जैसे कम-से-कम 6 देश ऐसे हैं, जिन पर चीन कब्जा जमा चुका है, या फिर उन पर वो अपना हक जताता है। चीन साम-दाम-दंड-भेद की हर वो नीति अख्तियार करता है, जिससे दूसरे देशों को अपनी धौंस में लिया जा सके। लद्दाख में सीमा-विवाद भड़काने के पीछे भी उसकी मंशा यही थी, लेकिन इस बार उसका तीर निशाना ही नहीं चूका, बल्कि खुद चीन दुनिया के निशाने पर आ गया।
कोरोना वायरस फैलाने की आशंकाओं के बीच चीन से कई देश पहले से ही नाराज चल रहे हैं और अब उसकी विस्तारवादी सोच में दुनिया को खतरा नजर आने लगा है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे देश आरोप लगा रहे हैं  कि कोरोना से दुनिया को मुश्किल में डालकर चीन हालात का फायदा उठा रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी उसका ट्रेड नकारात्मक नहीं हुआ यानी व्यापार घाटे से चीन बचा रह गया और अब तो उसकी अर्थव्यवस्था भी पटरी पर लौट रही है, जबकि मजबूत कही जाने वाली दुनिया की लगभग हर प्रमुख आर्थिक शक्ति कोरोना वायरस की चपेट में आकर तबाही की कगार पर नजर आ रही है। अंदेशा इसी बात का है कि चीन वो रुतबा हथियाने की फिराक में है, जो फिलहाल अमेरिका को हासिल है। कोरोना से अमेरिका को जान-माल का भले ही कितना भी नुकसान हुआ हो, मगर डॉलर ने अपनी मजबूती बनाए रखी है जिसके कारण चीन का सपना फिलहाल तो अधूरा ही है।

हालांकि चीन बार-बार यह कह रहा है कि न तो वो अमेरिका बनना चाहता है, ना ही अमेरिका के साथ किसी तरह के संघर्ष में उलझना चाहता है, लेकिन अब दुनिया का हर देश समझ चुका है कि उसकी मंजिल क्या है? अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई तो सरकार के लिए बाकायदा अलर्ट जारी कर चुकी है कि चीन दुनिया की अकेली महाशक्ति बनना चाहता है। चीन की महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई योजना को तो अमेरिका इसी दिशा में बढ़ाए गए कदम की तरह देखता है। बीआरआई योजना साल 2013 में शुरू हुई थी और साल 2049 में जब पूरी होगी तब तक एशिया, मध्य-पूर्व एशिया, अफ्रीका, यूरोप और लैटिन अमेरिका के करीब 130 देश इससे जुड़ चुके होंगे। कई देशों में जहां से यह सड़क गुजरी है, वहां कई जगहों पर चीनी कॉलोनियां भी बस चुकी हैं।

रूस भी चीन की योजना से असहज
अमेरिका ही नहीं, रूस भी चीन की इस योजना को लेकर असहज है। बीआरआई को बढ़ाने के लिए चीन रूस के मना करने के बावजूद उसकी पश्चिमी सीमा पर यूक्रेन सरकार के साथ काम कर रहा है, जबकि यूक्रेन के साथ रूस के मौजूदा संबंध तनावपूर्ण चल रहे हैं। शीत युद्ध के बाद जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तो रूस की कमजोरी के कारण दुनिया अमेरिका के नेतृत्व में एक-ध्रुवीय होती चली गई। इसलिए जब चीन ने आगे आकर दूसरे ध्रुव की उस खाली जगह को भरने की कोशिश की, तो समान विचारधारा वाली दोस्ती की वजह से रूस ने कोई खास ऐतराज भी नहीं किया। लेकिन अब जब पुतिन के कार्यकाल में रूस दोबारा अपनी ताकत बटोर रहा है, तो अमेरिका के मुकाबले खड़े होने के लिए दोनों देशों के बीच एक अप्रत्यक्ष होड़ भी चल रही है। हाल ही में र्वल्ड हेल्थ असेंबली में जब कोरोना फैलने की जांच के लिए चीन के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया, तो रूस ने इसका समर्थन किया था। आर्कटिक क्षेत्र में अपने मिशन की जासूसी के कारण भी रूस धीरे-धीरे चीन से दूर हो रहा है। केवल अमेरिका और रूस ही नहीं, इस वक्त तो दो-तीन देशों को छोड़कर पूरी दुनिया ही चीन से नाराज है। लेकिन अमेरिका समेत यूरोप के कई देशों की धमकियों के बावजूद चीन मौकापरस्त और अड़ियल बना हुआ है। दरअसल, चीन के इस रुख की बड़ी वजह उसकी आर्थिक ताकत है। केवल अमेरिका के पास उससे मजबूत अर्थव्यवस्था है। चीन को लगता है कि अगले कुछ दशक में वो उसे भी पीछे छोड़ देगा। पिछले चार दशक में चीन ने दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बन कर खुद को ग्लोबल फैक्ट्री के तौर पर स्थापित किया है। चीन का वैश्विक निर्यात उसकी जीडीपी का 20 फीसद है और उसने दुनिया के कोने-कोने को चीनी माल से भर दिया है।

असलियत कुछ और
बेशक, चीन पर यह आरोप भी लग रहे हैं कि वो अपनी ताकत को बढ़ा-चढ़ाकर दुनिया को बताता है, जबकि असलियत कुछ और है। कोरोना से उसके निर्यात सिमटे हैं और ग्रोथ भी तेजी से नीचे आई है। हालत यह हो गई है कि चीन ने अगले साल के लिए कोई नया आर्थिक लक्ष्य तय नहीं किया है। पैसों की तंगी के कारण उसे कई प्रोजेक्ट रोकने पड़े हैं और सेना के बजट तक में कटौती करनी पड़ी है। लेकिन इससे मान लेना कि चीन चुप बैठ जाएगा, बड़ी गलती साबित हो सकती है। इसलिए उसकी दबंगई को रोकना है तो तमाम देशों को फिर से एक होना पड़ेगा, शीत युद्ध खत्म होने के बाद अप्रासंगिक हो चुके नाटो जैसे संगठन को नये सिरे से बहाल करना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि चीन के खिलाफ प्रचार करने में अमेरिका के अपने स्वार्थ भी हैं, लेकिन दुनिया के कई देशों के साथ-साथ नाटो भी चीन को वास्तविक खतरा मान रहा है। समझ यही है कि अगर चीन को आज नहीं रोका गया, तो कल वो पूरी दुनिया का सिरदर्द बन जाएगा। इसके लिए उसकी सामरिक ताकत को सीमित करने के साथ ही उसके आर्थिक साम्राज्य पर भी चोट पहुंचाना जरूरी है। अमेरिका और यूरोप के कई देशों ने इसकी शुरु आत भी कर दी है। चीनी कंपनियों पर नकेल कसने के साथ ही हांगकांग, शिनजियांग, ताइवान, तिब्बत पर वैश्विक मुखरता बढ़ाकर चीन की कमजोर नसों को दबाने जैसे उपायों पर भी गंभीरता से मंथन हो रहा है।

हालांकि हमारे लिए सवाल घूम-फिरकर वहीं आ जाता है, जहां से इस लेख की शुरुआत हुई है। चाहे लद्दाख से लेकर सिक्किम तक एलएसी में इस ओर घुसपैठ करता चीन हो या एलओसी के दूसरी ओर आतंकियों को पाल-पोस रहा पाकिस्तान या फिर देश की आंतरिक समस्याएं हों, क्या इस ढाई मोर्चे की लड़ाई के लिए अब हमें मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए? तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने ढाई मोर्चे शब्द का पहली बार इस्तेमाल डोकलाम विवाद के दौरान किया था। तब से अब तक ब्रह्मपुत्र में काफी पानी बह चुका है।

पाकिस्तान एक नाकाम देश है और चीन एक बड़ी आर्थिक और सैन्य महाशक्ति, लेकिन ये दोनों हमारे लिए समान रूप से अहम हैं क्योंकि दोनों हमारे पड़ोसी हैं। इनसे निपटने के लिए अमेरिका और रूस की ओर देखने के साथ ही हमें अपने बाकी पड़ोसियों से समर्थन को भी मजबूत करना होगा। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ मिलकर बने क्वाड का दायरा नाटो की तरह बढ़ाना होगा। इससे जुड़ने के लिए इच्छुक वियतनाम, मलयेशिया जैसे देशों को भी साथ लेना होगा और जी-11 में सदस्यता की पहल पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। हमें सदैव स्मरण रखना होगा कि जमीन, जनता और आर्थिक क्षमता के स्तर पर अगर कोई एक देश चीन की ‘दीवार’ के उस पार जाने का दम रखता है, तो वो भारत ही है। लद्दाख से दुनिया को चीन के विस्तारवाद की याद दिलाने के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया को भारत की इसी ताकत का अहसास भी करवाया है।

उपेन्द्र राय


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