कोचिंग संस्थान : नकेल कसनी जरूरी
कोचिंग संस्कृति’ पर लगाम के लिए बीते एकाध दशकों में केंद्र सरकार की ओर से कई मर्तबा आदेश पारित हुए, जिनमें बंदिशों के एक नहीं, बल्कि कई तरह के दिशा-निर्देश शामिल रहे।
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पर पूर्व के किसी भी सरकारी फरमानों को कोचिंग माफियाओं ने ज्यादा दिनों तक नहीं माना? आदेशों का कुछेक महीनों तक तो थोड़ा-बहुत बहुत अमल किया, लेकिन जैसे ही शोर कम हुआ, फिर से शुरू कर दी अपनी मनमानी। अब फिर से कोचिंग पर नया सरकारी फरमान जारी हुआ है, जिसमें 16 वर्ष से कम आयु के छात्रों को कोचिंग की मनाही बताई है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ये कदम निश्चित रूप से सराहनीय है, लेकिन बात वहीं आकर अटक जाती है, ये आदेश कब तक? और क्या गारंटी है कि ये आदेश कोचिंग वाले तत्काल प्रभाव से मानेंगे।
खैर, पुरानी बातों को छोड़कर अब कोचिंग संस्कृति पर लगाम की इस नई पहल पर व्यापक रूप से बहस और विचार-विमर्श करने दरकार है। आमजन से लेकर हुकूमतें भी अब जान चुकी हैं कि कोचिंग सेंटर किस तरह से शिक्षा के नाम पर गोरखधंधा करने लगे हैं। वह सीधे-सीधे शिक्षा और छात्रों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। शिक्षा मंत्रालय ने अपने आदेश में 16 साल से कम उम्र के छात्रों का जिक्र किया है, लेकिन सच्चाई इससे भी कहीं इतर है। यहां आर्मी स्कूलों में दाखिला का जिक्र करना जरूरी हो जाता है जहां, छात्रों को तो 10 उम्र से ही कोचिंग लेने पर विवश किया जाता हैं। शायद सरकार का इस ओर ध्यान नहीं गया। देश में 33 अधिकृत सैनिक स्कूलों के अलावा 5 राष्ट्रीय मिलिट्री स्कूल और एक राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज है जिनमें दाखिले की परीक्षा यूपीएससी के बराबर मानी है, वहां बिना कोचिंग के छात्र परीक्षा किसी भी सूरत में पास नहीं कर सकता।
सामान्य स्कूलों के छात्र सैनिक स्कूलों की एंट्रेंस परीक्षा नहीं निकाल सकते। इसलिए उन्हें मजबूरी में कोचिंग लेनी पड़ती है। ऐसी परीक्षाओं का पैटर्न हल्का किया जाए, इस ओर शिक्षा मंत्रालय को ध्यान देने की जरूरत है। आर्मी स्कूलों की परीक्षाओं का सिलेबस बहुत कठिन रखा जाता है। तभी इन परीक्षा को पास करवाने के लिए देश भर में सैकड़ों डिफेंस एकेडमियां संचलित हो चुकी हैं। वो अभिभावकों से मुंह मांगा पैसा वसूलती हैं। वहां न कोई नियम होता है और न ही कोई सरकारी सख्ती? इसलिए इन पर सबसे पहले नकेल कसने की आवश्यकता है। ये कोचिंग संस्थाएं ऐसी हैं, जो खुलेआम नौनिहालों का बचपन रौंदती हैं। बच्चों को अच्छा खाना, शारीरिक क्रीड़ा में प्रतिभाग कराना, खेलखूद व मौज-मस्ती से दूर रखती हैं। कोचिंग के चक्रव्यूह में फंसना अब छात्रों-अभिभावकों की मजबूरी भी बन गई है। जिस छात्र को अगर गला-काट प्रतियोगी परीक्षा पास करनी है, तो उसके जेहन में अव्वल ख्याल कोचिंग संस्थाओं की ओर ही दौड़ता है।
क्योंकि इन्होंने छात्रों और के दिमाग में ऐसी बात बिठा दी है कि कोचिंग के बिना उनका कल्याण नहीं होगा? यूपीएससी के लिए दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या जेई-इंजीनियरिंग के लिए राजस्थान का कोटा? कागजों में ये उच्च शिक्षा के लिए ‘महाकुंभ’ बन गए हैं पर दुर्भाग्य ये है कि दोनों स्थान अब ‘खुदकुशी’ के केंद्र बन गए हैं। टॉप करने का प्रेशर छात्रों को डिप्रेशन के समुद्र में धकेल रहा है। कोटा में प्रत्येक सुसाइड की घटना सिर्फ यही बताती है कि बच्चे पढ़ाई का प्रेशर नहीं झेल पाने के कारण ऐसा कदम उठाते हैं? कहने में कोई गुरेज नहीं है कि छात्रों की आत्महत्याओं का मूल कारण सीधे-सीधे शिक्षण संस्थाएं ही हैं। क्योंकि कोचिंग संस्थान अब छात्रों के बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखकर शिक्षा ग्रहण नहीं करवाती, बल्कि उन पर इतना प्रेशर डालती हैं कि अच्छे से अच्छा छात्र भी डिप्रेशन में चला जाए। वैसे, इस कृत्य में कोचिंग संस्थानों के साथ-साथ छात्रों के परिजन भी बराबर के भागीदार होते हैं। छात्रों पर दोनों का संयुक्त रूप से एक जैसा प्रेशर होता है।
मनोचिकित्सकों का तर्क है कि बदलते दौर में जब बच्चों की उम्र खेलकूद की होती है तब उनके सामने गला-काट प्रतियोगी परीक्षाओं की चुनौती खड़ी कर दी जाती है। ये भी सच है कि नार्मल स्कूलों की जगह कोचिंग संस्थानों के टफ स्टडी पैटर्न को झेलना, सामने वाले से बेहतर करने का घनघोर दबाव और उसके बाद शिक्षक-पेरेंट्स का बच्चों पर उम्मीद से ज्यादा उम्मीद करना भी सही नहीं होता? सही मायनों में देखें तो सुसाइड केसों के मूल और तात्कालिक कारण ‘बेवजह शिक्षा का प्रेशर’ ही कहे जाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि इन कारणों को शिक्षक-अभिभावक न जानते हों, मगर इसे इग्नोर कर देते हैं। कोचिंग संस्थानों पर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने चाबुक चलाने का मन अचानक क्यों बनाया है, इस थ्योरी को भी समझने की जरूरत है। शिक्षा की आड़ में धंधा कैसे पनपता है, उसका सजीव उदाहरण समूचे हिंदुस्तान में कुकुरमुत्तों की भांति फैले कोचिंग इंस्टीट्यूट हैं।
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