सामयिक : अर्थतंत्र में परिवारवाद

Last Updated 03 Jun 2023 01:35:37 PM IST

क्या परिवारवाद केवल राजनीतिक सत्ता तक सीमित होता है? भारत के राजनीतिक हालात के संदर्भ में यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए।


सामयिक : अर्थतंत्र में परिवारवाद

क्या राजनीतिक स्तर पर परिवारवाद का शोर आर्थिक स्तर पर परिवारवाद को बढ़ाने की नीति को जारी रखने के लिए मचता है? अक्सर संसदीय राजनीति के ही संदर्भ में परिवारवाद पर बातचीत होती है। जवाहर लाल नेहरू के बाद कांग्रेस का नेतृत्व उनकी बाद की पीढ़ियां कर रही हैं। यह  धारणा बन चुकी है। कांग्रेस में परिवारवाद दूसरी पार्टयिों के लिए मुद्दा रहा है। लेकिन संसदीय राजनीति की उम्र बढ़ने के साथ यह बात स्पष्ट हुई है कि परिवारवाद केवल कांग्रेस तक सीमित नहीं है। यह किसी विशेष पार्टी के संगठनात्मक ढांचे और चरित्र तक ही सीमित नहीं है।
परिवारवाद भारतीय समाज में हर स्तर पर सामंती काल से ही बना हुआ है। बहुतेरे लोग भी सामंतीकाल के मानसिक ढांचे में रचे-बसे हुए हैं। उन्हें भी नेता-परिवार के सदस्यों को राजनीतिक पार्टी के नये नेतृत्व के रूप में स्वीकार करने में कोई सांस्कृतिक दिक्कत नहीं होती है जैसे राजपुत्रों को स्वीकार करने की मजबूरी थी। इसीलिए कांग्रेस के परिवार के खिलाफ बोलने वाले राजनीतिक नेतृत्वों ने भी अपनी विरासत अपने वंशजों को सौंपने की प्रथा को जारी रखा है। यहां तक कि किसी नेतृत्व के सामने भाई-भतीजे और बेटे-बेटी के बीच विरासत सौंपने का प्रश्न आता है तो बेटे को प्राथमिकता दी जाती है। भले ही बेटे के अनुभव और राजनीति करने की क्षमता और संभावना शून्य हो।

जाति और धर्म आधारित राजनीति की तरह वंशवाद के आधार में भी पुरुषवाद ही है। यह स्थिति संसदीय लोकतंत्र में भी देखी जा सकती है। पहली बात तो यह स्पष्ट होती है कि परिवारवाद संसदीय राजनीति का हिस्सा बना रहा है। संसदीय लोकतंत्र में सामंती काल के बुनियादी विचारों का स्थानांतरण हुआ है लेकिन परिवारवाद मूल अथरे में पुरुष सत्ता होती है। धर्म के क्षेत्र में भी उत्तराधिकार पुरुष वंश को ही स्थानांतरित किया जाता है। यहां तक कि संसदीय लोकतंत्र की न्यायपालिका में भी परिवारवाद की चर्चा अब आम तौर पर की जाने लगी है। सामंती विचारों से लैस संसदीय व्यवस्था और नागरिकों के बीच बहने वाली लोकतंत्र की चेतना में स्पष्ट विभाजन यह देखा जाता है कि व्यवस्था पर परिवार का शिंकजा  मजबूती से लागू करने की कोशिश की जाती है तो लोकतांत्रिक चेतना में इसका विरोध होता है। इस तरह के द्वंद्व से संघर्ष से भारतीय समाज जूझ रहा है, लेकिन परिवारवाद के एक नये पहलू की तरफ ध्यान दिया जाना जरूरी लगता है। भारतीय जनता पार्टी की अग्रिम पंक्ति में दूसरी पार्टयिों  में जारी नेतृत्व प्रथा की तरह की स्थिति नहीं दिखती। फिर भी क्या वह परिवारवाद से मुक्त है?  इस पहलू को इस सच्चाई को स्वीकार किए बिना नहीं समझा जा सकता कि परिवारवाद का दायरा केवल राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। आर्थिक क्षेत्र में भी परिवारवाद है और यह परिवारवाद एक तरफ पारंपरिक किस्म का दिखता है तो दूसरी तरफ नई जरूरतों के हिसाब से पारिभाषित परिवारवाद का भी है।

परिवारवाद का निचोड़ क्या है? सत्ता की कमान चंद हाथों में सिमटा होना। वह किसी भी क्षेत्र की सत्ता हो सकती है। जब हम मानते हैं कि यह नई आर्थिक व्यवस्था का दौर है तो इस व्यवस्था में परिवारवाद की पहचान जरूरी लगती है। भाजपा इसी दौर में अपना विस्तार करने में सफल हुई हैं, और उसके बारे में कहा जाता है कि उसका विस्तार कॉरपोरेट के साथ गहरे रिश्तों के आधार पर हुआ है। वह ‘परिवार’ का ही राज चाहती है और भाजपा का परिवारवाद आर्थिक सत्ता की तरफ जाता है। इसे इस तथ्य के साथ देखें कि भारतीय समाज में 1 प्रतिशत आबादी के पास देश की पूरी संपत्ति का 73 प्रतिशत सिमट गया है, यह कई स्तरों पर हुए अध्ययन बताते हैं।  इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि ‘परिवारों’ के हाथों में आर्थिक सत्ता सिमट गई है और उन परिवारों में आर्थिक सत्ता का केंद्रीकरण उसी तरह से हुआ है जैसे राजनीतिक क्षेत्र में भी हुआ है। परिवारवाद राजनैतिक शब्दावली में सत्ता का केंद्रीकरण ही है। आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण में यह होता है कि समाज के बड़े हिस्से में भिन्न किस्म के गुलाम विकसित किए जाते हैं।  

लोगों के बीच आर्थिक स्तर पर विपन्नता की स्थिति ही परिवारों के बीच आर्थिक केंद्रीकरण का आधार होती है। जैसे तुलना करें कि मनुस्मृति की अर्थव्यवस्था के दौर में कितने तरह के गुलाम थे। मनु ने सात  प्रकार के दासों का उल्लेख किया है और उसके बाद अर्थव्यस्था को नया रूप देने वाले नारद ने दासों का नये तरह से वर्गीकरण किया और उनकी संख्या 15 कर दी। इनमें एक दास वे भी थे जिन्हें जुए में जीता गया। दूसरे वे थे जिन्हें भारी कर्जे से मुक्त किया गया हो। अर्थव्यवस्था इस कदर सिमटती गई कि ब्राह्मणों को दास बनाने की जो मनाही थी, वह भी खत्म कर दी गई। कौटिल्य के अर्थशास्त्र ने स्पष्ट कर दिया कि ब्राह्मण भी गुलाम बनाए जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति से तुलना करें तो दास, गुलाम, नौकर यानी नई शब्दावली में रोजमर्रा की कमाई पर जीने वालों के बीच कितने वर्गीकरण दिखते हैं। सुविधा के लिए उपनिवेशवाद के दौरान देखा जाए कि कितनी तरह के दास और गुलाम थे।

उपनिवेशवाद के खिलाफ स्वतंत्रता के आंदोलन के बाद समतामूलक समाज बनाने के लिए जो संकल्प दोहराए गए तब उस वक्त दासों, गुलामों, बंधुआ के खिलाफ किस तरह से अभियान चले। लेकिन नई अर्थव्यवस्था में दास, गुलाम, नौकर की जगह नई-नई शब्दावली में बीसियों तरह के अधीनस्थ कामगार और  श्रमिक मिलते हैं। काम के घंटे की सीमाएं खत्म की गई है। स्त्री पुरु ष का भेद खत्म किया जा रहा है और जाति, धर्म भी। चंद परिवारों के हाथों में सिमटती अर्थव्यवस्था ने राजनीति की पूरी भाषा बदल दी है। राजनीतिक मंचों से धन संपदा का केंद्रीकरण करने वाले परिवारों को गरीबों का शुभचिंतक और हितैषी बताया जाता है। वास्तव में नई आर्थिक व्यवस्था वाले परिवारवाद से ध्यान बंटाने के लिए राजनीतिक स्तर पर ही परिवारवाद की चर्चा पर जोर दिया जाता है। परिवारवाद को एक विचारधारा के रूप में सम्रगता में देखा जाना चाहिए।



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