‘अपनों’ से कैसा बैर?
कथित धार्मिंक भेदभाव नागरिकता संशोधन कानून पर बवाल की सबसे बड़ी वजह बन गया है। देश के मुसलमानों में यही डर भरा जा रहा है कि यह कानून उनसे ‘नागरिकता छीनने’ के लिए लाया गया है। दुष्प्रचार किया जा रहा है कि सरकार एनआरसी से बाहर हुए हिंदुओं और दूसरे धर्मो के लोगों को तो इस कानून के तहत नागरिकता दे देगी, लेकिन मुस्लिमों को देश से बाहर निकाल देगी। नागरिकता कानून से किसी भी नागरिक को न डरने की सरकार की बार-बार सफाई के बावजूद सोचा-समझा कुप्रचार जारी है।
‘अपनों’ से कैसा बैर |
भ्रम का जाल जब अपना विस्तार करता है तो अटूट भरोसा भी उसकी मार से बच नहीं पाता। नागरिकता संशोधन कानून पर देश में मचा बवाल इसी बात की बानगी है। समाज के एक तबके को ‘देश निकाले’ का डर दिखाकर अराजक तत्व देश के नये ‘बंटवारे’ की साजिश रच रहे हैं। साजिश की आग असम और बंगाल से होते हुए दिल्ली के रास्ते अलीगढ़, अहमदाबाद और लखनऊ तक पहुंच गई है। खास बात है कि इन सभी जगहों पर विरोध के लिए लोग अलग-अलग सोच के साथ सड़कों पर उतरे हैं। पूर्वोत्तर में लोगों को डर है कि शरणार्थी उनका हक छीन लेंगे तो दिल्ली की जामिया, अलीगढ़ की एएमयू और लखनऊ के नदवा कॉलेज के प्रदर्शनों में मुस्लिमों की नागरिकता खतरे में होने का डर बयां हो रहा है। गुरु वार को लखनऊ का प्रदर्शन जिस तरह बेकाबू और हिंसक हुआ उससे साफ हो गया कि नागरिकता कानून के विरोध में अब देश विरोधी तत्वों की घुसपैठ हो चुकी है।
सारा बवाल नागरिकता कानून में उस बदलाव को लेकर है, जिसके तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर 31 दिसम्बर, 2014 से पहले भारत आए हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी लोगों को बिना दस्तावेज दिखाए नागरिकता दी जा सकेगी। संशोधित कानून के तहत इन देशों के मुसलमानों को यह सहूलियत नहीं दी जाएगी क्योंकि ये तीनों देश घोषित रूप से इस्लामिक देश हैं, जहां मुस्लिम आबादी के प्रताड़ित होने की संभावना नहीं हो सकती। संशोधित विधेयक को लेकर नजरिए का फर्क देखा जा रहा है। आलोचक इसे मुसलमानों के लिए आफत कह रहे हैं, जबकि समर्थक देश के बंटवारे के बाद दर-बदर भटक रहे ‘पड़ोसियों’ के लिए बड़ी राहत बता रहे हैं यानी विधेयक के मूल में बंटवारे का सवाल है, और भ्रम के शूल से पूरे देश में बवाल है।
पृष्ठभूमि यह है कि 1947 में धार्मिंक आधार पर जब देश के दो टुकड़े हुए तो भारत से अलग होकर पाकिस्तान ऐलानिया तौर पर इस्लामिक देश बना। इस तथ्य के बावजूद कि तब वहां गैर-मुस्लिम धर्म को मानने वाले की भी खासी आबादी थी। इससे उलट भारत ने धर्मनिरपेक्ष रहने का फैसला किया। किसी धर्म को राजकीय धर्म घोषित न करने की वजह कोई दुविधा नहीं, बल्कि किसी भी पंथ से टकराव नहीं रखने की हिंदू मान्यताओं का पालन था। इस्लामिक देश होने के बावजूद धार्मिंक अल्पसंख्यक इस भरोसे से पाकिस्तान में रु के रहे कि वहां उन्हें धार्मिंक आजादी मिलती रहेगी। लेकिन यह भरोसा छलावा ही साबित हुआ। जब बांग्लादेश बना तो यही कहानी पुराने अंदाज में फिर दोहराई गई। दोनों देशों में जबरन धर्म परिवर्तन और प्रताड़ना के कारण गैर-मुस्लिमों की संख्या सिकुड़ती गई। तीसरा देश अफगानिस्तान है, जो लंबे समय तक जंग की भट्टी में सुलगा है। वहां तालिबानियों के उत्पीड़न ने हिंदुओं और सिखों का सफाया कर दिया। इसके उलट बराबरी के माहौल में भारत में रह रहे मुसलमानों की तादाद में इजाफा होता चला गया।
बांग्लादेश से घुसपैठ
इस बीच, बेहतर अवसरों की उम्मीद में बांग्लादेश के लोग भी सरहद पार कर भारत में आते रहे। इससे सीमा से लगे राज्यों में आबादी, संसाधन और रोजगार का संतुलन बिगड़ गया। इसमें जितनी गलती सरहद पार से आने वालों की थी, उतनी ही जिम्मेदारी सरहद के इस ओर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए घुसपैठ को बढ़ावा देने वाले स्वार्थी नेताओं की रही। बेलगाम घुसपैठ की वजह से असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की सुरक्षा दांव पर लग गई। खुफिया एजेंसियों को आशंका है कि हूजी जैसे आतंकी संगठन न केवल घुसपैठ को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि घुसपैठियों में भी पैठ बना रहे हैं। असम की अशांति पर अपुष्ट खबर है कि वहां मौका देखकर उल्फा फिर सक्रिय हो गया है।
वैसे तो एक आदर्श दुनिया को किसी हद में नहीं बांधा जा सकता, लेकिन जब सरहद पार ऐसे हालात हों तो न सिर्फ सुरक्षा, बल्कि अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वैसे भी विशाल आबादी की अपनी चुनौतियां हैं,और इसलिए इस तरीके से शरणार्थियों को सीमित करने की सरकार की सोच में खोट ढूंढ़ना राष्ट्रीय हितों से खिलवाड़ हो सकता है। दुनिया के कई विकसित देशों में भी नागरिकता को लेकर ऐसी एहतियात दिखाई देती है।
* अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश में मुस्लिमों के प्रवेश को लेकर हमेशा शंका से भरे दिखे हैं। आज अमेरिका में ईरान, लीबिया, सीरिया और यमन जैसे इस्लामिक देशों समेत आठ राष्ट्रों के नागरिकों का प्रवेश प्रतिबंधित है। इन देशों के सुरक्षा जांच में सहयोग नहीं करने पर अमेरिका ने यह फैसला किया है।
* ब्रिटेन में इस बात पर बहस छिड़ी है कि खुली सीमा उनके हित में नहीं है। ब्रेक्जिट इसी की देन है, और इस वजह से देश के दो प्रधानमंत्रियों को इस्तीफा तक देना पड़ा है।
* ऑस्ट्रेलिया में नागरिकता हासिल करने के लिए ‘ऑस्ट्रेलियाई मूल्यों’ के प्रति वफादारी साबित करनी होती है।
कथित धार्मिक भेदभाव बना बड़ा बवाल
कथित धार्मिंक भेदभाव नागरिकता संशोधन कानून पर बवाल की सबसे बड़ी वजह बन गया है। देश के मुसलमानों में यही डर भरा जा रहा है कि यह कानून उनसे ‘नागरिकता छीनने’ के लिए लाया गया है। प्रचार किया जा रहा है कि सरकार एनआरसी से बाहर हुए हिंदुओं और दूसरे धर्मो के लोगों को तो इस कानून के तहत नागरिकता दे देगी, लेकिन मुस्लिमों को देश से बाहर निकाल देगी। नागरिकता कानून से किसी भी नागरिक को न डरने की सरकार की बार-बार सफाई के बावजूद सोचा-समझा कुप्रचार जारी है। बृहस्पतिवार को इसका तात्कालिक असर लखनऊ की सड़कों पर दिखा जहां दंगाइयों ने प्रदर्शन कर रहे लोगों को ढाल बनाकर तहजीब के शहर की पहचान को तार-तार कर दिया। मुस्लिम समाज के लिए यह बड़ा सबक है कि अगर वह अराजक ताकतों की ओर से फैलाई जा रही नकारात्मकता से पीछा नहीं छुड़ाता है, तो असुरक्षा की ‘नादानी’ से बाहर निकलना मुश्किल होगा। उसे समझना होगा कि यह कानून देश पर उसके मौजूदा अधिकार में किसी तरह का बदलाव नहीं करने जा रहा है। यह देश उनके लिए जैसा पहले था, इस कानून के आ जाने के बाद भी वैसा ही बना रहेगा। गृह मंत्री अमित शाह ने भी साफ कर दिया है कि यह कानून नागरिकता लेने वाला नहीं, बल्कि नागरिकता देने वाला है।
गौरतलब हैं ये भी
मुस्लिम समाज को सरकार पर भरोसा रखते हुए उन पुराने वाकयों को भी याद करना होगा, जब उन्हें विनाश का डर दिखाया गया था, लेकिन उनका बाल भी बांका नहीं हुआ।
* पी चिदंबरम के गृह मंत्री रहने के दौरान राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मांग पर 13,000 सिखों और हिंदुओं को नागरिकता दी गई थी। राज्य सभा में नागरिकता संशोधन बिल पर चर्चा के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने इस बात का उल्लेख किया था।
* साल 2003 में तत्कालीन सांसद मनमोहन सिंह ने बांग्लादेश से भारत आए प्रताड़ित हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का संसद में समर्थन किया था।
* स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के अपने ऐतिहासिक भाषण में यहूदियों और पारसियों को दूसरे देशों में शरण देने का जिक्र किया था।
यानी केंद्र की मोदी सरकार पुरानी लकीर पर ही आगे बढ़ रही है। पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की जानकारी मिलने के बाद तो इस कदम से पीछे हटना मानवता से मुंह मोड़ने वाली बात होती। इसकी जरूरत बताने के लिए केवल एक आंकड़ा ही पर्याप्त होगा। आजादी के समय पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की संख्या 23 फीसद थी, लेकिन इसके बाद वहां हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों की हालत इतनी बिगड़ती चली गई कि आज इनकी आबादी महज ढाई फीसद रह गई है।
सीएए को लेकर विपक्षी दलों का सरकार पर जनता के समानता के अधिकार से खिलवाड़ का आरोप भी छलावा दिखता है। दलील दी जा रही है कि बीजेपी ने चुनावी राजनीति को ध्यान में रखकर इस बिल की आड़ में संविधान के अनुच्छेद 14 को नजरअंदाज किया है। ये आरोप कुछ उसी तरह के हैं, जो कश्मीर में अनु. 370 और तीन तलाक खत्म करने के दौरान सामने आए थे। लेकिन इस देश की कानून पण्राली में ही ऐसी कई नजीर हैं, जो सरकार को इस अनुच्छेद के तहत युक्तियुक्त वर्गीकरण की सहूलियत देती हैं। इतिहास भी सरकार को आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। 12वीं सदी में पारसियों का आगमन या फिर 1960 के दशक में चीनी हमले के बाद हजारों तिब्बतियों का भारत में शरण लेना इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि करता है कि हमारा देश लंबे समय से प्रताड़ित लोगों की शरणगाह रहा है यानी नागरिकता संशोधन कानून लाकर मोदी सरकार जिम्मेदारी की उसी पुरानी परंपरा का नये संदभरे में निर्वाह कर रही है। धार्मिंक आधार पर हुए बंटवारे के वक्त जो काम अधूरा रह गया था, उसे यह सरकार पूरा करने जा रही है। उम्मीद है कि बाद के वर्षो में जो लोग धार्मिंक प्रताड़ना से परेशान होकर भारत आने को मजबूर हुए थे, उन्हें यह कानून शरणार्थी कहे जाने के अपमान से मुक्त करके बाकी जीवन बराबरी के सम्मान से गुजारने का अधिकार देगा।
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