राजनीति : चुनाव में बिहार

Last Updated 04 Jan 2024 12:50:53 PM IST

बिहार में और कुछ हो न हो, राजनीतिक हलचल बारहों महीने बनी रहती है और जब साल चुनाव का हो, तब तो कहना ही क्या। पिछली 29 दिसम्बर को बिहार की सत्तासीन पार्टी जनता दल युनाइटेड ने अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बदल लिया।


राजनीति : चुनाव में बिहार

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब अपनी पार्टी के सदर या आला कमान भी बन गए। यूं सब जानते हैं कि जनता दल युनाइटेड का मतलब नीतीश कुमार ही होता है और आजकल अध्यक्ष से अधिक सुप्रीमो का प्रचलन है, जो नीतीश अपनी पार्टी के हैं।

लेकिन कहीं कोई बात होगी कि नीतीश को लगा कि अध्यक्ष की कमान अपने हाथ में ले लेनी चाहिए। उस पार्टी में कोई सामान्य दलीय चुनावी प्रक्रिया नहीं चल रही थी। बीच में अध्यक्ष बदलना निश्चित ही संकेत देता है कि उस दल में सब कुछ ठीक नहीं है। यदि सब कुछ ठीक है, जैसा कि उसके नेता बता रहे हैं, तो क्या अध्यक्ष बदलने के लिए आनन-फानन में राष्ट्रीय कार्यकारिणी और परिषद की बैठक बुलाना राजनीतिक जॉगिंग है? संभव है कुछ ऐसा ही हो, क्योंकि इतना तो हुआ ही कि लगभग एक हफ्ता नीतीश और उनकी पार्टी समाचारों में बने रहे। चर्चा में बने रहने का यह भी एक तरीका होता है। नीतीश इन्हीं चालाकियों के लिए जाने जाते हैं। लगभग तीन दशकों से सूबे में तीसरे नम्बर की पार्टी रहते हुए भी लगातार सत्ता में यूं ही नहीं बने रहे हैं। अब इन्हीं राजनीतिक चालाकियों के बूते उनमें प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षाएं घनीभूत हो रही हैं।

कांग्रेस की कमजोर स्थिति का लाभ उठाने की बात उनके मन के अतल में है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। उनकी आकांक्षाओं को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। केवल डेढ़ वर्ष पहले तक भाजपा के साथ राजनीतिक गठबंधन में जुड़े नीतीश को छह महीने पहले महसूस हुआ कि भाजपा का राजनीतिक विकल्प तैयार करना है। उन्होंने पटना में कांग्रेस सहित अन्य भाजपा विरोधी दलों का एक संगमन कराया।

कुछ ही दिनों में यह एक मोर्चे के रूप में ‘इंडिया’ गठबंधन के रूप में प्रकट हुआ। लेकिन नीतीश की अप्रकट इच्छा थी कि उन्हें इस मोर्चे का संयोजक और प्रधानमंत्री का भावी उम्मीदवार घोषित किया जाए। ‘इंडिया’ की पिछली बैठक, जो दिल्ली में विगत 19 दिसम्बर को हुई, में ममता बनर्जी ने भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे का नाम प्रस्तावित कर दिया। अरविंद केजरीवाल ने इसका समर्थन कर समस्या को और विकट कर दिया। नीतीश चुप रहे। उन्हें झटका लगना स्वाभाविक था। उनकी महत्त्वाकांक्षाओं पर वज्रपात हो गया। उन्होंने समझ लिया कि ‘इंडिया’ में उनके शामिल-बाजा के रूप में बने रहने के अलावे, दूसरी कोई स्थिति नहीं हो सकती।

नीतीश चाहे प्रकट तौर पर जो भी कहें, 2010 से ही नरेन्द्र मोदी के साथ उनकी एक प्रच्छन्न-प्रतियोगिता चल रही है। तब उन्हें लगता था कि बिहार से आधी आबादी वाले गुजरात का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री का उम्मीदवार हो सकता है, तो वह क्यों नहीं। 2009 के लोक सभा चुनाव में जब भाजपा की  स्थिति 2004 से भी खराब हो गई, तब लालकृष्ण आडवाणी की जगह मोदी का नाम प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर चलने लगा था। इससे क्षुब्ध नीतीश ने 2010 में अपने घर आयोजित भोज में मोदी के न आने की शर्त लगा कर अपने चेहरे पर सेक्युलर पाउडर मलने की कोशिश की थी। लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ। इसकी प्रतिक्रिया में मोदी भाजपा में हीरो बन गए और नीतीश को कुछ नहीं मिला।

2013 के जून में जब नरेन्द्र मोदी को भाजपा चुनाव अभियान समिति का संयोजक बनाया गया, तब नीतीश ने भाजपा से अपना राजनीतिक रिश्ता अचानक तोड़ लिया। लेकिन 2014 के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह पराजित हुए। फिर उन्होंने कुछ ही साल के भीतर लालू प्रसाद के राजद, भाजपा और फिर राजद से राजनीतिक गठबंधन कर अपनी विसनीयता खत्म कर ली। वह हास्यास्पद बनते चले गए। अब एक बार फिर चुनावी गठबंधन ‘इंडिया’ का संयोजक बन कर मोदी को चुनौती देना चाहते हैं। इस से निराश होने पर उनमें स्वाभाविक विचलन दिख रहा है।

नीतीश की समस्या यह है कि वह अपनी राजनीतिक औकात और व्यक्तित्व का आकलन नहीं करते। एक क्षेत्रीय दल में तीसरे स्थान का नेता प्रधानमंत्री पद का दावा करे तो यह बात ही हास्यास्पद लगती है। उन्होंने अपनी कोई नैतिक या बौद्धिक पहचान भी नहीं बनाई है। 2015 से लगातार अपने गठबंधन का दूसरा दल होते हुए भी मुख्यमंत्री बने हुए है। जिस नेता की राष्ट्रीय आकांक्षा होती, उन्हें इस तरह के पद से परहेज करना चाहिए था। यह लोकतांत्रिक रिवाजों के खिलाफ है कि आप बहुमत का मजाक बना रहे हैं। यदि उनके मन में जवाहरलाल नेहरू का उदाहरण हो कि कांग्रेस में अल्पमत में होते हुए भी गांधी ने उनके नाम पर कांग्रेस की मुहर लगवा ली थी, तो इसका भी उन्हें विश्लेषण करना चाहिए। प्रथम तो यह कि वह कांग्रेस का अंदरूनी मामला था और गांधी की पसंद के भी मायने होते हैं। दूसरा यह कि जवाहरलाल की बौद्धिक और नैतिक क्षमता के सब कायल थे। नीतीश इस तुलना में कहीं नहीं टिकते।

सवाल यह है कि नीतीश अब क्या करेंगे। राजनीतिक गलियारों में कई तरह की बातें चल रही हैं। लाजिम है कि इनमें अफवाह अधिक हैं। फिलवक्त तो वह बिहार के महागठबंधन और राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंडिया’ में हैं, लेकिन यह भी चर्चा है कि वह भाजपा के साथ एक बार फिर गठजोड़ की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि भाजपा इतनी बात नहीं समझ रही है कि इस ढहते घर को लेना होशियारी नहीं होगी। भाजपा नेताओं के वक्तव्यों से यही पता चलता है कि वह चाहती है, जनता दल युनाइटेड के कुछ विधायक टूट कर राजद से मिल जाएं या इस्तीफा कर दें। इससे बिहार में तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। इसके बाद अगली कोई भी राजनीतिक लड़ाई बिहार में राजद और भाजपा के बीच सीधी होगी। इस दो ध्रुवीय संघर्ष में भाजपा को लाभ हो सकता है। नीतीश के नेतृत्व के साथ की जुगलबंदी भाजपा के लिए सहज नहीं होगी। लेकिन जो भी होगा खरमास के बाद ही संभव होगा। 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा भी होनी है। खबर है कि नीतीश उस उत्सव में भाग लेंगे। लगता है, रामलला भी बिहार की राजनीति में कुछ भूमिका निभाएंगे।

प्रेमकुमार मणि


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