Bihar Poltics : मजबूरी में नीतीश कुमार

Last Updated 31 Jan 2024 01:20:53 PM IST

देश में पूर्व में दो बार कांग्रेस के खिलाफ और एक बार बीजेपी के खिलाफ राजनीतिक दलों ने मोर्चे बनाए हैं, और उन मोर्चों की सरकारें भी बनीं, लेकिन संयोग कुछ ऐसा बना कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) कांग्रेस विरोधी मोर्चे में तो रहे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंडिया’ गठबंधन के संस्थापक सदस्य के रूप में पहली बार बीजेपी विरोधी मोर्चे में औपचारिक रूप से शामिल हुए।


बिहार : मजबूरी में नीतीश

फिर भी ज्यादा दिनों तक इसमें नहीं रह पाए और इससे निकल आए हैं। बिहार में आरजेडी और जेडी (यू) की संयुक्त सरकार भी टूट गई और नीतीश ने एक बार फिर बीजेपी के साथ सरकार बना ली।

राष्ट्रीय स्तर पर कहें तो बीजेपी हिन्दुत्ववाद और विकास के नारे के इर्द-गिर्द अपनी सरकार बनाना चाहती है। दूसरी तरफ, बिहार में आरजेडी की कोशिश होती है कि अपने नेता की जाति के इर्द-गिर्द राजनीति को संचालित करे और उसे मजबूत करने के लिए पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का उपयोग करे। जिस तरह बीजेपी देश और राज्यों में मुस्लिम विरोध को ताकत बनाकर सरकार बनाने की कोशिश करती है वैसे ही बिहार में आरजेडी सामान्य जातियों के विरोध या उनके हितों को दरकिनार कर अपनी ताकत को बरकरार रखना चाहती है। अपनी इसी अलग राजनीति के तहत आरजेडी ने कांग्रेस को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

यहां तक कि जाति की राजनीति से दूर रह कर कमजोर वर्गों की बात करने वाले सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एम-एल) को भी हाशिये पर डालने में आरजेडी (RJD) ने कोताही नहीं बरती और उनके विधायकों को भी दलबदल करा कर जाति के नाम पर अपनी पार्टी में शामिल करा लिया। कानून व्यवस्था की गिरावट में आरजेडी की सरकार ने कीर्तिमान स्थापित किया और जनता दल के अपने नेताओं को भी उन्होंने किनारे लगाना शुरू कर दिया। वैसी स्थिति में जॉर्ज फर्नाडिस के साथ शरद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने जनता दल से अलग होकर लालू प्रसाद से इतर पार्टियां बनाई और ये सभी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनकर एनडीए की सरकार में शामिल हुए। ये नेता राजनीतिक तौर पर बीजेपी के हिन्दुत्ववादी एजेंडे के समर्थक नहीं थे लेकिन कांग्रेस और लालू प्रसाद के खिलाफ एकजुटता की वजह से एनडीए के साथ आ गए।

इस बीच, लालू प्रसाद की जातीय राजनीति परवान पर थी और पंद्रह साल तक बिहार को उन्होंने मनमर्जी से चलाया। बिहार को विकास की प्रक्रिया से काट दिया और लगा कि वो पूरे देश में वे सामान्य जातियों के विरोध के नारे पर ही राज करेंगे। कोई उस समय कल्पना करने के लिए भी तैयार नहीं था कि वही लालू एक बार कांग्रेस के नजदीक आएंगे जिसे बिहार में खत्म करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन इस बीच बीजेपी की चुनौती और पार्टी में टूट के बाद वे कांग्रेस सहित वामपंथी पार्टियों के करीबी बन गए। यूपीए-1 में शामिल हुए और यूपीए-2 में सीपीएम के साथ बाहर निकल गए लेकिन यूपीए-2 सरकार की हार के बाद वे फिर बीजेपी विरोधी दलों के नजदीकी बन गए।

इधर, नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन में शामिल होकर पहले केंद्र में मंत्री बने और फिर राज्य के मुख्यमंत्री। नीतीश ने अपने आपको सुशासन स्थापित करने वाले सर्वजातीय नेता के रूप में स्थापित किया। हालांकि जरूरत के हिसाब से उन्होंने भी पिछड़ी जाति की राजनीति का उपयोग किया और जातीय जनगणना भी कराई। जब बीजेपी से वास्ता खराब हो तो लालू के साथ मिलकर सरकार बनाना और जब लालू प्रसाद से संबंध बिगड़े तो फिर बीजेपी के साथ मिलकर राज्य के मुख्यमंत्री बने रहना, नीतीश की खास रणनीति रही। बिहार में बीजेपी की हिन्दुत्ववादी राजनीति और आरजेडी की जातिवादी राजनीति के बीच नीतीश सर्वमान्य केंद्रबिंदु बने रहे और बिहार के आम लोगों को जीने लायक शासन देकर रहने लायक प्रदेश बनाए रखा। नीतीश ने भी अपनी पार्टी के कई अच्छे लोगों को नाराज किया।

उन पर भी अहं हावी हुआ लेकिन लालू की संकुचित जातीय राजनीति के खिलाफ नीतीश सभी तबकों के लोगों का विश्वास हासिल करने में सफल रहे। तेजस्वी यादव (Tejasi Yadav) ने बिहार की राजनीति में अपनी छवि ठीक करने की कोशिश की लेकिन जाति की राजनीति करने की उनकी पार्टी की छवि बनी रही। जब केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग की जातियों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव लाई तो उनकी पार्टी राजद उसके विरोध में खड़ी हो गई।

हालांकि सूत्रों के मुताबिक खुद तेजस्वी आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग की जातियों के आरक्षण के प्रस्ताव का समर्थन करने के पक्ष में थे और उनकी जाति के ही कई नेताओं ने उनसे इस समर्थन के लिए गुजारिश भी की थी। इससे उनकी पार्टी की सर्वजातीय छवि बन सकती थी लेकिन अपने कुछ सलाहकारों के प्रभाव में तेजस्वी इसके विरोध में खड़े हो गए। डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह को भी अपमानित किया गया जबकि उन्होंने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में देश में मनरेगा लागू करने की बड़ी उपलब्धि हासिल की थी। तत्कालीन सीपीआई नेता कन्हैया कुमार के खिलाफ तेजस्वी ने बेगूसराय से उम्मीदवार खड़े कर भी अपनी लोकप्रियता खोई। तेजस्वी जब भी नीतीश कुमार के साथ सरकार में शामिल हुए, लोगों को महसूस हुआ कि उनकी जाति फिर आक्रामक हो गई है। हाल ही में पटना में एक सरकारी कर्मचारी को घर से निकाल कर मार-मार कर अधमरा कर दिया गया। इसमें खुद राजद सुप्रीमो के रिश्तेदार शामिल थे। रोजगार देने के मामले में तेजस्वी की छवि ठीक हो रही थी, लेकिन इन गुंडों की वजह से बिहार एक बार फिर सहम गया।

जब केंद्र में लालू प्रसाद रेल मंत्री थे तो एक अखबार के लिए मुझे दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा गलत था और उन्होंने इसके लिए खेद व्यक्त किया। इसे लेकर उनकी पार्टी के कुछ नेता मुझ से नाराज भी हो गए लेकिन लालू ने अगले ही दिन मेरे सामने उनसे कहा कि जो भी इंटरव्यू में लिखा गया था, वो सही था। देश और बिहार में आरक्षण लागू हो गया है, और बिहार को उससे आगे का सोचना चाहिए। इसलिए तेजस्वी यादव को पूरे बिहार का नेता बनने के लिए अपराधमुक्त छविश्व वाली सर्वजातीय राजनीति करनी पड़ेगी वरना नीतीश हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे।

अखिलेश सुमन


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