मोदी-विरोध को देश-विरोध न बनाए विपक्ष
हमने अपने देश में शासन के लिए संसदीय व्यवस्था को चुना है। इस व्यवस्था में बहुमत के पास सरकार चलाने का जनादेश होता है और अल्पमत के पास रचनात्मक विरोध की जिम्मेदारी।
मोदी-विरोध को देश-विरोध न बनाए विपक्ष |
अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बहुमत यानी पक्ष और अल्पमत यानी विपक्ष। चुनावी नतीजे भले ही विपक्ष के मंसूबों पर अंकुश लगाते हों, लेकिन हमारा संविधान उसे सरकार को निरंकुश होने से रोकने का अधिकार भी देता है। आम तौर पर विपक्ष इस अधिकार से सरकार को तीन तरीकों से घेरता है-पहला, सरकार को सुझाव देना; दूसरा, सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना; और तीसरा, सरकार को हटाने की संवैधानिक कोशिश करना।
लेकिन क्या भारत की राजनीति में मौजूदा विपक्ष इस अधिकार की कसौटी पर खरा उतर पा रहा है? संसदीय लोकतंत्र में यों तो सत्ता पक्ष से सवाल पूछने की परम्परा होती है, लेकिन अगर विपक्ष जिम्मेदार तरीके से जनता की आवाज बनने में नाकाम हो रहा हो, तो उसे भी कठघरे में खड़ा करने पर किसे आपत्ति होनी चाहिए? मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के बाद मोदी 2.0 में भी ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जब विपक्ष का बर्ताव मान्य परम्पराओं को खंडित करता दिखा है। सबसे ताजा मामला तो नागरिकता संशोधन कानून को लेकर ही है, जिसमें प्रधानमंत्री के स्तर से भरोसा दिलाए जाने के बावजूद विपक्ष सरकार से ‘संधि’ के मूड में नहीं दिख रहा है। हैरानी की बात यह है कि कई जगह विरोध के हिंसक होने के बावजूद विपक्ष इससे बेपरवाह दिखाई दिया है। अकेले उत्तर प्रदेश में ही विरोध प्रदर्शन में 19 लोग मारे जा चुके हैं। कर्नाटक में भी प्रदर्शन के दौरान कुछ लोगों ने जानें गंवाई हैं। हालत यह है कि जान-माल को नुकसान पहुंचाने की अंधी होड़ में सड़कों और शिक्षण संस्थानों के कैम्पस का फर्क भी खत्म हो गया है।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को भरोसा दिलाने में दिन-रात एक किए हुए हैं, तो दूसरी तरफ विपक्ष ने प्रधानमंत्री को ही निशाने पर ले रखा है। प्रधानमंत्री ने कम-से-कम दो मौकों पर-पहले, दिल्ली के रामलीला मैदान और फिर, पश्चिम बंगाल के बेलूर मठ में इस कानून पर सरकार का पक्ष रखते हुए स्पष्ट किया है कि यह कानून केवल नागरिकता देने के लिए है, न कि किसी की नागरिकता छीनने के लिए। लेकिन सीएए को नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन से जोड़कर लगातार यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि सरकार की मंशा मुसलमानों को देश से ही बेदखल करने की है। रामलीला मैदान में ही प्रधानमंत्री एनआरसी को लेकर साफ कर चुके हैं कि इस पर उनके मंत्रिमंडल में अभी तक कोई बात ही नहीं हुई है।
सवाल केवल सीएए और एनआरसी को लेकर ही नहीं है, पिछले छह-सात महीनों के घटनाक्रमों को देखा जाए तो तीन तलाक पर रोक, कश्मीर से अनुच्छेद 370 का हटना और बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश में एक उलझन यह पैदा की गई कि यह सरकार मुसलमानों के खिलाफ है। जाहिर तौर पर जो लोग ऐसी बातों को हवा दे रहे हैं, वे देश को एक बड़े खतरे की ओर धकेल रहे हैं। प्रधानमंत्री का यह कहना कि सरकार का विरोध करते-करते विपक्षी दल देश का विरोध करने लगे हैं, आखिर किस बात का इशारा है? क्यों प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि विपक्षी चाहे उनके कितने भी पुतले जला लें, लेकिन देश को न जलाएं। इसकी एक बड़ी वजह तो यह दिखती है कि विपक्षी दलों के लिए सरकार का विरोध ज्यादातर प्रधानमंत्री पर निजी हमले तक सिमटा हुआ है। इस ‘पर्सनल’ विरोध के कारण ये दल रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने में नाकाम हो रहे हैं। सरकार की गलत नीतियों का विरोध विपक्ष का अधिकार है, लेकिन मोदी विरोध का आलम यह है कि विपक्ष देश के फायदे वाली नीतियों को भी संदेह के नजरिए से ही देखता है। हमारे सामने कई ऐसे उदाहरण हैं, जिन पर विपक्ष को सरकार के साथ खड़ा रहना चाहिए था, लेकिन मोदी विरोध की ‘दीवार’ बार-बार इसके आड़े आती रही। नोटबंदी और बेनामी संपत्ति एक्ट जैसे भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले मुद्दों पर सरकार के साथ खड़े होने के बजाय विपक्ष सफेदपोशों के साथ सुर में सुर मिलाता दिखा।
राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, लेकिन संकट के समय देश एक आवाज में बोलता है। सर्जिकल स्ट्राइक के समय विपक्ष देश के लिए यह जिम्मेदारी भी भूल गया। किसी ने दिल्ली सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगा तो किसी ने सेना की साख पर सवाल खड़े किए। देश की अर्थव्यवस्था मजबूत करने और निवेश बढ़ाने के मकसद से लाए गए जीएसटी कानून को लागू करने की प्रक्रिया में भी विपक्ष के कई दल रोड़े अटकाते रहे। इसे लागू करने के लिए सरकार की ओर से जब संसद में आधी रात को ऐतिहासिक बैठक का आयोजन हुआ तो सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस ने विरोध में बैठक का बहिष्कार कर दिया।
आतंकवाद से जब सेना ने सख्ती से निपटना शुरू किया तो कांग्रेस के एक नेता ने तत्कालीन सेना प्रमुख के लिए बेहद अशोभनीय टिप्पणी कर डाली। कश्मीरी पत्थरबाज को मानव ढाल बनाने की मेजर गोगोई की बहादुरी पर भी वामपंथी दल सरकार के साथ खड़े होने के बजाय पत्थरबाजों के मानवाधिकार की चिंता करते दिखे। आधार कार्ड की अनिवार्यता से लेकर स्वच्छता अभियान, योग दिवस, गोहत्या पर रोक जैसे फैसलों का सभ्य समाज में कौन विरोध करेगा,लेकिन विपक्ष यहां भी सरकार से एक-राय नहीं बना पाया।
रचनात्मक भूमिका को लेकर विपक्ष के पास कोई विजन नहीं दिखा है। जनता किसी समस्या का सामना कर रही है तो विपक्ष सरकार की आलोचना तो करता है, लेकिन समस्या दूर करने के लिए न तो खुद कोई पहल करता है, न सरकार को कोई सकारात्मक सुझाव देता दिखता है। केवल आलोचना करना, शोर मचाना, अव्यवस्था पैदा करना, अभद्र बयान देने जैसे तरीके जनता का ध्यान बांटने का काम करते हैं, और मूल मुद्दे शोर में दबकर रह जाते हैं। विपक्ष इस मामले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से बड़ी सीख ले सकता है। अंग्रेजों के खिलाफ गांधी जी ने जब विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया तो उन्होंने रचनात्मक स्तर पर स्वदेशी का परिष्कार भी किया। गांधी जी की ऐसी कई पहल से आजादी के लिए देश में सकारात्मक माहौल तैयार हुआ था।
साल 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के वक्त भी देश की राजनीति में अभूतपूर्व एकजुटता का माहौल दिखा था। युद्ध में विजय के बाद भारत जब बांग्लादेश निर्माण के अपने मिशन में कामयाब हो गया तो लोक सभा में मेज थपथपाने और जय बांग्ला, जय इंदिरा के नारे लगाने वालों में कांग्रेस ही नहीं, दूसरे दलों के सदस्य भी शामिल थे। पाकिस्तान के बिना शर्त समर्पण पर लोक सभा में सदस्यों ने खड़े होकर इंदिरा गांधी को सम्मान दिया था। उस दौरान अमेरिका युद्ध विराम के लिए इंदिरा सरकार पर लगातार दबाव बनाता रहा, लेकिन सरकार की दृढ़ता के बीच विपक्ष भी उसके समर्थन में एकजुट रहा। संसद में अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति र्रिचड निक्सन के भारत विरोधी बयानों की धज्जियां उड़ाने का काम किया था, तो सड़क पर लालकृष्ण आडवाणी और बलराज मधोक जैसे जनसंघ के नेताओं ने अमेरिकी उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन किया था। द्रमुक, भाकपा और अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी अमेरिका के विरु द्ध सरकार के साथ खड़ी थीं।
मौजूदा दौर में देश के सामने भले युद्ध का संकट न हो पर अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई जैसी चुनौतियां कम नहीं हैं। इस सबके बीच सीएए और एनआरसी जैसे मसलों पर सरकार और जनता के बीच अविश्वास की खाई देश को गर्त में ही ले जाने का काम करेगी। ऐसे में अगर विपक्ष सिर्फ हंगामा खड़ा करने के मकसद से सरकार की राह में अवरोध और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तिगत विरोध को पीछे छोड़ इतिहास में हुए रचनात्मक प्रतिरोध से प्रेरणा लेकर देश की सूरत बदलने की कोशिश करता है, तो वह न केवल अपनी जिम्मेदारियों पर खरा उतरेगा, बल्कि देश हित में सरकार को भी ज्यादा जवाबदेह बनने के लिए मजबूर कर सकेगा।
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