बिहार : माय-बाप समीकरण की ठाठ

Last Updated 06 Apr 2024 12:17:48 PM IST

किसी भी राजनीतिक दल के उदय, स्थापना और विस्तार में जन समर्थन ही मुख्य तत्व है। प्राय: चुनावी दंगल में किसी भी दल को हासिल जनादेश को तीन खंड में देखने की कोशिश की जाती है जिसे कोर वोट, समर्थन वोट और तिरती वोट की संज्ञा दी गई है।


बिहार : माय-बाप समीकरण की ठाठ

इन तीनों में कोर वोट किसी भी दल की रीढ़ होती है। इसका टूटना मतलब उस दल का पतन। बाकी दोनों प्रकार के वोटों का ऊपर-नीचे होना स्वाभाविक है क्योंकि वह समसामयिक मुद्दों और अभियान पर निर्भर करता है।

राष्ट्रीय जनता दल की स्थापना 25 जुलाई 1997 को हुई जो लालू प्रसाद के लिए एक विपरीत कालखंड में हुआ करता था। एक तरफ वह अपनी लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर थे वहीं दूसरी तरफ पशुपालन घोटाले के आरोप में उनकी राजनीतिक जीवन बिल्कुल संक्रमण काल से गुजर रही थी। ऐसी परिस्थिति में उन्होंने दो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक फैसले लिए थे। पहला, जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की गठन की घोषणा करना और दूसरी अपनी गिरफ्तारी से पूर्व राज्य सरकार के नेतृत्व परिवर्तन को अंतिम रूप देकर राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाना। उनके नेतृत्व में राजद की सरकार लगभग आठ साल (1997-2005) तक रही थी।

उन्नीस सौ नब्बे के दशक में लालू प्रसाद यादव अपनी चुनावी सभाओं में कहा करते थे कि जब तक ‘माय’ का आशीर्वाद रहेगा तब तक कोई माई का लाल उन्हें सत्ता से बेदखल नहीं कर सकता। उन्होंने जेपी आंदोलन (1974), जनता पार्टी (1977) और जनता दल (1989) के रास्ते बिहार की राजनीति में करिश्माई नेतृत्व, स्वीकार्यता और लोकप्रियता अर्जित की। फिर एक खास परिस्थिति में राजद (1997) का गठन किया। यह उनके सक्रिय राजनीतिक हस्तक्षेप से अर्जित आत्मविश्वास की एक झलक थी। उसी दौर में केंद्र-राज्य के मद्देनजर झटकते हुए उन्होंने एलान किया कि वे घुटनना टेक नहीं बल्कि सीनातान मुख्यमंत्री हैं। इस प्रकार उनके नेतृत्व उभार से स्थापित होने में स्पष्टवादिता एक रोचक पक्ष रही है।

उनकी भूमिका मंडल आयोग रिपोर्ट को लागू कराना हो या आडवाणी को गिरफ्तार कर बिहार में रथयात्रा से संभावित दंगों को रोकने में हो, दोनों परिघटनाओं ने लालू प्रसाद यादव को पिछड़ों-अकलियतों  के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया था। अपनी करिश्माई एवं जनवादी नीतियों के मद्देनजर वे समाजवाद, सामाजिक न्याय और सौहार्द के मुखर प्रवक्ता बन चुके थे। अपनी वाकपटुता और जन-संपर्क से राष्ट्रीय राजनीति में भी वे सदैव अग्रणी भूमिका में रहते थे। लगभग एक दशक (2005-15) तक विपक्ष में रहने के बाद जब राजद सत्ता में वापस  राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने संघ प्रमुख मोहन भागवत आरक्षण समीक्षा की बात को चुनाव प्रचार में भाजपा विरोध अस्त्र बनाने  सफल रहे। परिणामस्वरूप भाजपा को करारी शिकस्त मिली।

राजद सबसे बड़े दल रूप  में जीत हासिल की और तेजस्वी प्रसाद यादव विधायक दल के नेता निर्वाचित हुए। महागठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री भी बने। लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति उन्होंने एनडीए के खिलाफ बिहार विधानसभा (2020) चुनाव  पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई और कारवाई को अभियान का मुख्य बिंदु बनाने में सफल रहे। लगभग सत्रह महीने के कार्यकाल में नौकरी, जाति गणना और आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी को तय करने में तेजस्वी ने अहम भूमिका निभाया। जनवरी 2024 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर महागठबंधन से नाता तोड़ा और राजद सरकार से बाहर हुए, लेकिन अल्पकालिक कार्यकाल में पांच लाख नौकरी देने के मुद्दे पर सभी जातियों के युवाओं के बीच तेजस्वी की स्वीकार्यता ज्यादा बढ़ती दिखी। उन्होंने कहा कि राजद सिर्फ माय की पार्टी नहीं बल्कि बाप (बीएएपी) की भी पार्टी है, जिसका तात्पर्य बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी (महिला) और पुअर (गरीब) है। मूल आशय था कि यह पार्टी सभी जाति/धर्म के सदस्यों के लिए एक समान है।

अपने सीमित कार्यकाल में दिए पांच लाख नौकरी की चर्चा ‘एनडीए के सत्रह साल बनाम सत्रह महीने’ को सक्रिय अभियान का हिस्सा बनाया। दरअसल ‘ए टू जेड’ की राजनीति से तेजस्वी प्रसाद ने समाज के सभी धर्म/वर्ग/जातियों को जोड़ने की शुरुआत की है। इटली के सुविख्यात राजनीतिक विचारक निकोलो मैकियावेली ने की उक्ति यहां समुचित प्रतीत होता है -‘प्रत्येक राजनेता अपने समय-देशकाल का शिशु होता है। उसके समक्ष अपनी प्राथमिकताएं एवं चुनौतियां होती हैं।’ दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि लालू प्रसाद यादव के ‘माय’ समीकरण की राजनीति आज व्यापक फलक को प्राप्त करता हुआ ‘बीएएप’ अर्थात समावेशी एवं समदर्शी राजनीति को प्राप्त कर चुका है। यह बिहार जैसे विविधतासम्पन्न राजनीतिक प्रदेश के लिए मील का पत्थर सरीखा उपलब्धि है। इससे समाज के प्रत्येक तबके का सतत एवं सामंजस्यपूर्ण विकास संभव हो सकेगा।

प्रो. नवल किशोर


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