हिन्दी दिवस : बढ़ता हिन्दी का मान

Last Updated 14 Sep 2023 01:30:07 PM IST

हिन्दी भारत के अधिकांश लोगों द्वारा जानने-बोलने-समझने के कारण यह न केवल भारत की संपर्क भाषा है, बल्कि पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक यह सभी के संप्रेषण की माध्यम भाषा भी है।


हिन्दी दिवस : बढ़ता हिन्दी का मान

गुलामी की बेड़ियों में जकड़े भारत ने जब आजादी के सपने देखने शुरू किए तो आजादी के दीवानों के बीच चर्चा का विषय था कि आजाद भारत की संपर्क और राजभाषा क्या होगी? लंबे विचार-विमर्श के बाद लगभग स्वर बना कि स्वाधीन भारत की संपर्क भाषा हिन्दी ही हो सकती है। इस विचार को आगे बढ़ाने एवं संपूर्ण देश को जागरूक करने में गैर-हिन्दी भाषियों का भी उल्लेखनीय योगदान रहा। ‘हिन्दी दिवस’ के बहाने आज गैर-हिन्दी प्रांत के हिन्दी प्रचार-प्रसार आंदोलन के उन विचारकों-चिंतकों का स्मरण किया जाना जरूरी है, जिन्होंने राष्ट्र-भावना से प्रेरित होकर हिन्दी को उसका वास्तविक स्थान दिलाने में अपनी प्रखर आवाज बुलंद की और हिन्दी को राष्ट्रीय एकता के संवाहक के रूप में स्वीकार किया।

तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के संस्थापक यूवी कृष्ण नायर ने अपने घर में हिन्दी का प्रथम प्रचारक विद्यालय खोला। आंध्र प्रदेश के पी. वेंकट राव, मोटूरी सत्यनारायण, जंद्याल शिव शास्त्री जैसे हिन्दी सेवियों हिन्दी सीखकर अपने प्रदेश में हिन्दी का प्रचार किया। सभाओं, अधिवेशनों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लोगों को हिन्दी सीखने हेतु प्रेरित किया। इससे अनुकूल वातावरण का निर्माण हुआ। हिन्दी व्याकरण की पुस्तकें लिखी गई। चेन्नई में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजगोपालाचारी ने हाई स्कूल में हिन्दी अनिवार्य कर दी। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे विद्यालयों-महाविद्यालयों में हिन्दी पठन-पाठन आरंभ हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात ‘दक्षिण भारत प्रचार सभा’ में शोध-संस्थान की स्थापना के साथ ही विविद्यालयों के हिन्दी विभागों में भी शोध-अनुसंधान कार्य आरंभ हुआ। केरल में एमके दामोदर अण्णी, कर्नाटक में प्रो. नागप्पा और र्हटकिर पांडे जैसे हिन्दी-प्रेमियों ने हिन्दी प्रचार-कार्य को आगे बढ़ाया। स्वामी सत्यदेव ने हिन्दी सीखने हेतु ‘हिन्दी की पहली पुस्तक’ लिखी जो दक्षिण के हिन्दी सीखने वालों के लिए बहुत उपयुक्त थी। 1922 तक हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य विस्तृत हो गया। मोटूरी सत्यनारायण की सहायता से नेल्लूर में आंध्र प्रदेश की शाखा खुली। तमिलनाडु की शाखा तिरुचिरापल्ली में अवध नंदन के संचालन में आरंभ हुई। केरल में 1932  और कर्नाटक में 1935 में शाखाएं प्रारंभ हुई।

दक्षिण के अतिरिक्त अन्य गैर-हिन्दीभाषी राज्यों में हिन्दी के प्रयोग बढ़े। महात्मा गांधी गुजराती थे, लेकिन भारत लौटकर उन्होंने हिन्दी में ही अपनी बात रखना शुरू किया। 1918 के इंदौर के आठवें हिन्दी सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर दिया। दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने 1918 में मद्रास में ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा’ की स्थापना की। यह  प्रमुख हिन्दी सेवी संस्था है जो दक्षिणी राज्यों में भारत के स्वतंत्र होने के पहले से हिन्दी के प्रचार-प्रसार में संलग्न थी। इसका मुख्य ध्येय था ‘एक राष्ट्रभाषा हिन्दी हो-एक हृदय हो भारत जननी’। स्वामी दयानंद सरस्वती भी गुजराती थे। संस्कृत के विद्वान थे। फिर भी आर्य समाज के विस्तार, प्रचार-प्रसार का माध्यम हिन्दी को बनाया। हिन्दी के महत्त्व को समझते हुए उन्होंने देश को एकसूत्र में बांधने का संकल्प लिया और अपने प्रमुख ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिन्दी में की, चारों वेदों का भाष्य हिन्दी में लिखा।

हिन्दी पत्रकारिता में गैर-हिन्दी भाषी बाबूराव विष्णु पराडकर की अपनी पहचान है। वे कलकत्ता में हिन्दी और मराठी के शिक्षक थे। पराडकर जी अपने मामा की पुस्तक ‘देशेर कथा’ का हिन्दी में अनुवाद करके चर्चित हो गए। उन्होंने कोलकाता से ही ‘भारतमित्र’ नामक हिन्दी पत्र निकाला। पराडकर जी ने हिन्दी पत्रकारिता को भाषाई अखबार से ऊपर उठाकर राष्ट्रीय पहचान दिलाई और हिन्दी की पत्रकारिता की भाषा का गठन किया। भारतीय विद्या भवन के संस्थापक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का हिन्दी प्रेम जगजाहिर है। उनके मार्गदशर्न में मुंबई से ‘नवनीत’ का प्रकाशन शुरू हुआ। साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में इस पत्रिका का उल्लेखनीय योगदान है। मुंशी जी ने ग्रंथों की रचना हिन्दी में करके हिन्दी के प्रति अपनी आत्मीयता प्रदर्शित की। गुजराती भाषी मुंशी जी ने महाभारत के पात्रों योगेर श्रीकृष्ण, कुंती, युधिष्ठिर, पितामह भीष्म, द्रौपदी इत्यादि का जीवन-चरित्र लिखकर हिन्दी की महती सेवा की। इन महानुभावों के अतिरिक्त अनेक विद्वानों ने अपनी मातृभाषा के साथ ही हिन्दी की लगन से सेवा की।

विनोबा भावे ने वर्धा में हिन्दी विविद्यालय की स्थापना का बीजारोपण महात्मा गांधी के इच्छानुसार किया। बंगाल के राजाराम मोहन राय और केशवचंद्र सेन ने अपने समय में हिन्दी के उत्थान में योगदान किया था। चेन्नई से प्रकाशित ‘चंदामामा’ के हिन्दी संस्करण के पूर्व संपादक डॉ. बालशौरी रेड्डी आजीवन हिन्दी की सेवा करते रहे। तमिलनाडु में विरोध होने के बावजूद उन्होंने हिन्दी पत्रिका का न केवल संपादन जारी रखा, बल्कि हिन्दी की शुद्धता-उत्कृष्टता से समझौता नहीं किया। हिन्दी का पहला अखबार ‘उदंत मार्तड’ भी 1826 में हिन्दी क्षेत्र से बाहर कोलकाता से प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘बंग’ भी 1829 में वहीं से निकला।

गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी विकास की संस्थाओं; फोर्ट विलियम कॉलेज, टेक्स्ट बुक सोसायटी, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा, गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद, हिन्दुस्तानी प्रचार सभा वर्धा, हिन्दी विद्यापीठ बंबई, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा पुणो, मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद् बेंगलुरू आदि की भी हिन्दी के विकास में उल्लेखनीय भूमिका रही है। यह रोचक है कि इनमें कार्यरत अधिकांश लेखक-साहित्यकार गैर-हिन्दी भाषी ही थे। इसके साथ ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, सनातन धर्म सभा, प्रार्थना सभा, थियोसॉफिकल सोसायटी, रामकृष्ण मिशन, राधास्वामी संप्रदाय आदि संस्थाओं ने भी हिन्दी के विकास को रूप एवं आकार दिया। हिन्दी समाज अपने लेखकों सूर, तुलसी, कबीर, मीरा को जितना सम्मान देता है, उतनी ही श्रद्धा और सम्मान गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों के हिन्दी रचनाकारों  रहीम, रसखान, नामदेव, ज्ञानेर, गुरु नानक, नरसी मेहता, चैतन्य महाप्रभु आदि को भी देता रहा है। गैर-हिन्दी भाषियों ने हिंदी के विकास में जो मजबूत नींव तैयार की, विव्यापी हिन्दी की यात्रा को आज उससे गति मिली है।

डॉ. धर्मेंद्र प्रताप सिंह


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