सरोकार के प्रकाश से दूर होगा कोरोना का अंधकार

Last Updated 03 Apr 2020 11:35:24 PM IST

देश में संपूर्ण लॉकडाउन का आज 10वां दिन है, यानी वो पड़ाव जहां 21 दिनों की तालाबंदी का आधा सफर पूरा होता है। लेकिन इस बात का यह मतलब लगाना बड़ी भूल होगी कि अब कोरोना से लड़ाई का आधा सफर ही बाकी है।


देश में संपूर्ण लॉकडाउन

दरअसल देश अब लड़ाई के उस निर्णायक दौर में प्रवेश कर रहा है जहां हर राह पर परस्पर सहयोग, हर मोड़ पर आपसी सरोकार और हर कदम पर एक-दूसरे पर विश्वास की जरूरत है। लॉकडाउन के असर को व्यापक और सामुदायिक संक्रमण को सीमित करके देश को उसके इतिहास की शायद सबसे बड़ी त्रासदी से बचाने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।

देश बेशक अभी सामुदायिक संक्रमण की अवस्था में न पहुंचा हो, लेकिन इसका खतरा ज्यादा दूर भी नहीं है। पिछले 10 दिनों में संपूर्ण लॉकडाउन के भविष्य पर उठा हर सवाल इस खतरे की आहट से लाजवाब साबित हुआ है। शायद इसीलिए अगले 11 दिनों का सबसे बड़ा सवाल यही रहने वाला है कि संपूर्ण लॉकडाउन कोरोना की इस खतरनाक स्टेज को टालने के अपने मकसद में कितना कामयाब रहेगा? देश की सरकार ने इसके लिए मेगा प्लान बनाना भी शुरू कर दिया है। गुरु वार को मुख्यमंत्रियों की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में प्रधानमंत्री ने एक तरह से इस दिशा में राज्यों की तैयारियों का जायजा भी ले लिया। उम्मीद है कि 21 दिनों की मियाद पूरी होने पर लॉकडाउन को भले ही पूरी तरह से न हटाया जाए, पर इसकी चरणबद्ध प्रक्रिया शुरू हो सकती है  बेशक हालात इसी तरह काबू में रहे जैसे कि वो फिलहाल हैं।

यही देश और सरकार की सबसे बड़ी चुनौती भी है। खासकर लॉकडाउन के पहले आधे हिस्से की दो बड़ी घटनाओं ने इस चुनौती को और मुश्किल बना दिया है। दोनों घटनाएं भारत के लिए ही नहीं, भारत की ओर उम्मीद की नजरों से देख रही दुनिया के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। एक घटना गरीबों के पलायन की है जिसमें भुखमरी या कोरोना में से किसी एक को चुनने की लाचारी है और दूसरी घटना धर्म के विस्तार से जुड़ा सुकून है जिसमें केवल अपने कौम को ही नहीं, पूरे वतन को मुश्किल में डालने का अजीबोगरीब जुनून है।
 

पलायन की घटना को किसी ने साजिश कहा, तो किसी ने चिंता जताई। मगर, जब दुधमुहें बच्चे को गोद में लेकर एक बाप या सात महीने का गर्भ लेकर कोई महिला अपने परिवार के साथ सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने की ठान ले तो उसका कारण मामूली कतई नहीं हो सकता। सवाल यह है कि गरीब अगर सड़क पर उतरे तो क्या वह कोरोना से लड़ाई नहीं थी? कोरोना संकट ने गरीबों की रोजी-रोटी छीन ली। अस्तित्व की लड़ाई में कोरोना को मात देने ही तो वे निकले थे। जी गए तो कोरोना हार जाए और हार गए तो कोरोना जीत जाए।

निजामुद्दीन के मरकज का मसला अलग है। सामान्य दिनों में वहां सालभर धर्मगुरुओं और आस्थावानों का जमघट लगा रहता है। इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। लेकिन संकट काल में समाज और देश की उम्मीदें अलग होती हैं। यह वह वक्त होता है जब सारे धर्म मिलकर इंसानियत के धर्म में बदल जाते हैं जिसके सामने फिर किसी एक धर्म के प्रचार का मंसूबा बेमानी हो जाता है। मरकज में पहुंचे लोग इसी ‘ईमान’ को सुरक्षित रखने की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। जिस पवित्र जगह से धार्मिंक शिक्षाओं का विस्तार होना था, वहीं से जाने-अनजाने देश भर में कोरोना का फैलाव होना अब दुनिया के लिए सबक बन गया है। यह अंधविश्वास भी सामने आया कि ऊपरवाले के दरबार में कोरोना से कोई नहीं मर सकता और यह हठधर्मिंता भी कि अगर कोई मरता भी है तो इससे बेहतर मौत कुछ हो ही नहीं सकती।

अच्छा होता कि मरकज ने वेटिकन सिटी और मक्का से सबक लिया होता। वीरान हो चुकी वेटिकन सिटी में बारिश में भीगते हुए पोप ने अकेले सड़क पर चल कर कोरोना के खिलाफ एकजुटता का संदेश दिया है। दुनिया आबाद बनी रहे, इसलिए मक्का में खुदा का घर भी सुनसान है। दुनिया भर की मस्जिदों और गिरिजाघरों का यही हाल है। हमारे देश में भी चारों धाम बंद हैं, धार्मिंक स्थलों में सन्नाटा पसरा है, कभी न रुकने वाला अमृतसर का लंगर भी कोरोना काल में ठहर गया है। यह सब सिर्फ इसलिए कि कोरोना से लड़ाई मजबूत हो।

हालांकि अपराध की हद वाली इस लापरवाही के लिए अकेले मरकज को कसूरवार ठहराना भी जायज नहीं होगा। जाहिर तौर पर यह मामला सावधानी हटी, दुर्घटना घटी वाला दिखता है। यह कैसे मान लिया जाए कि देश की राजधानी में इतनी सतर्कता और सुरक्षा के बावजूद हजारों लोग जमा होते रहे और पुलिस और खुफिया तंत्र को भनक तक नहीं लगी या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि पता होते हुए भी हमारा तंत्र इसकी गंभीरता को भांप नहीं सका। मरकज में जमातें पहली बार नहीं पहुंची थी। वैसे भी तबलीगी मरकज में आने वाले प्रतिनिधि ब्यूरो ऑफ इमीग्रेशन से लेकर गृह मंत्रालय तक अपने आगमन की सूचना देते हैं। सवाल उठता है कि फिर इस बार ऐसा क्या हुआ कि इतने दिनों तक दो हजार से ज्यादा लोगों का जमावड़ा लगा रहा और न तो 100 मीटर से कम दूरी पर बने थाने में कोई हलचल हुई और न खुफिया तंत्र ने कोई सक्रियता दिखाई। क्या दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी मरकज के प्रतिनिधियों से मुलाकात का ‘सबूत’ तैयार करने भर से पूरी हो जाती है? उल्टे दिल्ली पुलिस की ओर से जारी मुलाकात के इस वीडियो से ही इस बात के सबूत मिल जाते हैं कि एसएचओ से लेकर बड़े पुलिस अफसर और एसडीएम रैंक के अधिकारी तक को इस जमावड़े की सूचना थी। फिर बार-बार के पत्र-व्यवहार के बावजूद समय रहते कोई कार्रवाई नहीं हुई तो इसके लिए अकेले मरकज पर ठीकरा फोड़ने से काम नहीं चलेगा।

रास्ता बार-बार केवल इस सवाल को उठाने से भी नहीं निकलेगा कि इस चूक की देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। बल्कि इसके लिए एक बार फिर कोरोना के खिलाफ एकजुट होकर खड़ा होना पड़ेगा। साथ ही इस लड़ाई को कमजोर कर रहे लोगों को साफ और स्पष्ट संदेश भी देना होगा कि मानवाधिकार मानवों के लिए होता है, दानवों के लिए नहीं। खासकर कोरोना के कहर से बचाने के लिए ‘धरती के भगवान’ की तरह काम कर रहे डॉक्टरों और हेल्थ वर्करों के साथ बदसलूकी को तो किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इंदौर, धारावी, राजस्थान और यूपी-बिहार से इंसानियत को शर्मसार करने वाली कई ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं जब कोरोना से लोगों की जान बचा रहे स्वास्थ्य अमले को अपनी जान तक दांव पर लगानी पड़ी है।
 
अच्छी बात यह है कि इन सब घटनाओं के बावजूद कोरोना से लड़ने का देश का संकल्प और जज्बा बरकरार है और अब तो दुनिया भी इस जज्बे को सलाम कर रही है। स्वास्थ्य से जुड़े दुनिया के सबसे बड़े संगठन डब्ल्यूएचओ तक ने कोरोना से भारत की लड़ाई की तारीफ की है और अमेरिका, ब्रिटेन जैसी महाशक्तियों को इससे सीख लेने की सलाह दी है। भारत से उम्मीद की जा रही है कि जिस तरह साथ रहकर हमने पोलियो से दुनिया को निजात दिलाई, वैसी ही एकजुटता कोरोना के अंधकार को भी दूर कर सकती है। पांच अप्रैल की रात को देश के घर-घर में प्रकाश पर्व मनाने की प्रधानमंत्री की अपील दरअसल एक अरब 36 करोड़ देशवासियों को यह स्मरण करवाने की कोशिश ही है कि सामाजिक दूरियां बनाए रखते हुए भी सामूहिक शक्ति के दम पर कोरोना की महामारी को भी परास्त किया जा सकता है।

उपेन्द्र राय


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