सामयिक : नकली दवा का असली खेल

Last Updated 13 Sep 2023 01:13:36 PM IST

एक तरफ हम विश्व मंच पर दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों और संगठनों के साथ बराबरी में हमेशा आगे निकलने की सोचते हैं, कोशिशें भी करते हैं, और कामयाब भी होते हैं।


सामयिक : नकली दवा का असली खेल

यकीनन, अच्छा लगता है। लगना भी चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि कल जिनका हम फक्र से स्वागत कर रहे थे, वो ही दुनिया के सामने हमारी ऐसी बदसूरत और इंसानियत को शर्मसार करने वाली पोल खोलें जिसका हम जवाब भी न दे पाएं। उल्टा हां में हां मिलाएं और सरकारी फरमान का घोड़ा दौड़ा कर छुट्टी पा लें? यकीनन, सुनने में बुरा लगता है लेकिन सच्चाई यही है।

एक ऐसी सच्चाई कि जिसको जानते हुए भी हम अनजान हैं, या कहें कि अनजान बने रहने को मजबूर हैं। दुखद यह भी कि ऐसे मामलों को सख्ती से रोकने के लिए देश में तमाम कानूनों के बावजूद इनका रु कना तो दूर बढ़ता ही जा रहा है। शायद आप समझ गए होंगे। चंद दिनों पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भारत में बिक रही कैंसर और लीवर की नकली दवाओं का सात समंदर पार से जो खुलासा किया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। डब्ल्यूएचओ ने भारत में बिक रहीं कैंसर और लीवर से संबंधित कुछ नकली दवाओं को नाम सहित उजागर करते हुए गंभीर चेतावनी जारी की है। ऐसी नकली दवाओं के असली निर्माताओं का दावा है कि भारत में बिक रहे उनके ब्रान्ड नकली हैं। सवाल यहीं से पैदा होता है कि क्या ये दवाएं बाहर से आई या भारत में ही बनाई गई? यकीनन, इसके पीछे किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय गिरोह का हाथ होगा जिसके संपर्क में भारत के दवा माफिया होंगे।

हैरानी वाली और अफसोसनाक बात यह है कि भारत में बैठे  सरकारी अमले, जिसका पूरे देश में जबरदस्त नेटवर्क है, हर जिले में अधिकारी तैनात हैं, जिसको दवाओं के निर्माण, बिक्री बनाने के घटक तथा एक्सपायरी डेट सहित उन सभी रासायनिक प्रक्रियाओं का ज्ञान होता है जिससे असली-नकली का फर्क तुरंत पता चल जाए, के रहते ये दवाएं बड़ी मात्रा में स्टॉकिस्टों से लेकर भारतीय सप्लाई और चेन श्रृंखला के जरिए रिटेलरों या सीधे ऑनलाइन माध्यम से लोगों तक धड़ल्ले से बेरोक-टोक पहुंचती रहीं और पूरा का पूरा सरकारी तंत्र बेसुध रहा? इससे भी ज्यादा शर्मनाक यह है कि भारत के औषधि महानियंत्रक कार्यालय यानी ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को सरकारी तौर पर पता ही नहीं चला कि देश भर में सरेआम कैंसर और लीवर के नकली इंजेक्शन धड़ल्ले से और खुले आम बिक रहे हैं। जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सात समंदर पार से चेताया तब सबको होश आया। यह तो वैसा ही हुआ जैसे कोरोना के नकली इंजेक्शन रेमेडिसविर ने न जाने कितनों को लील लिया। अब कैसे डीसीजीआई भी मानते हैं कि देश में लीवर की दवा डिफिटेलियो और कैंसर रोग में इस्तेमाल होने वाला इंजेक्शन एडसेट्रिस के आठ अलग-अलग नाम और प्रकार के नकली उत्पाद भारतीय बाजार में मौजूद हैं। क्या सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ड्रग कंट्रोलर को इन दवाओं पर नजर रखने की हिदायत से यह सब रुक जाएगा? तमाम एजेंसियों, खुफिया तंत्र के होते हुए यह पहले क्यों नहीं पता था? पता था तो चुप्पी क्यों थी?

दरअसल, दवा निर्माण और बिक्री जबरदस्त मुनाफे का कारोबार है। इसे जेनरिक और ब्रान्डेड दवाओं के अंतर से आसानी से समझा जा सकता है। दोनों की कीमतों में 50 से 70 प्रतिशत का अंतर बहुत बड़ी कहानी है। जाहिर है कि कल्पना तक नहीं की जा सकती कि बहुत बड़ी कमाई के इस कारोबार की जड़ें कहां-कहां तक फैली हो सकती हैं? कैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक चेतावनी के बाद पूरे स्कैम की परतें प्याज के छिलकों की तरह उतरने लगीं? कैसे जिम्मेदार महकमे के मुखिया ढिठाई से स्वीकारने लगे जिसमें साजिश की बू आती है। निश्चित रूप से कैंसर और लीवर की ही नकली दवाएं देश में नहीं बिक रही होंगी। अक्सर नकली दवाओं के बारे में कुछ न कुछ पढ़ने, सुनने और देखने को मिलता है। जब दवा तस्कर और नशे के सौदागर देश में नशे का सामान सप्लाई करते हैं, तो अक्सर पकड़े जाते हैं, तो फिर नकली दवाएं कैसे नहीं पहचानी जा पातीं? किन हाथों से होकर मरीजों तक पहुंच जाती हैं? क्या किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी? हाल में अमेरिकन कैंसर सोसायटी के जर्नल ग्लोबल आंकोलॉजी में प्रकाशित आंकड़े, जो 2000- 2019 के हैं, काफी चिंताजनक हैं।

इस दौरान भारत में कैंसर से 1 करोड़ 28 लाख से भी ज्यादा लोगों मौत हुई। वहीं भारत सरकार के नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम यानी एनसीआरपी के केवल दो ही वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि 2020-22 के दौरान देश में 23 लाख 67 हजार 990 लोगों की मौत कैंसर के किसी न किसी रूप से हुई। इससे भी ज्यादा दुखद यह कि कैंसर को अधिसूचित बीमारी घोषित करने की संसदीय सिफारिशें बीते 10 महीनों से फाइलों में धूल खा रही हैं। वहीं भारत में लीवर रोगियों का कोई सही डेटाबेस नहीं है, जो कई तरह से जान का दुश्मन बना हुआ है। अनुमानत: 2 लाख 70 हजार लोग लीवर के तमाम रोगों से जिंदगी की जंग हार जाते हैं। निश्चित रूप से ये महज आंकड़े हैं, सच्चाई इससे भी खतरनाक होगी। नकली दवाओं से हुई मौतों का कोई आंकड़ा है ही नहीं। सवाल अनगिनत हैं। बड़े-बड़े अस्पतालों को भी कैसे नहीं सूझा और दवाओं पर शक क्यों नहीं हुआ? मरीज को जीवन देने वाले भगवान जैसे चिकित्सकों तक को समझ नहीं आया कि दवा असर कर रही है, या उल्टा रिएक्शन?

ऐसे ही सवाल के गर्त में नकली दवाओं का वो दर्द भी छिपा है, जिसने न जाने कितने घरों के दीपक बुझा दिए। कितनों को अनाथ और बेघर कर दिया। घर, खेत, जेवरात गिरवी रख या औने-पौने दामों में बेचकर लाखों रुपये फूंक कर भी जिनके नसीब में अपनों की मौतें आई। क्या उनके दर्द महज नकली दवा के प्रसार-बिक्री रोकने के फरमानों से भर सकते हैं? ऐसे फरमानों से अब तक कितनों पर गाज गिरी? विडंबना है कि सख्त दिखने वाले कानून भी नक्कालों के सामने स्याही से छपे मजमून से ज्यादा कुछ नहीं होते। सच भी है क्योंकि जहां हर चाल को मात देने वाला संगठित माफिया तंत्र हो वहां सरकारी तंत्र नतमस्तक या लाचार ही नजर आएगा। काश! नकली दवाओं पर इंसानियत की खातिर असली रोक लग पाती।

ऋतुपर्ण दवे


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