श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : संपूर्णता के प्रतीक

Last Updated 06 Sep 2023 01:24:45 PM IST

भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और राजनीति की अद्वितीयता की वजह से भारत विश्व गुरु जैसे उच्चतम प्रतिष्ठा पर सदियों से सदियों तक प्रतिष्ठित रहा है।




श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, संपूर्णता के प्रतीक

मानवीय मेधा, मूल्य, मानवीय सुद्गुण और शक्ति ने यदि विश्व को अपना लोहा मनवाया तो उसके आधार में आर्यों की ऐसी नीतिवान, गुणवान, रहस्यवादी और तपस्वनी शक्तियां रही हैं जिन्होंने अपनी मौजूदगी व कार्यों से विश्व मानवता को प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसको नई दिशा देकर चिंतन और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अप्रतिम भी बनाया। ऐसी ही शक्ति के प्रकाशपुंज और योगी थे भगवान श्रीकृष्ण चंद्र।

योगेश्ववर श्रीकृष्ण का जीवन अद्वितीय है। वे प्रबंधन, नवनिर्माण कर्ता और मार्गदर्शन करने वाले महामानव हैं। उन्हें अद्वितीय इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने मानवता की रक्षा और धर्म की स्थापना में ऐसे कार्य किए जो उनके पहले द्वापर युग में किसी ने नहीं किया था। वे ऐसे मनीषी हैं जिनका जीवन मानवीय सद्गुणों और धर्म की रक्षा और स्थापना कर अधर्म और अधर्मियों का नाश करने से जुड़ा है। वे सबका हित करने वाले हैं। वे परमहितैषी महाराज हैं। वे सब को साथ लेकर चलते हैं और विपरीत बुद्धि वालों को अपनी नीति और स्वभाव से अपने में समाहित कर लेते हैं। अध्यात्म उनका निराला है। वे उनका भी उद्धार करते हैं जो बराबर असुर नीति के पोषक रहे। क्योंकि उनका कार्य धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करना था।

गीता में वे कहते हैं-जो व्यक्ति डर से रहित, दिल से सदा साफ, तत्वज्ञान के लिए जिज्ञासु, योग-ध्यान में समता से युक्त, सात्विकता के गुणों को धारण करता है, अपने बड़ों की पूजा करता है, वह सच्चे मायने में धर्म को जानता है। वे कहते हैं, जीवन में धर्म उतना ही जरूरी जितना की धन-दौलत। इसी तरह शुभकामना करते रहना उतना ही जरूरी है जितनी की आंनद के लिए परमात्मा की भक्ति। गीता में भगवान कहते हैं, हमें अपनी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों पर नजर रखनी चाहिए। अच्छाई उस पीपल के पेड़ की तरह हैं जो खुद को शीतल करता है और राहगीर को भी। श्रीष्ण वेद, शास्त्र और आगम-निगम सभी के वे ज्ञाता हैं। इसलिए उनके जीवन में किसी भी मोड़ पर फिसलन नहीं है। वेद-शास्त्र में आस्थ रखता है, स्वधर्म का पालन करता है और दुख सहने और सुख के लिए अधर्म का रास्ता नहीं अपनाता, उसका इहलोक भी सुखमय होता है और परलोक भी। जिससे खुद का हित हो और सभी प्राणियों का भी, ऐसा कार्य, गुण व स्वभाव का वाला व्यक्ति पूज्य है। श्रीकृष्ण ने अपने जीवन से इस बात को साबित कर दिया था। मनुष्य के कर्तव्य (धर्म), कार्य, स्वभाव, शक्ति, सद्गण, विचार, सृजन और प्रबंधन सभी के आदर्श और नीति-निर्माता श्रीकृष्ण हैं। यही वजह है पांच हजार साल गुजर जाने के बावजूद उनके गुण, कर्म, स्वभाव, शक्ति, मूल्य, अध्यात्म और धर्म की स्थापना की धारा दुनिया भर में स्वीकार है।

गौरतलब है सद्गुण वर्ण कुल, परिवार, समाज और धन-दौलत को सुशोभित करते हैं। वहीं पर, सद्गुणहीन व्यक्ति अच्छे कुल, परिवार और समाज में पैदा होकर भी पतन को प्राप्त हो जाता है। श्रीकृष्ण ने पतितों को नीति द्वारा समझाया और धर्म-कर्तव्य के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा और साहस बंधाया। वे गीता के जरिए अर्जुन को महज धर्म की स्थापना के लिए अपना परम कर्तव्य पालन का उपदेश व संदेश ही नहीं देते बल्कि मोह, भ्रम, द्वंद्व और मन की अस्थिरता से पैदा होने वाली समस्याओं, संकटों और दुर्बलताओं को दूर करने के लिए शुभ संकल्प व कर्म वीरता को अपनाने के लिए प्रेरित भी करते हैं। उन्होंने संसार के हर व्यक्ति को सच्चे मायने में मानव बनने के लिए जरूरी मूल्यों का आत्मसात करने पर बल दिया। वे हर व्यक्ति के जीवन को उत्तम मार्ग का अनुगामी बनाने की बात करते हैं। दुगरुणी स्वभाव का व्यक्ति पानी के स्वभाव का होता है यानी हमेशा नीचे की ओर ही जाने की प्रवृत्ति उसकी होती है और सद्गुणी व्यक्ति का स्वभाव अग्नि की तरह होता है। जो महज अपने स्वार्थ और स्वाद में बने रहते हैं वे न तो अपना हित कर पाते हैं और न तो दूसरों का। श्रीकृष्ण कहते हैं, मन को निर्मल बनाना उतना ही जरूरी है जितना की सहज। साथ में प्राणी मात्र के हित की कामना करना मनुष्य का पावन धर्म और कर्म है।

महाभारत में उन्होंने सत्य, शुभ, त्यागी, अपरिग्रही, मैत्री स्वभाव वाले पांडव का साथ ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें प्रेरणा और धर्म की शक्ति भी देते रहे। श्रीकृष्ण उपदेश करते हैं कि इंसान होने के बावजूद हम अपनी बुद्धि, विवेक, शक्ति और क्षमता के संबंध में कभी निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं करते, इसलिए न तो धर्म की प्राप्ति कर पाते हैं और न तो अर्थ और मोक्ष का ही। जहां धर्म और धैर्य साथ-साथ होते हैं, उनकी सफलता सुनिश्चित होती ही है। इसलिए पांडव युद्ध में ही विजयी नहीं हुए बल्कि स्वर्ग के राज्य में भी विजय पताका फहराई। दीनहीनता की वजह किस्मत नहीं बल्कि अपने वे कर्म हैं जो नकारात्मक, अशुभ संकल्प और नियम-मर्यादा से दूर होकर किए जाते हैं। उनका योग अंदर व बाहर दोनों से पूर्ण व सकारात्मक है। उनमें भगवत्ता की सोलह कलाएं हैं जो इहलोक और परलोक दोनों को सफल करती हैं। श्रीकृष्ण स्वभाव में सहज, शांत और पवित्र रहने की बात करते हैं। श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को सौ बार क्षमाकर समाज को यह संदेश दिया कि क्षमा करना जहां एक खासियत है वहीं पर सीमा से बाहर जाकर क्षमा करना कायरता भी है। इसलिए कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि परमात्मा ने हममें कोई गुण या खासियत दी ही नहीं है।

यह कहें कि सारी की सारी अच्छाइयां केवल मुझमें ही हैं, यह भी उचित नहीं। वह चाहे व्यक्ति के साथ हो या राजा अथवा देश के साथ। श्रीकृष्ण की यह नीति आज भी उतनी ही प्रासंगिक व उपयोगी है जितनी तब थी। गौरतलब है हर आदमी में कोई न कोई गुण जरूर होता है। श्रीकृष्ण ने इस सच को अपनी नीतियों में बखूबी इस्तेमाल किया। आज दुनिया में जो अशांति, हिंसा, भेदभाव और धर्म के नाम पर झगड़े-फसाद हैं, वे श्रीकृष्ण की दूरदर्शी नीतियों से ही खत्म किए जा सकते हैं। दुनिया को बेहतर और ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण बनाने के लिए योगेर की नीतियों के अपनाने के अलावा कोई रास्ता दिखता नहीं। हम यदि श्रीकृष्ण के जन्मदिन जन्माष्टमी पर उनकी नीतियों का जीवन में अपनाएं, तो समाज और विश्व का हित निश्चित है।

योगेश कु. गोयल


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