बसपा की विरासत : फिर जीती विरासत की सियासत

Last Updated 16 Dec 2023 01:33:06 PM IST

बहुजन समाज पार्टी (BSP) की नेता मायावती (Mayawati) ने अपने भाई के बेटे आकाश आनंद (Akash Anand) को अपना राजनीतिक उतराधिकारी घोषित कर दिया है।


बसपा की विरासत : फिर जीती विरासत की सियासत

पहले से यह संभावना जताई जा रही थी कि वे छोटे भाई आनंद कुमार के बेटे को अपनी गद्दी सौंप देगी। लंदन में बिजनेस मैनेजमेंट (व्यापार प्रबंधन) का प्रशिक्षण लेकर राजनीति में उतरे आकाश को राजनीतिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए खुद को सक्षम साबित करना है। भारतीय समाज में राजनीतिक चुनौतियों की पृष्ठभूमि किसी भी नेतृत्व के लिए अलग-अलग होती है। मसलन, ब्रिटिश सत्ता के विरोध में आंदोलन के दौरान जो राजनीतिक चुनौती जवाहरलाल नेहरू के सामने थी, डा.भीमराव अम्बेडकर के सामने उससे बुनियादी रूप से भिन्न चुनौतियां थीं। बसपा के प्रादुर्भाव की पृष्ठभूमि में डा.अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत है। वह समाज में सदियों से शासित-शोषित जाति-वर्ग को समानता की स्थिति में लाने की रही है। बसपा का प्रयोग उत्तर प्रदेश में इस रूप में सफल माना जा सकता है कि वहां उसकी नेता मायावती के मुख्यमंत्रित्व में सरकार बनी और वह संसदीय लोकतंत्र में सत्ता की दौड़ में लगी लगभग सभी पार्टियों के साथ तालमेली प्रयोग से गुजर चुकी है।

पहली बार सरकार सपा के साथ मिलकर, दूसरी बार भाजपा के साथ और तीसरी बार बसपा ने अपने बहुमत से बनाई लेकिन बसपा उत्तर प्रदेश से बाहर विस्तार नहीं पा सकी और न ही यहां उसकी सत्ता हासिल करने की ताकत बच सकी। 2007 में 403 सदस्यों के सदन में 206 सीटें जीतकर और 30.43 फीसद मत हासिल कर अपने बूते सरकार बनाने वाली बसपा 2022 के विधानसभा चुनाव में 12.88 प्रतिशत वोट पर सिमट गई है। मायावती एक राजनीतिक आंदोलन की विरासत थी। भारतीय समाज में अछूत कहे जाने वाले जमाने से एक दलित महिला के राजनीतिक नेतृत्व करने की छवि को संसदीय राजनीति के विकास के लक्ष्य के रूप में पेश किया जाता रहा है। लेकिन कांशी राम ने बसपा बना कर इस लक्ष्य को उत्तर प्रदेश में सरकार के जरिए हासिल करने का दावा किया। लेकिन समाज पर वर्चस्व रखने वाली संस्कृति का एक विशेष चरित्र है कि वह शासितों की अपेक्षाओं पर एक समय के बाद न केवल अपनी मुहर लगाता है बल्कि लंबे कालखंड में उन अपेक्षाओं को अपने ब्रांड के रूप में स्थापित कर देता है। मौजूदा चुनावी लोकतंत्र में प्रत्येक राजनीतिक दल एक दूसरी की छाया प्रति बनता दिख रहा है। यह उस दौर में है,जब वर्चस्व रखने वाली संस्कृति खुद के अपराजेय होने की घोषणा करने तक पहुंच गई है।

मायावती का अपना उत्तराधिकारी अपने भाई के बेटे को घोषित करना आश्चर्य में नहीं डालता है क्योंकि बसपा केवल चुनाव के लिए खुद को समेट चुकी है। समाज में परिवर्तन के लिए जो भी वैचारिक धाराएं हिन्दू-वर्चस्व के इर्द-गिर्द सिमटी रही हैं, उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत मानने वाली तमाम पार्टयिां पारिवारिक विरासत बन चुकी हैं। कांग्रेस का नेतृत्व पांचवी पीढ़ी के हाथ में है। तमिलनाडु में करुणानिधि की तीसरी पीढ़ी राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए तैयार हो गई है। बिहार में सामाजिक न्याय की दूसरी पीढ़ी नेतृत्व संभाल चुकी है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी मुलायम सिंह ने भाई और बेटे के बीच में  बेटे को राजनीतिक उत्तधाधिकार के रूप में चुना।

महाराष्ट्र के शरद पवार ने जब अपनी बेटी को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का संकेत दिया तो भतीजे अजीत पवार ने उनसे लगभग विद्रोह कर दिया। रामविलास पासवान के राजनीतिक उत्तराधिकारी चिराग पासवान बनते चले गए, उन्हें कोई घोषणा नहीं करनी पड़ी। भाई-भतीजे के बीच संघर्ष की एक मिसाल वहां भी मिलती है। भारतीय राजनीतिक दलों में जिस तरह से राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपे जा रहे हैं, उनका अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो सकता है कि वैचारिक स्तर पर समाज कितना आधुनिक और लोकतांत्रिक हुआ है। इस लिहाज से बसपा नेता मायावती का अपने भतीजे को उत्तराधिकार घोषित करना कोई अलग सी राजनीतिक प्रवृत्ति नहीं है। भारतीय समाज में जाति जब तक राजनीति के लिए स्वीकार्य होगी, परिवार और उसकी पगड़ी की संस्कृति मजबूत से जमी रहेगी। भारतीय समाज के बारे में यह राय भी बनी है कि जिस तरह से जाति-वर्ग अपने हितों के लिए धर्म की आड़ लेते हैं और तदनुसार धर्म का राजनीतिकरण राष्ट्र के नाम पर करते हैं, उसी तरह से दूसरी तरफ वंचित हिस्सों के बीच भी जातिवाद इसी तरह की शक्ल बनाकर सत्ता तक की दौड़ को एक प्रतिस्पर्धा मान लेने का भ्रम निर्मिंत करता है। यह भी अलग अध्ययन का विषय है कि आखिर बसपा नेता मायावती को उत्तराधिकार की घोषणा क्यों करनी पड़ी?

राजनीतिक दल परिवारों तक सिमटते जा रहे हैं। लेकिन अपनी पार्टी को निजी संपत्ति की तरह अपने परिवार को सौंपने का रास्ता तैयार करते रहे हैं पर इसकी घोषणा से बचा जाता है। स्मरण नहीं कि किसी भी नेतृत्व ने इस तरह उत्तराधिकार की घोषणा की हो। इस संदर्भ में एक पहलू यह जरूर उल्लेखनीय है कि बसपा का बड़ा आधार दूसरी पार्टियों से इस मायने में भिन्न बचा हुआ है कि उसके साथ विचारधारा की एक विरासत सक्रियता बनाए हुए है।लेकिन एक बड़ा विचाराधारात्मक सवाल उसके सामने खड़ा हो गया है। ब्राहम्णवाद की आलोचना और विरोध का मुख्य आधार यह है कि उस व्यवस्था में जन्म से ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत सुनिश्चित हो जाती है। यही परिवारवाद में विस्तारित होता है। परिवारवाद का विरोध इस आधार पर भी होता है कि इसमें जन्म से ही किसी राजनीतिक नेतृत्व के परिवार को ऊंचा मान लिया जाता है। परिवारवाद जन्म के आधार पर ऊंच-नीच की व्यवस्था को और भी मजबूत करता है। मायावती ब्राहम्णवाद विरोधी आंदोलन की विरासत पर खड़ी पार्टी का तीन दशकों से ज्यादा समय से नेतृत्व कर रही हैं। उनके पक्ष में एक राय हो सकती है कि उन्हें अपना उत्तराधिकार घोषित करने का अधिकार मिलना चाहिए लेकिन बसपा के लिए उत्तराधिकार घोषित करना विचारधारात्मक आंदोलन के समक्ष प्रश्न खड़ा करती है। उसकी ऊर्जा को क्षीण करती है। बसपा के भीतर यह प्रयोग सत्ता के लिए प्रयोगों से भिन्न नहीं है।

अनिल चमड़िया


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