मुद्दा : कैसे हों पूरब-पश्चिम के रिश्ते
वर्ष 2011 में देश भर के अखबारों में छपी एक खबर ने सबका ध्यान आकर्षित किया। यह खबर थी ही ऐसी कि जो कोई पढ़ता अचंभित हो जाता।
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अब तक लोगों का अनुभव था कि एक मां से उसके बच्चे तभी अलग होते हैं जब कोई उन्हें अगवा कर ले या माता-पिता का तलाक हो जाए और बच्चों का बंटवारा या फिर मां मानसिक या शारीरिक रूप से अपने बच्चों की परवरिश करने की स्थिति में न हो। अत्यंत गरीब परिवारों द्वारा भी कई बार आर्थिक मजबूरी के चलते अपने बच्चे या तो गोद दे दिए जाते हैं, या बेच दिए जाते हैं। पर इस खबर के मुताबिक सागरिका भट्टाचार्य नाम की महिला का चार साल का बेटा और छह महीने की बेटी पश्चिमी यूरोप के देश नॉर्वे में सरकारी एजेंसी द्वारा छीन लिए गए थे। वो महिला अपने बच्चों की परवरिश करने में पूरी तरह सक्षम थीं और अपने इंजीनियर पति के साथ पूरी जिम्मेदारी से अपनी गृहस्थी चला रही थीं। फिर उनके साथ ऐसा क्यों हुआ?
पिछले हफ्ते नेटफ्लिक्स पर सागरिका भट्टाचार्य के जीवन की इस घटना पर आधारित एक फिल्म रिलीज हुई है, जिसका शीषर्क है-‘मिसेज चटर्जी बनाम नॉर्वे’। फिल्म को देखने के बाद हर दशर्क नॉर्वे के समाज और सरकार के रवैए पर सवाल उठा रहा है। नॉर्वे दुनिया का बेहद संपन्न देश है, जिसकी आबादी मात्र पचपन लाख है। यह वही देश है जो पिछले सौ वर्षो से दुनिया के मेधावी लोगों को समाज सेवा, पत्रकारिता, विज्ञान, कला और राजनीति के क्षेत्र में विश्व स्तर पर उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रतिष्ठित ‘नोबल पुरस्कार’ प्रदान करता है। फिर ऐसे देश में यह कैसे हुआ कि सुखी-संपन्न युवा परिवार के बच्चे सरकार द्वारा समर्थित संस्था द्वारा मां की गोद से छीन लिए गए? अपने बच्चों को पाने के लिए सागरिका भट्टाचार्य को नॉर्वे से लेकर भारत तक की अदालतों में तमाम मुकदमे लड़ने पड़े। आखिरकार, मां के प्यार की ही जीत हुई और तीन वर्ष बाद दोनों अबोध बालक मां को वापिस मिल गए। अलबत्ता, सागरिका भट्टाचार्य के पति ने इस लड़ाई में उनके साथ धोखाधड़ी की क्योंकि वो नॉर्वे में रहने के लिए अपने वीजा को ज्यादा प्राथमिकता देते थे और इसीलिए चाहे-अनचाहे उन्होंने नॉर्वे की सरकार और कानून का पक्ष लिया। ‘मिसेज चटर्जी बनाम नॉर्वे’ फिल्म में सागरिका भट्टाचार्य के किरदार को रानी मुखर्जी ने बखूबी निभाया है।
हुआ यूं कि जब सागरिका नॉर्वे में जा कर अपने पति के साथ रहने लगी तो नॉर्वे की सरकार की बाल कल्याण एजेंसी के अधिकारियों ने भट्टाचार्य दंपत्ति के निजी जीवन में ताक-झांक करनी शुरू कर दी। उनका घोषित उद्देश्य था बच्चों की परवरिश में भट्टाचार्य दंपत्ति की मदद करना क्योंकि नॉर्वे की सरकार बच्चों की परवरिश पर बहुत जोर देती है, और उस पर करोड़ों रु पया खर्च भी करती है। इस ताक-झांक की अधिकारी नियमित रिपोर्ट लिखते रहे और एक दिन अचानक भट्टाचार्य दंपत्ति के अबोध बच्चों को उनसे जबरन छीन कर बाल कल्याण गृह में ले गए। जहां सागरिका को अपने बच्चों से हफ्ते में केवल एक बार मिलने दिया जाता था।
इस बाल कल्याण एजेंसी का आरोप था कि सागरिका अपने बच्चों की परवरिश करने के लायक सही मां नहीं हैं क्योंकि वह अपनी छह महीने की बेटी और चार साल के बेटे को छुरी-कांटे से नहीं, बल्कि हाथों से खाना खिलाती हैं। उनका आरोप था कि शरारत कर रहे बच्चे को सागरिका डांटती हैं, और उसे थप्पड़ भी दिखाती हैं। बाल कल्याण एजेंसी के अधिकारियों का यह भी आरोप था कि सागरिका इन बच्चों के माथे पर काला टीका (नजरबट्टू) लगाती हैं। आरोप यह भी था कि सागरिका के पति अपने बच्चों की परवरिश में हाथ नहीं बंटाते। इन आरोपों को पढ़ कर इस लेख के पाठक हंसेंगे क्योंकि जो आरोप सागरिका पर लगाए गए वो तो दक्षिण एशिया के किसी भी समाज के परिवारों पर लगाए जा सकते हैं। इससे पहले कि हम यह जानें कि नॉर्वे की सरकार ने ऐसा क्यों किया, पहले यह जान लें कि इन आरोपों से निपटने के लिए सागरिका को कई अदालतों में बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा।
इस फिल्म में दिखाया गया है कि बाल कल्याण के नाम पर यह पूरा तंत्र निहित स्वाथरे के लिए काम कर रहा है, जो किसी बड़े घोटाले से कम नहीं है जिसमें बाल संरक्षण एजेंसी, सामाजिक कार्यकर्ता, मनोचिकित्सक, वकील, सरकारी अनुदान के बदले ऐसे छीने गए बच्चों को पालने वाले दत्तक परिवार या इन बच्चों को कानूनन गोद लेने वाले परिवार भी शामिल हैं क्योंकि इसमें इन सबकी कमाई होती है।
नॉर्वे की सरकार, इस फिल्म के आने से, पूरी दुनिया में विवादों में घिरना शुरू हो गई है। फिल्म देखने के बाद मैंने भी नॉर्वे की सरकार और भारत में नॉर्वे के राजदूत को ट्विटर पर एक संदेश भेजा, जो इस प्रकार है-‘आपका देश दुनिया का एक प्रतिष्ठित देश है पर ‘मिसेज चटर्जी बनाम नॉर्वे’ फिल्म को देख कर आपके बाल कल्याण कार्यक्रम का दिल-दहलाने वाला पक्ष उजागर हुआ है।
आशा है अब आप एशियाई मूल के परिवारों के प्रति अपना रवैया बदलेंगे और उन्हें अपने देश की संस्कृति और जीवन मूल्यों के चश्मे से देखना बंद करेंगे। आपको याद दिला दूं कि सुप्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्री तालकॉट पार्सस ने अपनी पुस्तक में भारत के संयुक्त परिवारों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ समाज व्यवस्था बताया है क्योंकि इस व्यवस्था में परिवार के सदस्यों का तनाव प्रबंधन होता है, आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा रहती है और पारस्परिक संबंध प्रगाढ़ होते हैं, जो इन समाजों को लंबे समय तक स्थायित्व देते हैं जबकि पश्चिमी समाजों में एक परिवार या व्यक्ति केंद्रित व्यवस्था के कारण समाज का विघटन हो रहा है।’
इसी ट्वीट में मैंने आगे लिखा-‘1988 में अमेरिका के शहर विस्कॉन्सिन में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए मैंने कहा था कि पूर्वी देशों की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत समृद्ध है, और सदियों पुरानी है जबकि पश्चिमी देशों के समाज अपने कुशल प्रबंधन के कारण भौतिक रूप से तो आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन उनके पास जीवन जीने की दृष्टि नहीं है। अगर दोनों समाजों के बीच पारस्परिक सम्मान का ऐसा रिश्ता स्थापित हो जाए कि पूर्व की दृष्टि और पश्चिम का प्रबंधन संयुक्त रूप से काम करें तो पूरी मानव जाति के रहने के लिए यह दुनिया कल्याणकारी हो जाएगी।’
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