पीएम का संबोधन : नपे-तुले शब्द किंतु सवाल बाकी
ऑॅपरेशन सिंदूर के बाद राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को भरोसा देने का प्रयास किया है कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में भारत की रणनीति यथावत है।
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भारतीय सशस्त्र सेना, खुफिया एजेंसी और वैज्ञानिकों की सराहना करते हुए उन्होंने उनके सामथ्र्य और संयम का जिक्र किया। हर भारतवासी की तरफ से उनको सैल्यूट किया। इस बात का भी खास तौर पर उल्लेख किया कि भारत कोई भी परमाणु ब्लैकमेल नहीं सहेगा।
उल्लेखनीय है कि भारत ही नहीं, पूरे विश्व को संबोधित करने के लिए उन्होंने बुद्ध पूर्णिमा का दिन चुना और नपे तुले शब्दों के साथ भगवान बुद्ध के शांति के मार्ग का उल्लेख कर यह कहना नहीं भूले कि स्थायी शांति के लिए भारत का शक्तिशाली होना बहुत जरूरी है। यह दौर युद्ध का नहीं है, पर आतंकवाद का भी नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ जीरो टोलरेंस है। पाकिस्तान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनके साथ बात होगी तो आतंकवाद और पीओके पर ही होगी। पाकिस्तानी फौज आतंकवाद को खाद-पानी दे रही है, जो एक दिन पाकिस्तान की समाप्ति का कारक बनेगा। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान दुनिया ने आतंकियों को विदाई देते पाकिस्तानी सेना के बड़े अफसरों को देखा। राज्य प्रायोजित आतंकवाद को देखा।
प्रधानमंत्री ने मेड इन इंडिया हथियारों पर मुहर लगा कर कहा कि हम हर उस जगह जाकर कठोर कार्रवाई करेंगे जहां से आतंकी जड़ें निकलती हैं। ऑपरेशन सिंदूर आतंकवाद के खिलाफ अब राष्ट्रीय नीति है, जिसमें नया पैमाना तय है। मजबूरी में 10 मई की दोपहर को पाकिस्तानी सेना ने हमारे डीजीएमओ के संपर्क किया तब तक हम आतंकवाद के इंफ्रास्ट्रक्चर को बड़े पैमाने पर तबाह कर चुके थे। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने अधिकतर वही बातें कहीं जो डीजीएमओ विस्तार से रख चुका था पर असली सवाल इस प्रकरण में अमेरिका के पंच बनने के प्रयास से जुड़ा है। संघर्ष विराम के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ने जो घोषणा की वह किसी के गले नहीं उतरी। इसी तरह प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कह दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम अमेरिका ने कराया। तभी से सवाल उठा कि अमेरिकी दबाव हमने माना क्यों। इस मौके पर विपक्षी दल एकजुटता के साथ सरकार के साथ रहे।
हमारी बहादुरी फौज ने कई आतंकी ठिकानों को इस तरह ध्वस्त किया कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा लेकिन हमारी कूटनीति अपेक्षित सफल नहीं रही। तीसरे पक्ष ने हस्तक्षेप किया तो उसकी मध्यस्थता स्वीकार करने के पहले संसदीय फोरम पर संवाद होता या सर्वदलीय बैठक होती तो सवाल कम उठते। लेकिन बातें इतनी ही नहीं हैं, लड़ाई के बीच में पाकिस्तान को आईएमएफ से भारी रकम मिलना भी कूटनीतिक नाकामी है। ऐसे समय में जब सभी दल, सभी विचारधारा, 140 करोड़ लोग सरकार के साथ खड़े थे तो परदे के पीछे बहुत कुछ चल रहा था। बेहतर होता कि संसद का विशेष सत्र बुला कर सैनिकों का हौसला बढ़ाने के साथ पाकिस्तान के खिलाफ प्रस्ताव पारित होता। ऐसा पहले भी हो चुका है। इससे पूरे देश में अच्छा संदेश जाता। इस मंच पर राजनीति नहीं होती और सभी दल एक स्वर से जो बोलते, विश्व समुदाय उसे सुनता।
22 अप्रैल, 2025 को पहलगाम घटना के बाद देश भर में जो जनाक्रोश फैला था वह एक हद तक कम तो हुआ पर उनके भीतर अभी भी संतोष नहीं क्योंकि इसका अपेक्षित प्रतिकार नहीं हो सका। सरकार ने आरंभिक कदम सोच-विचार कर उठाया और तमाम बैठकों के साथ दो सर्वदलीय बैठक भी बुलाई। उनमें प्रधानमंत्री शामिल नहीं हुए। देश में नागरिक सुरक्षा के लिए मार्क ड्रिल हुआ तो लोगों को लगा कि अब पाकिस्तान को करारा सबक मिलेगा।
पाकिस्तान के 16 चैनलों और कई यूटयूबरों पर भी गाज गिरी। सिंधु नदी का पानी रोकने का फैसला हुआ जो 1965 और 1971 में भी नहीं हुआ था। पर पूरे प्रकरण के पटाक्षेप के बाद जरूरी हो गया है कि हमारे नीति निर्माताओं को अमेरिका के साथ कड़े शब्दों में संवाद की जरूरत है। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से कई खट्टे मीठे अनुभव भारत को मिले हैं। अतीत में अमेरिका पाकिस्तान का सबसे बड़ा मददगार रहा है। भारत जब भी सैन्य तैयारी में कुछ ठोस करने में लगा तो अमेरिका ने विरोध किया। इंदिरा गांधी ने जब 1974 में पहला परमाणु परीक्षण कराया तो विरोध किया। 1971 के युद्ध में विरोध किया। अब वह भारत को अपना उपनिवेश बनाने की सोच पाले है, ऐसी बातें उठ रही हैं।
इस बार भारतीय सेना ने पाकिस्तानी आतंकी तंत्र को सटीक एयरस्ट्राइक के साथ हिला कर रख दिया था कि पाकिस्तान को अपनी संसद का इस्तेमाल भारत को गलत साबित करने के लिए करना पड़ा। हालांकि उस मंच से भारत के खिलाफ झूठी सूचनाएं फैलाई गई। फिर ये बातें उठीं कि भारत को पीओके को अपने कब्जे में लेने के साथ बलूचिस्तान को आजाद करा कर आगे वार्ता की बात माननी थी। ऐसा इतिहास रचने का अवसर था क्योंकि परिस्थितियां अनुकूल थीं पर संघर्ष विराम से पूर्व सेना प्रमुख तक हैरान दिखे। करगिल युद्ध के दौरान सेनाध्यक्ष रहे जनरल वीपी मलिक ने कहा कि हमें लाभ मिला या नहीं, यह सवाल हमने भविष्य के इतिहास पर छोड़ दिया है।
देश के इतिहास के अब तक के सबसे कठिन चीनी आक्रमण के दौरान संसद में आठ दिनों तक हुई चर्चा में 162 सांसदों ने भाग लिया और एक स्वर से पं. नेहरू द्वारा रखे जिस प्रस्ताव को पारित किया वह भारत के इतिहास का अहम दस्तावेज है। यह मौका इस बार भी था पर घटनाएं बहुत तेजी से घटीं। नेता प्रतिपक्ष, राज्य सभा मल्लिकार्जुन खरगे और नेता प्रतिपक्ष लोक सभा राहुल गांधी द्वारा विशेष सत्र बुलाने की मांग पर सरकार ने अब तक प्रतिक्रिया नहीं दी है। करगिल प्रकरण में 1999 में अटल जी ने विपक्ष को साथ लेकर पाकिस्तान को विश्व मंच पर अलग-थलग कर दिया। यही नहीं, इंदिरा गांधी ने जब ऑपरेशन मेघदूत चला कर सियाचिन के भूभाग पर भौतिक कब्जा किया तो चीन और पाकिस्तान केवल हल्ला करते रह गए थे।
(लेख में विचार निजी है)
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