विपक्षी एकता : रास्ते में बहुत रोड़े

Last Updated 07 Jun 2023 01:38:45 PM IST

अगले साल लोक सभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की BJP को टक्कर देने के लिए विपक्षी एकता की कवायद कांग्रेस और AAP की रार में फंसती दिख रही है।


विपक्षी एकता : रास्ते में बहुत रोड़े

दिल्ली सरकार (Delhi Government) को अफसरों के तबादले-तैनाती के सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) से मिले अधिकार को निष्प्रभावी करने वाले केंद्र सरकार (Central Government) के अध्यादेश (Ordinance) को राज्य सभा में रोकने के लिए मुख्यमंत्री एवं आप संयोजक अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की पहल को नीतिश कुमार (Nitish Kumar), शरद पवार (Sharad Pawar), ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और के. चंद्रशेखर राव (K. Chandrashekhar Rao) का तो समर्थन मिल गया है, लेकिन कांग्रेस (Congress) ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं। केजरीवाल (Kejriwal) ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से मुलाकात का समय मांगा तो कांग्रेस ने दिल्ली (Delhi) और पंजाब (Punjab) के अपने नेताओं से चर्चा कर बताने को कहा। यह चर्चा 29 मई को दिल्ली में हो चुकी है। अंतिम निर्णय आला कमान पर छोड़ते हुए भी दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस नेताओं ने साफ कर दिया है कि आप और केजरीवाल के साथ खड़े होना पार्टी के हित में नहीं होगा।

ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस आला कमान का अंतिम निर्णय दिल्ली-पंजाब के नेताओं की राय पर आधारित होगा या फिर व्यापक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विपक्षी एकता की जरूरत के मद्देनजर, जो खड़गे और राहुल से होने वाली केजरीवाल की मुलाकात में उन्हें बताया जाएगा। कांग्रेस के अलावा विपक्ष में आप ही ऐसा दल है, जिसे राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल है, और जिसकी एक से अधिक राज्यों में सरकार हैं। चार राज्यों: राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस सरकार है तो दो राज्यों: दिल्ली और पंजाब में आप की सरकार हैं। ऐसे में आप और कांग्रेस के रिश्ते सुधरे बिना व्यापक विपक्षी एकता दूर की कौड़ी ही बनी रहेगी। बेशक, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तेलंगाना में चंद्रशेखर राव के साथ भी कांग्रेस के रिश्ते मुधर नहीं हैं पर उनमें वैसी कटुता नहीं है, जैसी केजरीवाल के साथ है। यह कटुता पुरानी है, जो समय के साथ बढ़ती गई है। अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन के समय से ही केजरीवाल के निशाने पर उस समय केंद्र में संप्रग सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस रही है। केजरीवाल भ्रष्ट नेताओं की जो सूची जारी करते थे, उसमें ज्यादातर कांग्रेस या फिर उसके मित्र दलों के ही होते थे। बाद में जब केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी नाम से अपना दल बनाया तो उसने भी सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही पहुंचाया।

शीला दीक्षित के नेतृत्व में लगातार तीन बार दिल्ली में कांग्रेस सरकार रही, जिसे भाजपा नहीं हरा पाई, लेकिन नई नवेली AAP ने अपने पहले ही चुनाव में उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। दिल्ली में राजनीति के हाशिये पर भाजपा भी खिसक गई है, लेकिन कांग्रेस के समक्ष तो अस्तित्व का संकट नजर आता है। कांग्रेस पर आप की मार दिल्ली तक ही सीमित नहीं रही। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल कर आप ने कांग्रेस से पंजाब की सत्ता भी छीन ली। इतना ही नहीं, गोवा और गुजरात विधानसभा चुनावों में भी आप को जो थोड़ी-बहुत सफलता मिली, वह भी कांग्रेस की ही कीमत पर। इसलिए कांग्रेस में धारणा प्रबल होती गई है कि आप उसे नुकसान पहुंचाते हुए, अप्रत्यक्ष ही सही, भाजपा को लाभ पहुंचा रही है। पिछले दिनों जब केंद्रीय एजेंसियों द्वारा सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछताछ की गई तब कई गैर-भाजपा दलों ने आलोचना की, लेकिन आप की टिप्पणियां उपदेशात्मक ही रहीं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जब दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की शराब घोटाले में गिरफ्तारी पर अनेक विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र तक लिखा तो कांग्रेस विवादास्पद शराब नीति की गहन जांच की मांग दोहराती रही।

राज्यों के नेताओं के निहित स्वार्थ समझे जा सकते हैं, लेकिन संकट यह है कि कांग्रेस और आप के नेतृत्च के बीच भी कभी वैसा संपर्क-संवाद नहीं रहा, जैसा दो विपक्षी दलों के बीच रहना चाहिए। कमोबेश नापसंदगी की हद तक ऐसी ही संवादहीनता चंद्रशेखर राव और कांग्रेस के बीच है। परस्पर संबंधों का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हाल में कर्नाटक में मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण में कांग्रेस ने केजरीवाल और चंद्रशेखर राव को नहीं बुलाया। सोनिया गांधी के साथ ममता बनर्जी की राजनीतिक समझदारी रही है, लेकिन राहुल के साथ संपर्क-संवाद की निरंतरता नहीं रही। उद्धव ठाकरे की बाबत भी ऐसा कहा जा सकता है। यही कारण है कि इन क्षत्रपों से संपर्क-संवाद के लिए कांग्रेस को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को वार्ताकार बनाना पड़ा। भाजपा के समर्थन से भी कई बार बिहार का मुख्यमंत्री बन चुके नीतीश मूलत: समाजवादी हैं। गैर-भाजपा दलों और नेताओं से भी उनके रिश्ते रहे हैं। वार्ताकार की भूमिका वह अच्छे से निभा भी रहे हैं पर कांग्रेस और आप की रार में विपक्षी एकता की गाड़ी फंसने की आशंका दिख रही है।

बेशक, मल्लिकाजरुन खड़गे और राहुल गांधी की केजरीवाल से मुलाकात की तारीख अभी तय नहीं है, लेकिन नीतीश को कांग्रेस-आप की कटुता को कम करने की कोशिश उससे पहले ही करनी होगी। जाहिर है, यह आसान नहीं, क्योंकि अपनी भावी राजनीति-रणनीति की बाबत सबसे पहले कांग्रेस को फैसला लेना होगा। सबसे पुराने राजनीतिक दल, और आज भी सबसे बड़े विपक्षी दल, के नाते राष्ट्रीय राजनीति में सबसे ऊंचे दांव कांग्रेस के ही लगे हैं। इसलिए कह सकते हैं कि विपक्षी एकता की जरूरत कांग्रेस को सबसे ज्यादा है पर क्या उसके लिए वह राज्य-दर-राज्य अपने राजनीतिक हित कुर्बान कर देगी? विपक्षी एकता के लिए 12 जून को पटना में होने वाली बैठक टलने के जो भी कारण बताए जा रहे हों, पर सच यह है कि विपक्षी दलों में सब कुछ ठीक नहीं है।

बताया जा रहा है कि दिल्ली और पंजाब में आप, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तेलंगाना में बीआरएस तथा महाराष्ट्र में एनसीपी-शिवसेना (ठाकरे) कांग्रेस को ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं। मित्र दलों का इरादा कांग्रेस को लोक सभा की आधे से भी कम सीटें देने का है। क्या अकेले दम कर्नाटक जीत चुकी कांग्रेस इसके लिए मान जाएगी? ऐसे अंतर्विरोधों के बीच विपक्षी एकता की राह आसान तो हरगिज नहीं, जिसकी दिशा का पहला ठोस संकेत कांग्रेस-आप संवाद से मिल जाएगा।

राजकुमार सिंह


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