सामयिक : मोदी की अपील स्वाभाविक

Last Updated 14 Dec 2023 01:04:41 PM IST

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों एवं अन्य घटनाओं के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा मन की बात में विदेशों में शादी विवाह नहीं करने की अपील पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई।


सामयिक : मोदी की अपील स्वाभाविक

वास्तव में धनी भारतीयों से विदेश की बजाय देश में शादियां करने के आग्रह के निहितार्थ काफी गहरे हैं। प्रधानमंत्री ने इसके लिए सामान्य सरल तर्क दिए यानी हम देश में शादियां करेंगे तो बाहर खर्च होने वाला धन देश में ही रहेगा और लोगों को उससे रोजगार मिलेगा। यह भी कहा कि विदेश जैसी सुविधा भारत में नहीं हैं, तो शादी समारोह यहां करने से धीरे-धीरे वो भी विकसित हो जाएंगी।

सही भी है कि आवश्यकता के अनुसार व्यवस्थाएं और सुविधाएं विकसित होती रहती हैं। भारत में पहले होटलों, विवाह भवनों या ऐसे सार्वजनिक स्थानों में बड़े कार्यक्रमों, उत्सवों और अभियानों की सुविधा नहीं थीं किंतु धीरे-धीरे वे विकसित हुई। हम यहां तक आ पहुंचे हैं  कि जी-20 का सम्मेलन बुला सकते हैं, और विश्व में सबसे ज्यादा संख्या वाला सम्मेलन स्थल भी हम निर्मिंत कर चुके हैं।  प्रधानमंत्री की बातों से सतही तौर पर लगता है कि उनकी मुख्य चिंता देश के अंदर होने वाले संभावित खर्च को बाहर जाने से रोकना है।

उन्होंने उदाहरण भी दिया कि हमारे त्योहारों पर लोग जबरदस्त खरीदारी कर रहे हैं, और इससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। सच है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में उत्सवों में खरीदारी तथा धर्मस्थलों पर तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के रिकॉर्ड संख्या में आवागमन की बड़ी भूमिका है। इस तरह प्रधानमंत्री मोदी की अपील का महत्त्वपूर्ण पहलू अर्थव्यवस्था है पर यह यहीं तक सीमित नहीं है। भारतीय दृष्टि से इसके आयाम व्यापक और गहरे हैं।

भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में जीवन से जुड़े सारे संस्कारों और उत्सवों के साथ चार मूल पहलू निहित रहे हैं। पहला, जन्म से मृत्यु के पहले तक व्यक्ति के अंदर सतत मानवता का समग्र संस्कार सशक्त करते रहना; दूसरा, भावनात्मक रूप से समाज और परिवार के बीच एकता का सेतु बनाए रखना; तीसरा, समाज के सभी वगरे के लिए जीविकोपार्जन का स्थायी और निश्चित आधार बनाना; और चौथा,  राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना। आप देखेंगे कि भारत में जीवन का ऐसा कोई संस्कार नहीं है, जिसमें ये सारे पहलू समाहित न हों।

हमारे यहां विवाह के पीछे सोच भारत के बाहर के विवाह से बिल्कुल अलग थी। शादियों में दूर-दूर के रिश्तेदारों, गांव के लोगों के उपस्थित होने के बाद भावनात्मक लगाव और परस्पर सहकार, सहयोग का कैसा माहौल बनता था, इसके अलग से विवरण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि समाज के टूटने और संयुक्त परिवार की व्यवस्था खत्म होने के बावजूद उसकी झलक आज भी मिलती है।

गांधी जी के ग्राम स्वराज की कामना में यही सोच निहित थी। उनका मानना था कि एक दूसरे से जुड़े और आवश्यकताओं को पूरा करने वाले परस्पर सहकार वाले समाज में सभी के बीच इतना प्रेमपूर्ण संबंध होगा कि कठिन परिस्थितियों का भी मिलकर सफलतापूर्वक मुकाबला कर लेगा। लड़की के लिए योग्य वर की तलाश पर हमारे यहां प्राचीन ग्रंथों में जिस तरह के विवरण हैं, वो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होंगे। भारत में जाति व्यवस्था के अंदर विकृतियां बाद में पैदा हुई। ऊंच-नीच, छुआछूत का भेदभाव मजबूत हो जाने के बावजूद हर संस्कार में अनेक जातियों के पूजन और उनका सम्मान देने की परंपरा आज भी निर्वहन होती है।

आपके यहां कोई संस्कार या उत्सव है, तो वह आपकी चिंता का ही विषय नहीं है। समाज के हर व्यक्ति का इसके लिए काम बंटा था। उन कामों के अवशेष आज भी आपको कुछ गांवों में दिख जाते हैं। शादी हो या अन्य कोई संस्कार, निश्चित तिथि के महीना पूर्व से ही इसकी शुरुआत हो जाती थी जिसमें परिवार के अलावा समाज के अलग-अलग समुदाय के लोगों की भागीदारी होती थी। यही सामाजिक एकता अंतत: राष्ट्रीय एकता का आधार बनती है। यह भारत की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का आधार था जिससे यह लंबे समय तक विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बनी रही। ठीक है कि अब व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में आमूल बदलाव आ चुका है।

शिक्षा से लेकर जीविकोपार्जन आदि के कारण आम व्यवहार, सोच और सामाजिकता में परिवर्तन आ गया है किंतु यह भी सच है कि हम शादी-विवाह सहित जीवन के अपने संस्कारों का पालन परंपरागत पद्धति और कर्मकांडीय तरीकों से निर्वहन करने की कोशिश आज भी करते हैं। अगर हम विदेशों में शादी-विवाह या दूसरे संस्कार करते हैं, तो उनमें इन सबका शत-प्रतिशत पालन संभव नहीं और न ही हम अपने से जुड़े सभी लोगों को वहां ले जा सकते हैं।  

सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के बावजूद संस्कारों-उत्सवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले लोग आज भी हैं। हम अपने यहां शादी जैसे उत्सव आयोजित नहीं करते तो उनको भी उनके काम से वंचित करते हैं। थोड़ा गहराई से देखें तो भारत में ऐसे प्राचीन सांस्कृतिक और गौरव स्थल हैं, जहां शादी-विवाह सहित संस्कारों और उत्सवों की  परंपरागत व्यवस्थाओं को आज के अनुरूप विकसित किया जा सकता है। वैसे भी बहुत सारी चीजों की हमें नई जगह पर व्यवस्था करनी पड़ती हैं, जो आसानी से इन्हीं कर्मकांडों के लिए विकसित जगह पर उपलब्ध होती हैं।

भारत में धीरे-धीरे ऐसे संस्कार स्थलों को फिर से उनके चरित्र के अनुरूप विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं, और उनके परिणाम भी दिखे हैं। एक समय हमारे देश का पढ़ा-लिखा वर्ग धर्मस्थलों की बजाय दूसरे पर्यटन स्थलों की ओर भागता था वहीं धीरे-धीरे अब अपने पुराने धर्मस्थलों की ओर मुड़ा है यानी भारत को भारत के संस्कार के अनुरूप विकसित करने की शुरुआत हो चुकी है। इसमें भारतीय होने के नाते हम सबका दायित्व है कि अपने स्तर पर यथासंभव योगदान करें।

वाराणसी से लेकर केदारनाथ, बद्रीनाथ, उज्जैन आदि धर्मस्थानों पर आने वालों की  रिकार्ड संख्या है जिनमें विदेशी भी हैं, तो वह हमारे लिए अरु चिकर और अलाभकर नहीं होगा। इस सोच को ध्यान में रखें तो विदेशों में संस्कार, उत्सव या जीवन से जुड़े प्रमुख दिवस मनाने की भावना पर प्रश्न चिह्न स्वयं ही खड़ा होगा। फिर हम अपने यहां के लोगों को रोजगार और काम देकर अपनी अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करेंगे। प्रधानमंत्री की अपील को उसके व्यापक आयाम के संदर्भ में देखें तो उसकी आवश्यकता, तार्किकता, व्यवहारिकता एवं दूरगामी प्रभावों का पहलू स्पष्ट हो जाता है।

अवधेश कुमार


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