‘INDIA' : नासमझी भरे बयान और गठबंधन
अपने गठन के समय जिस सकारात्मक एकजुटता का संदेश विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने दिया था, विधानसभा चुनावों के दौरान उसके अंतर्विरोध जिस तरह सामने आए हैं, वे गठबंधन के लिए चिंता का विषय होने चाहिए।
‘INDIA' : नासमझी भरे बयान और गठबंधन |
गठबंधन के निर्माण के बाद ही माकपा ने एक तरह से साफ कर दिया था कि केरल और प. बंगाल में वह स्वतंत्र रूप से लड़ना चाहेगी और उन राज्यों की स्थिति को देखते हुए अंदेशा पहले से था कि केरल में माकपा और कांग्रेस तथा प. बंगाल में माकपा और तृणमूल कांग्रेस में आखिर कैसे कोई समझौता हो सकता है?
वजह यह कि इन दोनों राज्यों में इन दलों को अपने-अपने वर्चस्व और अस्तित्व की चिंता रहेगी। माकपा का केरल और प. बंगाल मुख्य आधार क्षेत्र रहा है, और प. बंगाल तृणमूल कांग्रेस का तो देर-सबेर इन अंतर्विरोधों से सामना होना ही था लेकिन मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में जिस तरह सपा और कांग्रेस के बीच बयानबाजी हुई, और अभी हो ही रही है, वह इन दोनों दलों के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। दरअसल, मध्य प्रदेश में राज्यस्तरीय नेताओं ने सपा पर जिस तरह की टिप्पणियां कीं वे कतई अपेक्षित नहीं थीं।
वहां पिछले विधानसभा चुनाव में सपा ने पांच सीटें जीती थीं तो रणनीतिक सूझबूझ यही थी कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व और अखिलेश यादव के बीच चुनाव घोषणा के साथ ही उन सीटों को लेकर बातचीत हो जाती और वे सीटें सपा को दे दी जातीं। लेकिन कांग्रेस की तरफ से बयानबाजी ने सपा नेतृत्व को उत्तेजित किया जिससे तल्ख माहौल बना। बाद में राहुल गांधी के अखिलेश यादव को भेजे संदेश के बाद लगा कि दोनों के बीच समझौते का शायद कोई रास्ता निकल आए पर इस दिशा में कांग्रेस की तरफ से कोई ठोस पहल न होने से अखिलेश की तरफ से कांग्रेस पर सीधे हमला बोला जाने लगा है।
दरअसल, कांग्रेस और सपा, दोनों ही तमाम ऊहापोह से भरी ढुलमुल वैचारिकी वाले मध्यमार्गी दल हैं, और अल्पसंख्यक व पिछड़ा वर्ग पर बदली हुई परिस्थितियों में दोनों की नजर रहेगी। मंडल के बाद कांग्रेस का पिछले तीन दशक में जिस तरह उत्तर प्रदेश में कोई ठोस आधार वोट बैंक नहीं रह गया था, राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के बाद अल्पसंख्यकों का अपनी तरफ इधर तेजी से झुकाव को देखते हुए वह पिछड़ा वर्ग को भी पार्टी से जोड़ने के फार्मूले पर काम कर रही है। यादव के साथ ही मुस्लिम और पिछड़ों की अन्य जातियों के वोट बैंक, जो पहले सपा के साथ जाता रहा है और जिसमें से पिछले चुनावों में यादवों से इतर पिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ चला गया था, पर अब जातीय जनगणना के जरिए कांग्रेस की भी नजर है, और यह सब भविष्य में सपा के लिए चिंता का विषय होगा ही।
लेकिन फिलहाल देश के जो हालात हैं, उसमें विपक्षी दल के नाते इन दोनों मध्यमार्गी दलों को सोचना होगा कि एक सर्वसत्तावादी पार्टी से कैसे निबटें जिसने हर तरह से लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका को या तो मृत बना दिया है, या फिर उनका एक तरह से हरण ही कर लिया है। अपने दलगत स्वार्थ के साथ ही किसी विपक्षी पार्टी की भूमिका और जवाबदेही लोकतंत्र व जनता के प्रति सबसे अहम होती है अन्यथा आप अप्रासंगिक बना दिए जाने को अभिशप्त होते हैं। ऐसे में जिस लोकतंत्र को बचाने के संकल्प और आह्वान के साथ इंडिया का गठन हुआ था उस पर सभी दलों को ध्यान देना होगा और सबसे बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि अंतर्विरोधों को हल करने की दिशा में समन्यव के सिद्धांत को अमलीजामा पहनाने के लिए व्यावहारिक स्तर पर काम करे।
यूपी में आज के हालात में भाजपा के बरक्स सपा सबसे बड़ी पार्टी है। इसलिए कांग्रेस को सपा को साथ लेकर चलना होगा। अखिलेश की भी जिम्मेदारी है कि प्रतिक्रियात्मक रवैये की बजाय परिपक्वता का परिचय दें और मध्य प्रदेश में मित्रतापूर्ण संघर्ष के बीच सार्वजनिक बयानबाजी की बजाय कांग्रेस आलाकमान को समन्वय के लिए बाध्य करें। तीन दिन पहले नीतीश कुमार ने भी कांग्रेस पर जिस तरह की टिप्पणी की है, वह नीतीश जैसे व्यक्ति से कतई अपेक्षित नहीं है। अगर कांग्रेस विधानसभा चुनावों में व्यस्त है तो यह स्वाभाविक है। उस पर नीतीश की टिप्पणी हैरान करने वाली और अप्रासंगिक कही जाएगी।
यह तो इंडिया के नेताओं ने अपने गठन के साथ ही कहा था कि उनके बीच अंतर्विरोध हैं, तो उन अंतर्विरोधों के साथ इस दुष्कर व्यावहारिक एका के रास्ते भी उन्हीं को तलाशने हैं क्योंकि अखिलेश, नीतीश और कांग्रेस के कुछ राज्यस्तरीय नेताओं के नासमझी भरे बयान गठबंधन धर्म और धैर्य के खिलाफ जाते हैं। कांग्रेस नेतृत्व की तो हर हाल में इस सब में सबसे अहम भूमिका है, लेकिन थोड़े-थोड़े त्याग की भूमिका तो सभी की है। मित्रतापूर्ण संघर्ष में बयानों की भी एक लक्ष्मणरेखा होती है, और होनी भी चाहिए जिसे इंडिया के नेताओं को खुद तय करना होगा।
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