इतिहास के सबक : आधिपत्य नहीं सहयोग के संबंध जरूरी

Last Updated 14 Apr 2024 12:54:29 PM IST

विज्ञान एवं तकनीकी प्रगति के बावजूद विश्व में जिस तरह कई स्तरों पर लोगों के दुख-दर्द बढ़े हैं, युद्ध और हिंसा का संकट कई तरह से बढ़ा है, पर्यावरण का संकट उग्र हुआ है, उसने इस विषय पर चिंतन बढ़ाया है कि वे कौन-सी बुनियादी विसंगति या विकृतियां हैं जिनके कारण विश्व सही राह पर नहीं चल पा रहा है।


इतिहास के सबक : आधिपत्य नहीं सहयोग के संबंध जरूरी

यदि इतिहास के पृष्ठों में इन अति महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर खोजें तो एक बड़ी समझ यह बनती है कि विभिन्न स्तरों पर आधिपत्य के संबंध हावी होने के कारण दुख-दर्द बहुत बढ़ सकता है। दूसरी ओर, आधिपत्य के स्थान पर सहयोग के संबंध आ सकें तो यह दुख-दर्द बहुत कम हो जाता है। बहुत-सी गंभीर, व्यापक समस्याओं की गहराई में हम जाएं तो कहीं न कहीं टूटते, बिखरते मानवीय संबंधों की भूमिका हमें दिखाई देगी। मनुष्यों के आपसी संबंधों की एक प्रमुख कमजोरी और कमी यह है कि एक दूसरे पर आधिपत्य करने, शासन करने, अपना बड़प्पन सिद्ध करने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल रही है।

इतिहास के पन्नों को पलटें तो इस प्रवृत्ति के साथ अधिकतर एक दूसरे का हक छीनने, अधिक संचय करने या अधिक लालच की प्रवृत्ति जुड़ी रही है। पर जहां यह लालच नहीं है, वहां भी अहं के कारण अपनी उच्चता स्थापित करने या अपनी बात मनवाने की प्रवृत्ति प्राय: देखी गई है। कारण अहं हो या लालच, मनुष्य के आपसी संबंधों में आधिपत्य करने की प्रवृत्ति बहुत सशक्त और व्यापक रही है। जहां जनसाधारण के दैनिक जीवन में इस प्रवृत्ति ने तरह-तरह के दुख-दर्द उत्पन्न किए, वहां युद्ध के मैदान में इस कारण भयानक खून-खराबा भी हुआ। इतिहास के पृष्ठ गवाह हैं कि बहुत प्राचीन समय से ही गुलाम और मालिक, गरीब और अमीर, पराजित और विजेता, कमजोर और बलशाली, यहां तक कि स्त्री और पुरुष के संबंध में आधिपत्य करने की प्रवृत्ति ने बहुत से लोगों को अत्यधिक और असहनीय दुख दिए।

बहुत से लोगों पर यह प्रवृत्ति इतनी हावी हो गई है कि उन्होंने अपने आदर्श के रूप में उन्हीं को ग्रहण करना आरंभ किया जो अपना आधिपत्य जमा सकें। सोचने-समझने के ढंग, बातचीत, कथा-कहानियों, यहां तक कि इतिहास में भी उन लोगों को अधिक महत्त्व दिया गया-और प्राय: प्रशंसा की भावना से ही दिया गया-जिन्होंने अपने आधिपत्य को अधिक फैलाने में सफलता प्राप्त की, चाहे इस प्रयास में उन्होंने कितने ही लोगों को नाहक ही अथाह कष्ट पहुंचाए हों। दूसरी ओर, अनेक धर्म-गुरुओं, दार्शनिकों और समाज सुधारकों ने इंसान की इस मूल कमजोरी और इससे जुड़े दुख-दर्द को पहचाना और लोगों को इससे बचाने का प्रयास किया। इनमें से अनेक प्रयासों का असर दूर-दूर तक हुआ और काफी समय तक हुआ। अत: इतिहास में ऐसे दौर भी आए जब आधिपत्य पर आधारित मानव संबंधों को बहुत से लोगों ने एक बुराई के रूप में पहचाना और इसके स्थान पर भाई-चारे, समता, सहनशीलता, एक दूसरे के विचारों की इज्जत करने और समझने का प्रयास करने की प्रवृत्ति को अपनाया।

कुछ समयों और स्थानों में इन विचारों का प्रसार विभिन्न धर्मो और पंथों के रूप में हुआ, अन्य मौकों पर इनका प्रसार नई आर्थिक-राजनीतिक विचारधाराओं और उनसे जुड़ी क्रांतियों के रूप में हुआ। अनेक सराहनीय शुरुआतों के बावजूद बाद में इन प्रयासों में भी प्राय: कुछ कमजोरियां आ जाती थीं, और आधिपत्य की प्रवृत्ति को फिर प्रबल होने या पहले से भी अधिक प्रबल होने का मौका प्राय: मिल जाता था। आरंभ में इस प्रवृत्ति को हावी करने का अवसर किसी व्यक्ति को छोटे से समूूह के स्तर पर ही मिल सकता था, पर बाद में आधिपत्य की महत्त्वाकांक्षा का बेहद विस्तार कर ऐसे साम्राज्य स्थापित किए गए जो लाखों पराजित लोगों और गुलामों पर आधिपत्य कर सके।

विश्व इतिहास के शायद सबसे निर्मम शोषण और तबाही की शुरुआत हुई। यूरोप से दौलत और जमीन के लालच में गए लोगों ने यहां के मूल निवासियों (रेड इंडियन) पर हर तरह के अत्याचार किए, उनसे जबरन मजदूरी करवाई, उनकी जमीन छीनी, अनेक जगह उनका कत्लेआम किया। करोड़ों की संख्या में यहां के मूल निवासी मारे गए। हजारों वर्ग मील के क्षेत्रों में वे खत्म ही कर दिए गए। अमेरिकी महाद्वीपों में कोलंबस के आगमन के समय (वर्ष 1500 के आसपास) लगभग 10 करोड़ लोग रहते थे। यूरोप के लोगों के यहां आने के बाद के डेढ़ सौ वर्षो में ही 90 प्रतिशत मूल निवासियों की मृत्यु हो गई, मात्र 10 प्रतिशत बचे। बाद में आस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूल निवासियों पर भी ऐसा ही अत्याचार हुआ।

उधर, अमेरिका के मूल निवासी बड़ी संख्या में मारे जा रहे थे, इधर यूरोप के लुटेरों ने अफ्रीका के गुलामों को पकड़ कर अमेरिका के खेतों और खदानों में भेजना आरंभ किया। लगभग 350 वर्षो तक जारी रहे इस व्यापार में लगभग डेढ़ करोड़ अफ्रीकावासियों को गुलाम के रूप में अमेरिकी महाद्वीपों में भेजा गया। भेजने का तरीका इतना निर्दयी था कि लाखों गुलाम तो यात्रा के दौरान ही मर गए और अधिकांश अन्य की मौत कार्यस्थल पर निर्मम शोषण के कारण कुछ वर्षो में हो गई। साथ ही, एशिया के अधिकांश देशों का इतना कठोर शोषण हुआ कि भुखमरी और अकाल से लाखों लोग मरने लगे। इस औपनिवेशिक दौर ने कुछ देशों को बाहरी लूट के आधार पर भौतिक सुख-सुविधाओं और संपत्ति की ऐसी व्यवस्था खड़ी करने दी जिसे बनाए रखने के लिए आज भी अनेक तौर-तरीकों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विषमता और आधिपत्य की प्रवृत्ति को दृढ़ किया जा रहा है। 

विभिन्न समाजों में कदम-कदम पर किसी जाति, नस्ल, वर्ग, गुट, व्यवसाय आदि का बड़प्पन सिद्ध करने और उसका आधिपत्य स्थापित करने के प्रयासों से सामुदायिक मेलजोल की भावना से कार्य आगे बढ़ाने में कठिनाई उत्पन्न होती है, नाहक तरह-तरह के तनाव उत्पन्न होते हैं और सब लोगों की सूझबूझ और सोच-विचार का पर्याप्त लाभ हमें नहीं मिलता है। समाज की जो ऊर्जा सार्थक कार्य में लगनी थी, वह बेवजह उत्पन्न किए गए तनावों में नष्ट हो जाती है।

आधिपत्य के संबंधों में चाहे ऊपरी और फौरी तौर पर क्षति केवल दबाए गए व्यक्ति की होती है, पर गहरे और दीर्घकालीन स्तर पर क्षति दबाने और कुचलने वाले व्यक्ति की भी होती है। जो दूसरों से शोषण और निर्दयता का व्यवहार करते हैं, वे या तो इस कारण ऐसे अपराधबोध से पीड़ित होते हैं, जो उनके जीवन की सुख-शांति छीन लेता है, अथवा (इस अपराधबोध से बचने के लिए) उन्हें अपने जीवन में इतनी संवेदनविहीनता लानी पड़ती है कि वे जीवन के अनेक प्रसन्नता और संतोष देने वाले अनुभवों से वंचित हो जाते हैं। इसका असर उनके जीवन के सबसे नजदीकी रिश्तों पर भी पड़ सकता है। यही कारण है कि जहां आधिपत्य के आधार पर बहुत सी भौतिक संपदा अर्जित कर ली जाती हैं, वहां भी तनाव, अवसाद और नैतिक पतन से जीवन तबाह रहता है। इतिहास और वर्तमान में ऐसे अनेक उदाहरण हैं।

इस तरह आधिपत्य के संबंधों के दोनों ओर दुख-दर्द बढ़ते हैं, आधिपत्य से त्रस्त होने वालों में भी और आधिपत्य जमाने वालों में भी। यह इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पर उपेक्षित सबक है कि आधिपत्य के संबंधों को दूर कर सहयोग के संबंध विकसित करने के प्रयास निरंतरता से होने चाहिए।

भारत डोगरा


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