चुनौतियों से गुजर रहा है गणतंत्र

Last Updated 25 Jan 2020 01:36:55 AM IST

आज यह बात साफ तौर पर सामने आ रही है कि नागरिकता कानून के खिलाफ जो माहौल बनाया गया है, उसके केंद्र में यह डर है कि संशोधित कानून भारत के मुसलमानों के खिलाफ है। एनआरसी से जोड़कर भेदभाव के इस डर को दोगुना कर दिया गया है। संविधान पर खतरे की आशंका बताकर इसे प्रचारित किया जा रहा है


चुनौतियों से गुजर रहा है गणतंत्र

हमारा देश लोकतंत्र होने के साथ ही गणतंत्र भी है। संविधान के जरिए हमने अपने देश में गणतंत्र को 70 साल पहले स्वीकार किया था। वैसे इसका इतिहास तो और भी पुराना है। माना जाता है कि गणराज्यों की परंपरा ग्रीस के नगर राज्यों से शुरू हुई थी, लेकिन उससे भी हजारों साल पहले अखंड भारतवर्ष में कई गणराज्य स्थापित हो चुके थे। इसका जिक्र ऋग्वेद में 40 बार, अथर्ववेद में 9 बार और पौराणिक ग्रंथों में अनेक बार हुआ है।

गणतंत्र यानी गण का तंत्र जिसका मतलब हुआ जनता द्वारा नियंत्रित प्रणाली। इसलिए गणतंत्र ऐसा तंत्र है जिसमें देश के हर नागरिक का योगदान होता है। यह योगदान जारी रहे इसके लिए हमारा संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है, और इस बात की व्यवस्था करता है कि नागरिकों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव न हो। संविधान की प्रस्तावना में इस बात का पुरजोर ऐलान भी है। लेकिन इतने वर्षो के अनुभव के बावजूद गणतंत्र की यह व्यवस्था समस्या से युक्त भी रही है। पिछले सात दशकों में ही तमाम व्यावहारिक दिक्कतें पहाड़-सी नजर आती रही हैं, हालांकि यह भी हकीकत है कि ऐसे हर दौर में हमारा संविधान ही हर चुनौती से पार पाने का जरिया बना है। 70 साल पहले जिस विजन के साथ गणतंत्र की बुनियाद रखी गई थी, संविधान की वही सोच भारत का नागरिक होने के मायने तय कर रही है। इस पृष्ठभूमि का विस्तार दरअसल, इसलिए जरूरी है कि आज इसी सोच पर सवाल उठ रहे हैं, गणतंत्र के साथ-साथ लोकतंत्र को भी कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, और सबसे बड़ी बात तो यह कि संविधान को खतरे में बताया जा रहा है। समूचा विवाद भारतीय नागरिकता से जुड़े नये कानून को लेकर है। विरोध का आधार है कि संशोधित कानून धार्मिंक आधार पर भेदभाव करता है, इसलिए वो संवैधानिक भावना के खिलाफ है।

विरोध के नाम पर देश भर में पिछले करीब दो महीनों से जो हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं, वह चिंता ही नहीं, चिंतन का विषय भी बन गए हैं। सवाल उठता है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रही अराजक भीड़ को ताकत पहुंचा कर कहीं विपक्ष खुद तो लोकतंत्र को कमजोर नहीं कर रहा? सबसे बड़ा सवाल तो यही कि जिस कानून को संविधान के लिए खतरा बताकर वह देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुंचा है, उसी अदालत के फैसले का इंतजार किए बगैर उन्मादी भीड़ के साथ खड़ा होकर वह संविधान की किस मर्यादा की मिसाल पेश कर रहा है?

हैरान करतीं विपक्ष की सरकारें
हैरानी की बात यह भी है कि विपक्ष की कुछ राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में संशोधित नागरिकता कानून को लागू न करने की बात भी कर रही हैं। संसद के जरिए बने केंद्रीय कानून को नकारना क्या संविधान की भावना की अवहेलना नहीं होगी? ऐसी राज्य सरकारों के लिए क्या यह उचित नहीं होगा कि संसद से बने कानून को दरकिनार करने की कोशिश के बजाय वह सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाओं पर फैसले का इंतजार करें। देश में पहले भी कई कानूनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। हालांकि शाहबानो मामले में तो तत्कालीन सरकार ने धार्मिंक संगठनों के दबाव में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही संसद से कानून बनाकर अमान्य कर दिया था।

संविधान भले ही चुनी हुई सत्ता को सबसे ताकतवर मानता हो और संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहता हो, लेकिन इसी संविधान में इस बात की भी व्यवस्था है कि कोई संस्था तानाशाही में न बदल जाए। साल 1975 में जब देश में आपातकाल लगा, तो नागरिकों को संविधान से मिलने वाले हक निलंबित कर दिए गए, मनचाहे ढंग से संविधान को परिभाषित करने के आरोप भी सामने आए। जनता की आजादी पर बंदिशें लगा दी गई, लेकिन जब आपातकाल हटा तो इसी जनता ने अपना फैसला सुनाकर संविधान से मिली ताकत को स्पष्ट कर दिया। आज यह बात साफ तौर पर सामने आ रही है कि नागरिकता कानून के खिलाफ जो माहौल बनाया गया है, उसके केंद्र में यह डर है कि संशोधित कानून भारत के मुसलमानों के खिलाफ है। एनआरसी से जोड़कर भेदभाव के इस डर को दोगुना कर दिया गया है। एक पत्रकार के तौर पर मुस्लिम समाज के कई लोगों से मेरी बात हुई है, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया है कि अपने राजनीतिक स्वार्थ को सिद्ध करने के मकसद से कई दल विरोध की आग को निरंतर भड़का रहे हैं। वह भी तब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद कई मंचों से साफ कर चुके हैं कि न तो यह कानून किसी वैध नागरिक से उसकी नागरिकता छीनने जा रहा है, न ही सरकार की फिलहाल एनआरसी लागू करने की कोई मंशा है।

करें विश्वास
संविधान की आड़ लेकर देश को जलाने पर आमादा लोग प्रधानमंत्री के इस भरोसे पर भी विश्वास करने को तैयार नहीं हैं कि भारत की मिट्टी के जो मुसलमान हैं, उनकी नागरिकता और अधिकारों पर कोई आंच नहीं आने वाली। प्रधानमंत्री जब ऐसे लोगों को ‘मेरे टेप रिकॉर्ड पर नहीं, मेरे ट्रैक रिकॉर्ड पर ध्यान देने’ वाली अपील करते हैं, तो उनके इस भरोसे पर शंका करने की कोई वजह नहीं रह जाती। प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान योजना या केंद्र की दूसरी किसी भी योजना से जुड़ा ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है, जहां किसी मुसलमान ने इन योजनाओं के फायदों से वंचित किए जाने की शिकायत की हो। तीन तलाक, धारा 370 और राम मंदिर जैसे विवादास्पद मसलों पर आए फैसलों पर भी न लोगों का आपसी सद्भाव टूटा, न संविधान खतरे में पड़ा।


 
इस तारतम्य में पिछले साल संविधान दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री के भाषण का जिक्र भी मौजूद होगा। सेंट्रल हॉल में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने संविधान की भावना को अटल और अडिग बताया था। तब उन्होंने देश को खास तौर पर याद दिलाया था कि जब भी संविधान की मर्यादा के खिलाफ प्रयास हुए हैं, तो देशवासी ही इसे असफल करने में आगे आए हैं। प्रधानमंत्री की इस बात से यह संदेश भी मिलता है कि हमारे गणतंत्र में लोग अधिकारों की बात तो करते हैं, लेकिन कर्त्तव्यों पर चुप्पी साध जाते हैं। संविधान की मूल आत्मा का सम्मान तभी हो पाएगा जब हम अधिकारों के साथ कर्त्तव्य पूरी करने की जिम्मेदारी भी निभाएं। अच्छा तो यही होता कि विपक्ष संविधान विरोधी आरोप लगाकर केवल सरकार को घेरने के अधिकार तक ही खुद को सीमित न रखता, बल्कि अपनी जिम्मेदारी भी निभाता और अराजकता को पीछे छोड़कर देश को मजबूत बनाने में सरकार को रचनात्मक सहयोग करता। गणतंत्र दिवस पर दुनिया को शायद हमारे देश का यही सही संदेश भी होगा। 

उपेन्द्र राय


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