अफगान मोर्चा : रूस का बड़ा दांव और भारत
हाल में अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को रूस की ओर से आधिकारिक मान्यता मिल गई है।
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चीन, संयुक्त अरब अमीरात और दूसरे कई देशों की राजनयिक इंगेजमेंट के बावजूद रूस दुनिया का पहला देश बन गया है, जिसने अफगानिस्तान को राजनयिक मान्यता प्रदान कर दी है। इसे हम रूस का वैिकमंच पर अप्रत्याशित और निर्णायक कदम कह सकते हैं।
यह कदम ऐसे समय उठा है जब अमेरिका, भारत और यूरोप जैसे प्रमुख देश अब भी तालिबान शासन को मान्यता देने से परहेज कर रहे हैं। रूस के इस कदम के पीछे कई रणनीतिक कारण निहित हैं। मसलन, रूस, पश्चिमी दबावों से मुक्त होकर स्वतंत्र शक्ति संतुलन स्थापित करना चाहता है। अफगानिस्तान, मध्य एशियाई गणराज्यों की सीमा पर स्थित है, जहां रूस की पारंपरिक पकड़ रही है।
तालिबान से संपर्क इसी विस्तार का हिस्सा है। रूस के निर्णय का असर अफगानिस्तान तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया और वि राजनीति पर इसका असर पड़ने की संभावना है। 1979 में सोवियत सैनिकों के अफगानिस्तान में दखल के बाद से लेकर 1989 तक मिखाइल गोर्बाचोव के अपनी सेना वापस बुलाने तक अफगानिस्तान और रूस जटिल ऐतिहासिक द्विपक्षीय संबंधों में उलझे रहे।
हालांकि, 20 साल बाद अप्रैल, 2025 में रूस ने तालिबान को आतंकी संगठन की लिस्ट से हटाया था और इसके बाद अफगानिस्तान के साथ आर्थिक संबंधों को मजबूत करने की दिशा में काम कर रहा था। अफगानी क्षेत्र में ट्रासपोर्ट कॉरिडोर ऐसी ही एक संभावना है। कहा यह भी जा रहा है कि रूस को आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट खोरासन प्रांत (आईएसकेपी) के मद्देनजर तालिबान से सुरक्षा सहयोग की दरकार है। इस समूह ने रूस में पिछले साल आतंकी हमले को अंजाम दिया था और जिसमें 130 लोग मारे गए थे। इसलिए रूस ने इस बार यह महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है।
ध्यान देने की बात है कि अगस्त, 2021 में अमेरिका और नाटो के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था। तब तालिबान ने कहा था कि वह अफगानिस्तान में लिबरल शासन चलाएगा, लेकिन उसके बाद उन्होंने कड़े शिया कानून लागू कर दिए। महिलाओं के प्रति कड़ी भेदभाव वाली नीतियों की वजह से पश्चिम के देशों ने तालिबान को राजनयिक तौर पर अलग-थलग रखा है। जानकार कहते हैं कि अब चीन भी रूस के नक्शेकदम पर चलेगा और अफगानिस्तान को मान्यता देने के बारे में सोचेगा। वैसे भी अभी रूस और चीन की ‘अनिलमिटेड दोस्ती’ चल रही है।
जहां तक भारत का संबंध है, रूस के इस निर्णय से भारत के समक्ष कुछ चुनौतियां और विकल्प उभरते हैं। पहला तो यही है कि रूस भारत का पारंपरिक सहयोगी रहा है। रूस द्वारा तालिबान को मान्यता देना भारत के हितों के विपरीत प्रतीत हो सकता है, विशेषकर जब अफगानिस्तान से आतंकवाद की आशंका बनी हुई हो। इसके अलावा, रूस, ईरान, चीन और पाकिस्तान का तालिबान से व्यवहार भारत के लिए अलग-थलग पड़ने की स्थिति पैदा कर सकता है, और तालिबान की सत्ता में मजबूती, जम्मू-कश्मीर में कट्टरपंथी ताकतों को परोक्ष समर्थन दे सकती है। इसलिए अभी भारत का तालिबान के साथ सॉफ्ट एंगेजमेंट चल रहा है, और तालिबान के साथ बिना उसे औपचारिक मान्यता दिए सीमित और नियंत्रित संवाद जारी हैं।
भारत, अफगानिस्तान की सुरक्षा स्थिति की भी बराबर निगरानी कर रहा है। अफगानिस्तान को लेकर भारत का दृष्टिकोण हमेशा ही अफगान के लोगों के साथ दीर्घकालिक और विशेष मित्रता से प्रेरित रहा है, और साथ ही एक दीर्घकालिक साझेदार के रूप में अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने में भारत का हित सीधे जुड़ा है। अफगानिस्तान के साथ अपने पुराने संबंधों पर जोर देते हुए भारत ने युद्धग्रस्त देश की मानवीय और विकास संबंधी जरूरतों को पूरा करने की सदैव ही प्रतिबद्धता जताई है।
यह तब खास हो जाता है, जब चीन और पाकिस्तान अफगानिस्तान में सक्रिय हैं। अफगान जनता के बीच विशेषकर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी भारत की साख यथावत बनी रहनी चाहिए। सरकार को जहां आतंकवाद-निरोधक तंत्र और खुफिया संपकरे को मजबूत करना होगा, वहीं रूस, ईरान और मध्य एशिया के साथ संवाद तेज कर एक संतुलित कूटनीति भी अपनानी होगी। यहां यह भी ध्यान में रखना जरूरी होगा कि रूस द्वारा तालिबान को मान्यता देना केवल कूटनीतिक घटना नहीं है, यह संकेत है इस बात का कि वि व्यवस्था पुन: आकार ले रही है। भारत को नये परिदृश्य में सजग, सक्रिय और संतुलित रह कर अपना मार्ग चुनना होगा ताकि अपने हितों की रक्षा करते हुए क्षेत्रीय स्थिरता में भी योगदान दे सके।
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