तेल के ‘खेल’ में अच्छे संकेत

Last Updated 04 Jul 2020 10:47:07 AM IST

पेट्रोल-डीजल के दाम में लगी आग ने देश के सियासी तापमान को भी बढ़ा रखा है। कोरोना और चीन-नेपाल से होता हुआ विपक्ष अब पेट्रोलियम पदार्थो को लेकर सरकार पर हमलावर है। देश की राजधानी दिल्ली में पेट्रोल-डीजल 80 रुपये प्रति लीटर के करीब मिल रहा है और राज्यों में भी दाम इसके आसपास ही हैं।


तेल के ‘खेल’ में अच्छे संकेत

पिछले महीने पेट्रोल-डीजल ने 21 दिनों तक लगातार बढ़ोतरी का नया रिकॉर्ड बना दिया। विपक्ष के विरोध के बीच इस बढ़ोतरी से एक-दो दिन की राहत जरूर मिली, लेकिन अब फिर से इसमें तेजी दिख रही है। विरोध का सुर इसलिए और तीखा है क्योंकि देश में तेल के दाम ऐसे समय बढ़ रहे हैं, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल तुलनात्मक रूप से सस्ता मिल रहा है। खपत में 35 फीसद तक की गिरावट के बाद एक समय तो कच्चा तेल अपने न्यूनतम स्तर पर गिरकर नेगेटिव तक में पहुंच गया था, हालांकि अब इसमें सुधार दिख रहा है ।

इसलिए सवाल वाजिब भी लगता है कि पेट्रोल-डीजल में अंतरराष्ट्रीय मंदी के बावजूद क्या सरकार देश में महंगे होते जा रहे पेट्रोल-डीजल को लेकर चिंतित नहीं है? क्या पेट्रोलियम विभाग और वित्त मंत्रालय तक सभी के पास बढ़ते दाम को काबू में रखने के तमाम विकल्प खत्म हो गए हैं? या क्या सरकार जानबूझकर केवल अपना खजाना भरने के लिए कीमतों को बढ़ने दे रही है? सरकार से जुड़े बाबू-अफसर ही नहीं, राजनेता से लेकर देश की जनता भी इनमें से किसी सवाल का जवाब हां में नहीं सुनना चाहेगी। लेकिन हकीकत यही है कि सरकार के पास ऐसे हालात से निपटने के बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। कोरोना काल में पेट्रोलियम पदार्थो की घटी मांग और इससे अर्थव्यवस्था को मिल रही चुनौती ने सरकारों के विकल्पों को और भी सीमित कर दिया है।

आयात की मजबूरी
अनुमान है कि देश में फिलहाल करीब 78 हजार पेट्रोल पंप हैं। सामान्य दिनों में यहां से औसतन हर रोज 10 करोड़ लीटर पेट्रोल और करीब 32 करोड़ लीटर डीजल की बिक्री होती है। रोजाना की इतनी बड़ी खपत के बावजूद आज भी हमें अपनी जरूरत का 80 फीसद से ज्यादा तेल बाहर से मंगवाना पड़ता है। इस मजबूरी ने हमें दुनिया में कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश बना रखा है। लेकिन 78 दिनों की तालाबंदी ने मांग-आपूर्ति के सारे समीकरण उलट-पुलट दिए। लॉकडाउन में पेट्रोलियम पदाथरे की बिक्री 80 से 90 फीसद तक घट गई, जिससे सरकार को पेट्रोल पर रोजाना 206 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। डीजल के मामले में तो रोज का नुकसान 550 करोड़ रु पए तक पहुंच गया। जब खपत ही नहीं हुई तो एक्साइज ड्यूटी बढ़ाने से भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा। दरअसल, हमारे देश में तेल के खेल में टैक्स का इतना गहरा मेल है कि उसे अलग कर नहीं देखा जा सकता।
आम जनता को जिस दाम पर तेल मिलता है, उसका केवल 30 फीसद हिस्सा कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव पर निर्भर करता है। बाकी का 70 फीसद हिस्सा टैक्स का होता है।
इसमें तेल की एक्स फैक्ट्री कीमत, केंद्र सरकार की एक्साइज ड्यूटी, ढुलाई खर्च, डीलर का कमीशन और राज्य सरकारों का वैट शामिल होता है। कोरोना के असर से जब इंटरनेशनल क्रूड सस्ता हुआ था, तो केंद्र और राज्य, दोनों ने घाटे की भरपाई के लिए टैक्स बढ़ाए थे। खपत गिरने से लॉकडाउन में तो इसका फायदा नहीं हुआ, लेकिन देश के अनलॉक होने के बाद पेट्रोल-डीजल की मांग उठने से सरकारों का राजस्व बढ़ा है। मांग उठने के बावजूद सरकारों ने बढ़ाए हुए टैक्स नहीं घटाए क्योंकि तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्त्रोत का राजस्व अब तक सामान्य नहीं हो पाया है और अभी भी पेट्रोल-डीजल ही इसका इकलौता जरिया बने हुए हैं।

बढ़ी कीमत का कारण
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पेट्रोलियम पदाथरे की बढ़ी कीमत वसूल कर सरकार केवल अपना खजाना भर रही हो। सरकार इसका बड़ा हिस्सा बिजली, अस्पताल, हाई-वे बनाने जैसे विकास कार्य और उज्ज्वला, मुद्रा, पीएम आवास, मुफ्त अनाज, किसान और गरीब कल्याण जैसी कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च कर रही है। पिछले तीन महीनों में ही सरकार ने गरीबों के खातों में 65 हजार करोड़ से भी ज्यादा रु पए डाले हैं। अब सरकार अगर तेल पर एक्साइज ड्यूटी कम करती है तो चालू खाते का घाटा लक्ष्य से ऊपर जाएगा जिससे राजस्व का गणित बिगड़ जाएगा। इसकी भरपाई के लिए सरकार को सार्वजनिक खचरे में कटौती करनी होगी लेकिन इससे सरकार जो विकास कार्य और कल्याणकारी कार्यक्रम चला रही है, वो प्रभावित होंगे।

बेशक, पेट्रोल-डीजल के दाम नई ऊंचाई की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देश में यह पहली बार हो रहा हो। यूपीए के समय भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में आग लगती रही है। साल 2013 में तो पेट्रोल की कीमत 82 रुपये 53 पैसे प्रति लीटर तक पहुंच गई थी। हालांकि, उसकी बड़ी वजह कच्चे तेल की कीमतों में आया वैिक उछाल था लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि 2004 से लेकर 2014 तक के दस वर्षो में देश में यूपीए की सरकार रही और इस दौरान पेट्रोल के दाम दोगुने तक बढ़े। जून, 2004 में पेट्रोल 35.71 रुपये पर बिक रहा था, जो मई, 2014 में 71.52 रु पये तक पहुंच गया था। आज जब पेट्रोल 80 रुपये के आसपास है तो आंकड़ों के आधार पर सरकार से जुड़े कई लोग दावा कर रहे हैं कि मोदी सरकार के 6 साल के कार्यकाल में सिर्फ  8 रुपये की ही तो बढ़ोतरी हुई है। इसीलिए विपक्ष के विरोध के बीच ही कांग्रेस-शासित राजस्थान, पंजाब, झारखंड, पुडुचेरी और महाराष्ट्र जैसे राज्य भी निशाने पर हैं, जहां की सरकारें खुद वैट बढ़ाकर अपने राज्य की जनता से तेल की ज्यादा कीमत वसूल रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि इसी दौर में डीजल पहली बार पेट्रोल से भी महंगा हो गया है। डीजल के दाम बढ़ने से ढुलाई-पहिवहन महंगा होता है और रोजमर्रा की चीजों की कीमतें आसमान छूने लगती हैं। इन सबके बीच सरकार पिछले लंबे वक्त से पेट्रोल और डीजल की कीमत के फर्क को कम करने पर काम रही थी। इसकी एक वजह तो यह है कि दोनों पर लागत एक समान आती है। लेकिन डीजल का इस्तेमाल खेती, बिजली और ट्रांसपोर्ट जैसे जरूरी सेक्टरों में ज्यादा होता है, इसलिए कल्याणकारी सोच के तहत सरकार उस पर सब्सिडी दे रही थी और डीजल सस्ता मिल रहा था। लेकिन यूपीए सरकार में डीजल पर सब्सिडी का बोझ भी काफी ज्यादा हो गया था, जिसके बाद उसकी कीमत को पेट्रोल के बराबर लाने की चर्चा शुरू हो गई थी।

बहरहाल, उम्मीद है कि एक बार अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम स्थिर हो जाएंगे तो हमें भी दाम में आई तेजी से राहत मिल जाएगी। सरकार में भी इसे लेकर मंथन जोरों पर चल रहा है। इकोनॉमी का पहिया दोबारा चल पड़ा है, जिससे राजस्व के दूसरे स्त्रोतों से भी सरकारी कमाई बढ़ने लगी है। हालांकि जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन का अपेक्षित स्तर अभी भी दूर है, लेकिन इसमें हो रहा सुधार आने वाले दिनों के लिए शुभ संकेत है।

उपेन्द्र राय


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