अर्थव्यवस्था में ‘करुणा’ की व्यवस्था भी जरूरी
अर्थव्यवस्था का वजूद यूं तो दुनिया के वजूद जितना ही पुराना है, लेकिन इसकी ताकत की समझ तुलनात्मक रूप से नई थ्योरी है।
अर्थव्यवस्था में ‘करुणा’ की व्यवस्था भी जरूरी |
खासकर उदारीकरण के दौर के बाद तो अर्थव्यवस्था ही देशों की रीढ़ बन गई है। लेकिन कोरोना वायरस ने मजबूत से मजबूत रीढ़ को भी झुकने के लिए मजबूर कर दिया है। कहा जा रहा है कि अभी कहर की पूरी ‘पिक्चर’ सामने आना बाकी है, लेकिन चंद महीनों के ‘ट्रेलर’ ने ही दुनिया की आर्थिक समझ को ही नहीं, जिंदगी के नजरिये को भी पूरी तरह बदल कर रख दिया है। तबाही का यह चक्र इतनी तेज घूम रहा है कि जिस तरह कोरोना का इलाज नहीं मिल रहा है, उसी तरह आर्थिक गिरावट का अंदाजा नहीं लग पा रहा है। बदलाव का हर अनुमान दिन बदलने के साथ पुराना पड़ रहा है और गिरावट की हर आशंका बौनी साबित हो रही है।
सबसे ताजा अनुमान मूडीज का है, जिसने वैश्विक अर्थव्यवस्था की विकास की दर को अब 0.5 फीसद कम कर दिया है। ‘ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डवलपमेंट और एशियन डवलपमेंट बैंक’ का अनुमान भी इसी के आसपास है। कोरोना के प्रकोप से ठीक पहले पिछले साल नवम्बर में रेटिंग एजेंसियां दुनिया की इकोनॉमी के 2.6 फीसद की दर से बढ़ने का अनुमान लगा रहीं थीं। गिरावट का ताजा आंकड़ा 2.7 ट्रिलियन डॉलर का है, जो करीब-करीब भारत की कुल जीडीपी के बराबर है। यह भी अजीब विडंबना है कि जिस चीन को इस तबाही का गुनहगार बताया जा रहा है, अब उसे ही रिकवरी का खेवनहार भी माना जा रहा है। इसकी वजह हाल के दशक में चीन की अर्थव्यवस्था का विस्तार है। सत्रह साल पहले सार्स के समय चीन दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश था। वैश्विक जीडीपी में उसका योगदान 4.2 फीसद था। आज कोरोना के दौर में वह वैश्विक जीडीपी में 16.3 फीसद योगदान के साथ दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। लेकिन चीन के इस बढ़े कद की भी कोरोना ने कोई कद्र नहीं की है। चीन में सरकार समर्थक थिंक टैंक ‘चाइनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज’ तक मान कर चल रहा है कि टोटल लॉकडाउन के कारण साल के पहले तीन महीने में उसकी अर्थव्यवस्था में पांच फीसद तक की कमी आ सकती है।
लेकिन अगर चीन जल्द ही अपनी घरेलू परिस्थितियों पर काबू पा लेता है और दूसरी तिमाही में उसके यहां उत्पादन शुरू हो जाता है तो अर्थव्यवस्था पर होने वाले नकारात्मक प्रभावों को काफी हद तक कम भी किया जा सकता है। चीन से ताजा खबर तो यही है कि वहां की 80 फीसद निर्माण इकाइयों में कामकाज शुरू हो गया है। ऐसा होता है तो पहली तिमाही के झटके के बाद दूसरी तिमाही में रिकवरी देखने को मिल सकती है। तब भी ध्यान में रखना होगा कि जी-8 में शामिल इटली, जापान, फ्रांस और जर्मनी जैसी मजबूत अर्थव्यवस्थाएं भी कोरोना की बड़ी मार झेल रही हैं। इसके असर से वैश्विक अर्थव्यवस्था बच नहीं पाएगी। रूस को छोड़ दें तो जी-8 के बाकी तीन देश अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा के साथ-साथ भारत और ब्राजील की जीडीपी पर यही बात लागू होगी। यह गिनती इसलिए जरूरी है क्योंकि यही देश दुनिया की टॉप-10 इकोनॉमी को पूरा करते हैं और इनकी अर्थव्यवस्था का हाल ही दुनिया के कारोबार की चाल को तय करता है।
जल्द सुधार की उम्मीदें पालना इसलिए भी तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि चीन में भले ही उत्पादन सामान्य हो जाए लेकिन जिन देशों में उसके तैयार या कच्चे माल की खपत होनी है, वे सब फिलहाल संक्रमण के दौर में हैं यानी उत्पादन के बाद भी चीन के पास अगले कुछ महीनों तक उसे खपाने के लिए बाजार नहीं होगा। चीन का सबसे बड़ा बाजार तो भारत ही है। पिछले कारोबारी साल में दोनों देशों के बीच व्यापार 92 अरब डॉलर का रहा था। भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना के आने से पहले ही सुस्ती में जा चुकी थी। ऐसे में अब चीन की अर्थव्यवस्था का स्लोडाउन भारत के लिए और बड़ी मुसीबत बनेगा। इसका पहला इशारा मूडीज की ओर से आया है, जिसने भारत की ग्रोथ रेट को अपने पिछले अनुमान 5.3 फीसद से घटाकर अब 2.5 फीसद कर दिया है। वजह यह है कि ऑटोमोबाइल, रियल एस्टेट और लघु उद्योग समेत असंगठित क्षेत्र पिछले साल से ही पस्त पड़े हैं और बैंकों को आने वाले कई साल तक एनपीए की समस्या से जूझना है।
लॉकडाउन के फायदे हैं तो नुकसान भी हैं-लोग घरों में हैं, उत्पादन बंद है, दुकानों पर ताले डल गए हैं और कई सेक्टर में मांग खत्म हो गई है यानी अर्थव्यवस्था का पहिया पूरी तरह जाम हो गया है। इसका संकेत बार्कलेज ने भी दिया है, जिसने लॉकडाउन के बाद भारत की अर्थव्यवस्था से 9 लाख करोड़ रु पए ‘साफ’ हो जाने का अंदेशा जताया है। यह राशि भारत की जीडीपी के चार फीसद के बराबर है। मूडीज का अनुमान सच साबित होता है तो ग्रोथ रेट का यह स्तर तीन दशक पहले का होगा जो देश के 21 साल पीछे जाने की प्रधानमंत्री मोदी की चेतावनी की भी याद दिलाता है। हालांकि हम यह भी नहीं भूल सकते कि नॉर्थ ब्लॉक से तय होने वाली देश की अर्थव्यवस्था के समानांतर ही भारत के घर-घर में एक पारंपरिक अर्थव्यवस्था भी चलती है जिसका आधार बचत पर टिका होता है। इसमें कैश से लेकर जूलरी तक शामिल होती है और जो मुश्किल के दौर में पहले भी कई मौकों पर बड़ा सहारा साबित हो चुकी है। लेकिन नोटबंदी के बाद कैश नहीं, पर जूलरी से ही सही यह अर्थव्यवस्था कोरोना के सामने भी कारगर होगी; यह सोचना उम्मीद के खिलाफ उम्मीद भी हो सकता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करीब साढ़े चार करोड़ लोगों के पास इतनी भी बचत नहीं होती कि आमदनी रु कने पर वो कुछ दिन गुजारा कर सकें। रोजगार से जुड़ी वेबसाइट कॅरियर बिल्डर के तीन साल पहले हुए सर्वे में पता चला था कि 78 फीसद अमेरिकी कामगार हर महीने मिलने वाली सैलरी से ही अपनी जरूरतें पूरी करते हैं, जबकि 25 फीसद किसी तरह की बचत नहीं करते यानी कमाओगे तो ही खा पाओगे। इस जीवनशैली का सबसे बड़ा साइडइफेक्ट यह है कि अमेरिका की 8 फीसद आबाद का अपना कोई स्वास्थ्य बीमा भी नहीं है, जो कोरोना जैसी मेडिकल इमरजेंसी में बड़ा कवर साबित हो सकता है। लेकिन दुनिया के सबसे ताकतवर देश को फिलहाल ज्यादा चिंता अपनी अर्थव्यवस्था को होने जा रहे दो फीसद यानी करीब चार ट्रिलियन डॉलर के नुकसान को लेकर है। शायद इसी वजह से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लॉकडाउन को नकार कर आर्थिक नुकसान की भरपाई को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं, भले ही इसके बदले कोरोना के सामने खुलेआम एक्सपोज हो रहे आम अमेरिकी की जान दांव पर क्यों न लग रही हो।
हैरानी की बात है कि करोड़ों अमेरिकियों की जान से खिलवाड़ का आरोप झेल रहे ट्रंप जी-20 देशों की उस वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में भी शामिल थे, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस नाजुक दौर में मानव को आर्थिक हितों के केंद्र में रखने की बात कही थी। कोरोना से लड़ाई में भारत के समूचे एक्शन प्लान में पहले जन फिर धन की भावना कदम-कदम पर दिखाई देती है। बड़े आर्थिक दुष्परिणामों के अनुमानों के बावजूद सवा-सौ करोड़ आम देशवासियों की जान को तरजीह देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना के सामने लॉकडाउन की लक्ष्मण रेखा खींचने का साहसिक फैसला किया है। स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार और सुधार के लिए 5 हजार करोड़ का पैकेज; लॉकडाउन के बीच किसानों, बुजुर्गों, महिलाओं और दिहाड़ी मजदूरों को होने वाली रोजी-रोटी की दिक्कत दूर करने के लिए एक लाख सत्तर हजार करोड़ का बूस्टर डोज, कोरोना से वॉर वॉरियर्स की तरह लड़ रहे चिकित्साकर्मिंयों को 50 लाख का बीमा कवर, आरबीआई के जरिए मिडिल क्लास को तीन महीनों तक ईएमआई से राहत समाज के हर तबके के कल्याण के चिंतन का ही नतीजा है। मानवता का दुश्मन बने कोरोना से लड़ने के लिए अर्थव्यवस्था की उचित व्यवस्था के साथ ही जन-जन के लिए यह करु णा भी जरूरी है।
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