जलवायु बदलाव : पक्षियों के अस्तित्व पर संकट

Last Updated 09 Sep 2023 01:41:55 PM IST

भारत में पक्षियों की स्थिति-2023’ रिपोर्ट के नतीजे नभचरों के लिए ही नहीं, धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए भी खतरे की घंटी हैं। बीते 25 सालों के दौरान हमारी पक्षी विविधता पर बड़ा हमला हुआ है, कई प्रजाति लुप्त हो गई तो बहुत की संख्या नगण्य रह गई।


जलवायु बदलाव : पक्षियों के अस्तित्व पर संकट

पक्षियों पर मंडरा रहा यह खतरा शिकार से कहीं ज्यादा विकास की नई अवधारणा के कारण उपजा है। एक तरफ बदलते मौसम ने पक्षियों के प्रजनन, पलायन और पर्यावास पर विषम असर डाला है, तो अधिक फसल के लालच में खेतों में डाले गए कीटनाशक, विकास के नाम पर उजाड़े गए उनके पारंपरिक जंगल, नैसर्गिक परिवेश  की कमी से उनके स्वभाव में परिवर्तन आ रहा है।  ऐसे अनेक कारण हैं, जिनके चलते हमारे गली-आंगन में पंछियों की चहचहाहट कम हो रही है।

विदित हो कि पंछियों के अध्ययन के लिए कई हजार पक्षी वैज्ञानिकों और प्रकृति प्रेमियों द्वारा लगभग एक करोड़ आकलन के आधार पर इस रिपोर्ट को तैयार किया गया है। इसके लिए कोई 942 प्रजातियों के पक्षियों का अवलोकन किया गया। इनमें से 299 के बारे में बहुत कम आंकड़े मिल पाए। शेष 643 प्रजातियों के आंकड़ों से जानकारी मिली कि 64 किस्म की चिड़ियां बहुत तेजी से कम हो रही हैं, जबकि अन्य 78 किस्म की संख्या घट रही है। आंकड़े बताते हैं कि 189 प्रजाति के पक्षी न घट रहे हैं, न बढ़ रहे हैं, लेकिन वे जल्द ही संकट में आ सकते हैं।  इस अध्ययन में पाया गया कि रैपटर्स अर्थात झपट्टा मार कर शिकार करने वाले नभचर तेजी से कम हो रहे हैं। इनमें  बाज, चील, उल्लू आदि आते हैं। समुद्री तट पर मिलने वाले पक्षी और बत्तखों की संख्या भी भयावह तरीके से घट रही है। वैसे भी नदी, तालाब जैसी जल निधियों के किनारे रहने वाले पक्षियों की संख्या घटी है। सुखद है लेकिन आश्चर्यजनक भी है कि एशियाई कोयल की संख्या बढ़ रही है परंतु नीलकंठ सहित 14 ऐसे पक्षी हैं, जिनको घटती संख्या के चलते उन्हें आईयूसीएन की रेड लिस्ट में दर्ज करने की अनुशंसा की गई है। रेड लिस्ट में  संकटग्रस्त या लुप्तप्राय जीवों को रखा जाता है। जंगल में रहने वाले पक्षी जैसे कठफोड़वा, सुग्गा या तोता, मैना, सातभाई की कई प्रजातियों  आदि की संख्या घटने को तेजी से घने जंगलों में कमी आने से जोड़ा जा रहा है। खेतों में पाए जाने वाले बटेर, लवा का कम होना जाहिर है कि फसल के जहरीले होने के कारण है।

समुद्र तट पर पाए जाने वाले प्लोवर या चिखली, पानी में मिलने वाली गंगा चील, बत्तख की संख्या बहुत गति से कम हो रही है। इसका मुख्य कारण समुद्र और तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण और अत्यधिक औद्योगिक और परिवहन गतिविधियों का होना है। घने जंगलों के लिए मशहूर पूर्वोत्तर राज्यों में पक्षियों पर संकट चौंकाने वाला है। यहां 66 पक्षी-बिरादरी लगभग समाप्तप्राय हैं। इनमें 23 अरुणाचल प्रदेश में, 22 असम, सात मणिपुर, तीन मेघालय, चार मिजोरम, पांच नागालैंड और दो बिरादरी के पक्षी त्रिपुरा में ग्रेट इंडियन बस्र्टड या गोडावण को तो अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने संकटग्रस्त पक्षियों की सूची में शामिल किया है। 2011 में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में इनकी संख्या 250 थी जो 2018 तक 150 रह गई। भारत में इंडियन बस्र्टड की बड़ी संख्या राजस्थान में मिलती है। चूंकि यह शुष्क क्षेत्र का पक्षी है सो जैसे-जैसे रेगिस्तानी इलाकों में सिंचाई का विस्तार हुआ, इसका इलाका सिमटता गया। फिर इनके प्राकृतिक पर्यावासों पर सड़क, कारखाने, बंजर को हरियाली में बदलने के  सरकारी प्रयोग शुरू हुए, नतीजा हुआ कि इस पक्षी को अंडे देने को भी जगह नहीं बची। फिर इसका शिकार तो हुआ ही। जंगल में हाई टेंशन बिजली लाइन में फंस कर भी ये मारे गए।

कॉर्बेट फाउंडेशन ने ऐसे कई मामलों का दस्तावेजीकरण किया है, जहां बस्र्टड निवास और उनके प्रवासी मागरे में बिजली की लाइनें बनाई गई हैं। भारी वजन और घूमने के लिए सीमित क्षेत्र होने के कारण बस्र्टड को इन विद्युत लाइनों से बचने में परेशानी होती है और अक्सर वे बिजली का शिकार हो जाते हैं। यह केवल एक बानगी है। इसी तरह अंडमान टली या कलहंस या चंबल नदी के पानी में चतुराई से शिकार करने वाला हिमालयी पक्षी इंडियन स्कीमर, या फिर नारकोंडम का धनेश; ये सभी पक्षी समाज में फैली भ्रांतियों और अंधविश्वास के चलते शिकारियों के हाथों मारे जा रहे हैं। पालघाट के घने जंगलों में हर संभव ऊंचाई पर रहने के लिए मशहूर नीलगिरि ब्ल्यूू रोबिन या शोलाकिली पक्षी की संख्या जिस तेजी से घट रही है, उससे साफ है कि अगले दशक में यह केवल किताबों  में दर्ज रह जाएगा। बदलते मौसम के कारण एक तरफ साल दर साल ठंड के दिनों में आने वाले प्रवासी पक्षी कम हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ बढ़ती गर्मी के चलते कई पंछी ऊंचाई वाले स्थानों पर पलायन कर रहे हैं। समझना होगा कि जब तक पंक्षी हैं तब तक यह धरती इंसानों के रहने को मुफीद है-यह धर्म भी है, दर्शन भी और विज्ञान भी।

पंकज चतुर्वेदी


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