खेल में महिलाएं : क्रीज पर कुबेरी रोमांच

Last Updated 16 Dec 2023 01:29:41 PM IST

पिछले एक दशक में खेल और खेल के मैदान का जेंडर फेस तेजी से बदला है। यह किसी रोमांच से कम नहीं है। हाल में ऐसा ही एक रोमांच क्रिकेट की दुनिया में महिला प्रीमियर लीग में खिलाड़ियों की नीलामी के दौरान दिखा।


खेल में महिलाएं : क्रीज पर कुबेरी रोमांच

जिन महिला क्रिकेटरों को कुछ वर्ष पहले एक-एक मैच के लिए तरसना पड़ता था, उनके लिए अवसर का नया आकाश खुला। जिन महिला क्रिकेटरों के माता-पिता यह कहकर अपनी बेटियों को खेलने से रोकते थे कि इस खेल में सिर्फ पुरु षों का ही भविष्य है, वे सभी गलत साबित हुए। आज बहुत तेजी से महिला खिलाड़ियों की मैदान पर भागीदारी बढ़ रही है। इतना ही नहीं, उन पर पैसे की बरसात हो रही है। नौ दिसम्बर को आयोजित नीलामी में भारतीय महिला क्रिकेट की युवा खिलाड़ी काशवी गौतम को दो करोड़ रु पये की सबसे बड़ी धनराशि दे कर गुजरात जायंट्स ने अपनी टीम में लिया। कर्नाटक की युवा खिलाड़ी वृंदा दिनेश को यूपी वॉरियर्स ने 1.3 करोड़ रु पये दिए हैं। खास बात है कि भारतीय महिला क्रिकेटरों ने इसमें कई शानदार विदेशी क्रिकेटरों को पीछे छोड़ दिया है।

महिला प्रीमियर लीग की बढ़ती लोकप्रियता और महिला क्रिकेटरों की प्रतिभा को मिलती पहचान, लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि है। दरअसल, महिला खिलाड़ियों के विकास को उस दौर से जोड़ कर देखा जाना चाहिए, जब हॉकी और क्रिकेट में हमारे पास प्रतिभाएं तो कई थीं, लेकिन पैसे और संसाधन की कमी के कारण वे वैिक पटल पर नहीं आ पा रहे थे। जिस भारत में हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्ज प्राप्त है, जहां क्रिकेट को धर्म और विश्व कप को महापर्व कहा जाता है, करीब चार-पांच दशक पहले उसके पास इनाम देने तक के लिए पैसे नहीं होते थे। भारत ने वर्ष 1975 में अजित पाल सिंह की अगुआई में हॉकी विश्व कप में खिताब जीता या 1983 में कपिल देव के नेतृत्व में आईसीसी विश्व कप। खिलाड़ियों को वाहवाही तो खूब मिली, पर इनाम के तौर पर उतना पैसा नहीं मिला, जिससे वे अपनी आर्थिक हालत सुधार सकते थे। आज पुरुष प्रतियोगिताओं में तंगी का यह दौर गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। खिलाड़ियों को पैसे की कमी नहीं है। सरकारी और प्राइवेट, दोनों तरफ से खजाने खोल दिए गए हैं।

लेकिन अभी काफी कुछ बदलना बाकी है। सरकारी खजाने खुले हैं। इससे ओलंपिक और एशियाई खेलों में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है, पर क्रिकेट जैसे प्राइवेट प्रायोजित खेल के लिए ऐसा नहीं हुआ है। पिछले वर्ष भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने महिला प्रीमियर लीग (डब्ल्यूपीएल) की धमाकेदार शुरु आत की। टीमों की नीलामी के दौरान बड़ी-बड़ी कंपनियों ने बोली लगाई। यह पहला मौका था जब महिला क्रिकेट के किसी भी टूर्नामेंट के लिए इस तरह की बोली लगी और कंपनियों ने इतनी बड़ी राशि खर्च की है। डब्ल्यूपीएल न सिर्फ क्रिकेट में महिलाओं की कमाई बढ़ाने के लिए अहम था, बल्कि यह लैंगिक समानता की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण लम्हा साबित हुआ। ये सारे बदलाव भविष्य के लिए बड़े संकेत हैं। लैंगिक पूर्वाग्रह के दौर से रेसलिंग और बॉक्सिंग जैसे खेलों की तरह क्रिकेट भी बाहर आ रहा है। बाकी खेलों की तरह क्रिकेट में भी महिला खिलाड़ियों ने इसे अपने खेल और मेहनत के दम पर हासिल किया है।

क्रिकेट में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए आईसीसी ने जब पहली बार अंडर-19 विश्व कप का आयोजन किया, तो पूरे टूर्नामेंट में लड़कियों का दमखम देखते ही बन रहा था। उनकी मेहनत पुरु ष टीम से कमतर नहीं थी। भारत ने खिताब जीता और टीम में वो लड़कियां शामिल थीं, जिन्होंने अभाव में अपने हुनर को निखारा। 11 खिलाड़ियों में सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश की चार महिला क्रिकेटरों ने अपने प्रदर्शन से मोहित कर दिया।

एक तरफ बुलंदशहर जैसे छोटे कस्बे से आई हरफनमौला पाश्र्वी चोपड़ा थीं तो प्रयागराज की फलक नाज और फिरोजाबाद की सोनम यादव ने अपनी मेहनत का लोहा मनवाया। हरियाणा, पश्चिम बंगाल, पंजाब जैसे राज्यों के छोटे से गांव की लड़कियों ने समाज की रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर, लैंगिक समानता हासिल करने की लड़ाई लड़ी। इसमें कोई दो राय नहीं कि खेल में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने में केंद्र और राज्य सरकारों का भी बड़ा योगदान है। खासकर वे राज्य जहां पहले खेलों को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था। एक तरफ महिला हॉकी को बढ़ावा देने के लिए ओडिशा सरकार काम कर रही है तो वहीं कुश्ती और बैडमिंटन के साथ क्रिकेट के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार बड़े स्तर पर काम कर रही है। झारखंड जैसे राज्य भी अपने यहां पारंपरिक व अन्य खेलों को संवारने में लगे हैं। सरकरों के इस कदम से भी खेलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है।

संदीप भूषण


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