नवरात्र : केवल पूजन ही पर्याप्त नहीं

Last Updated 17 Apr 2024 01:43:36 PM IST

हर वर्ष नवरात्र में कन्याओं का पूजन किया जाता है, उन्हें भोजन कराया जाता है, जब आस्था के साथ उनमें देवी के दर्शन किए जाते हैं, तो अच्छा लगता है और यह हमारे देश की यत्र नार्यस्तु पूज्यंते की परंपरा के अनुकूल ही है।


नवरात्र : केवल पूजन ही पर्याप्त नहीं

नारी को सदियों तक पूजने वाले देश में एक दौर ऐसा भी आया जब नारी केवल भोग की वस्तु हो गई और कन्याएं असुरक्षित पर क्या आज यह दौर बदल गया है? सच क्या है यह छुपा नहीं है किसी से। नौ दिन का सम्मान, पूजन, खिलाना-पिलाना एक तरफ और रोज की दुत्कार, उपेक्षा, दमन, गर्भ में मार देने की प्रवृत्ति एक तरफ, यही है सच।

खुद को  आधुनिक, प्रगतिवादी, उदार और नई सोच का सिद्ध करने वाले देश में जब यथार्थ देखते हैं, तो हम अपनी सामाजिक सोच को उसी गहरे गर्त में पाते हैं, जहां वह पाषाण काल में थी। पुरु षवादी सोच हम छोड़ने को तैयार नहीं हैं, मगर आधुनिकता का ‘मास्क’  लगाए घूमना हमें खूब आता  है। भले ही नजीर कुछ भी दें, कानून में लिंगभेद की कोई जगह नहीं है पर जब अपने घर की बात आती है तो जायज-नाजायज भूल कर बेटे को बेटी पर तरजीह देने में न कोई हिचक, न शर्म आती है। बेटे- बेटी का भेद सारे प्रयासों के बाद भी आधे से ज्यादा भारत में है, गांव ही नहीं शहर भी इस भेदभाव से ग्रस्त हैं।

नवरात्र तब सार्थक होंगे जब भेदभाव की खाई पटेगी। आज भी अपनी मर्जी का जीवन साथी चुनने का अधिकार लड़कियों को देने को हम कतई तैयार नहीं हैं, और यदि वह अपना यह अधिकार लेने की जुर्रत करती है तो उसके हिस्से में आती है जिल्लत या मौत। जाति, गौत्र, वर्ग, संप्रदाय या हैसियत के बहाने लड़की को दबाने का कोई मौका हम हाथ से नहीं जाने देते। तथाकथित सम्मान के कम होने मात्र की आशंका से ही से ‘पूजनीय कन्या’ को मौत के आगोश में सुला देते हैं हम। अगर सचमुच नवरात्र सार्थक करने हैं तो अपने घर-परिवार की कन्याओं को आजादी, बाहर की कन्याओं को सम्मान दें।

एक नजर युवा दुनिया की हालत पर डालें तो दिल दहलाने वाला परिदृश्य दिखता है। बढ़ते अनाचार और टूटती-बिखरती मर्यादाओं की सबसे ज्यादा मार लड़की पर ही पड़ती है, उनकी प्रगति का श्रेय संस्थाएं, व्यक्ति, सरकार और समाज लेते हैं पर लड़की को कभी दैहिक तो कभी मानसिक संत्रास से गुजरने को बाध्य करते हैं। बचपन से जवान होने तक एक डर में ही जीने को विवश है कन्या। यदि कन्याएं सबल नहीं होंगी तो नवरात्र भी सफल नहीं हो सकते। उन्हें सबल बनाने का सबसे अच्छा तरीका है उनकी शिक्षा में योगदान दें। किसी गरीब कन्या को गोद लेकर उसकी शिक्षा का खर्च उठाएं। उसका कॅरियर बनाएं।

बेशक, बेटियों ने नये से नये क्षितिज छुए हैं पर कई मुकामों पर वह आज भी वहीं खड़ी है जहां आज से 75 साल पहले खड़ी थी। पढ़ी-लिखी लड़कियों ने बहुत कुछ पाया है तो ऐसा बहुत कुछ गंवाया भी है जो उनके लिए कहीं ज्यादा जरूरी था। सहज विश्वास नहीं होता कि हम उसी भारतीय समाज में रह रहे हैं, जिसमें लड़कियों की इज्जत करने की समृद्ध परंपरा रही है और जहां पर रिश्तों की ऐसी संस्कृति रही है जिसमें बेटी ही नहीं वरन आसपास की लड़कियों की भी पूजा की जाती रही है। पर, आज तो लड़कियां बाहर तो क्या अपने ही घर में भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। लड़कियों की सुरक्षा समय की मांग है। हम यह तो चाहते हैं कि वे कमाएं पर शर्त यह है कि उनका हर निर्णय हम ही तय करें, समान कार्य करने पर भी पुरु ष के मुकाबले उन्हें कम वेतन दिया जाता है, कार्यस्थलों पर उनके यौन शोषण की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। लगभग 60 प्रतिशत संस्थानों में उन्हें अपने ही सहकर्मिंयों की छींटाकशी का शिकार होना पड़ रहा है।

अगर सचमुच आप कन्याओं के कद्रदान हैं, तो उन्हें उनकी कमाई पर पूरा हक भी दें और उन पर बात-बात पर शक करना भी छोड़ दें। रेप, शोषण, दहेज, हत्या, असुरक्षा, बदनामी, छेड़खानी, अपमान का भय बेटियों के पंख कतरने को काफी हैं। गर्भ में ही उसकी भ्रूण हत्या जैसे कृत्य से बालक-बालिका अनुपात गड़बड़ा गया है। 1000 पुरुषों पर महज 841 बालिकाओं का आंकड़ा डराता है पर व्यक्तिगत स्वाथरे और दकियानुसी समाज के चलते बालिकाओं की भ्रूण हत्या जारी है।

बिना सोचे कि यह चलता रहा तो कहां जाएंगें ये 160 लड़के जिन्हें दुल्हन या तो मिलेगी ही नहीं या एक बार फिर से बहुपत्नी प्रथा वापस आ खड़ी दिखेगी। कहीं फिर से ‘जिस घर सुंदर बेटी देखी, ता घर जाए धरे हथियार’ वाला युग वापस न लौट आए डर इस बात का भी है। आज भी लड़की होना दर्द का सबब है, भले ही कुछ  लोग लड़के-लड़की को बराबर मानते हों पर सच यही है कि आज भी दोनों में फर्क है, कहने की बात और है पर वास्तविकता कुछ और है। करीब 50 प्रतिशत मां-बाप एक लड़के के पैदा होने पर ‘बस’ कर देते हैं पर लड़की के मामले में यह अनुपात न के बराबर है। यदि कुछ लोग ऐसा करते भी हैं, उनमें से बहुत बड़ा भाग बाद में इस या उस वजह से ‘पछताता’ देखा गया है। बेटी को जन्म से ही अपना गर्व समझें तभी सार्थक होगा नवरात्र का पर्व। कितना अच्छा हो कि हम नवरात्रों को केवल धार्मिंक अनुष्ठान से आगे बढ़कर गर्व पर्व बनाने का सतत प्रयास करें।

डॉ. घनश्याम बादल


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