विपक्ष की कोशिश : एकजुटता की राह में कई रोड़े
कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम ने नि:संदेह भाजपा विरोधी दलों के अंदर 2024 लोक सभा चुनाव को लेकर आशा और उत्साह पैदा किया है। यह स्वाभाविक है।
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हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक में भाजपा की पराजय के कारणों को लेकर मतों में भिन्नता हो सकती है, किंतु कांग्रेस जैसी पार्टी, जिसके वरिष्ठ नेताओं का बड़ा समूह मानने को तैयार नहीं था कि यह चुनावी राजनीति में वापसी कर सकती है वह भाजपा के विरु द्ध सफलता पाती है तो विपक्ष इसे अनुकूल माहौल के रूप में देखेगा ही। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के शपथग्रहण समारोह में उपस्थित विपक्ष ने भाजपा विरोधी एकजुटता इसी दृष्टिकोण से प्रदर्शित करने की कोशिश की।
पांच वर्ष पहले 2018 में कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में भी विपक्ष एकत्रित हुआ था। तब और आज के परिदृश्य को देखें तो आपको गुणात्मक अंतर नजर आएगा। यहां तक कि एक दूसरे से हाथ मिलाकर विजय भाव से ऊपर उठाते हुए खड़ा होने की तस्वीरें भी दोनों की अलग-अलग दिखेंगी। 2018 में ऐसा लगता था कि संपूर्ण विपक्ष वाकई एकत्रित है। इसके विपरीत इस बार कुछ सेकेंड तक नेतागण मिले हुए हाथों को उठाकर खड़े नहीं रहे और छायाकारों को उससे ऐसी तस्वीर निकालना कठिन हो गया। निश्चय ही इससे आम मतदाता यह सोचने को बाध्य होंगे कि जब ये अनुकूल अवसर और मंच पर कुछ मिनट तक हाथ उठाकर खड़े नहीं हो सकते तो आगे एकजुट होकर काम करेंगे यह कैसे मान लिया जाए? कईयों को यह विश्लेषण अनुचित लग सकता है। न भूलिये कि राजनीति में संदेश और हाव-भाव का हमेशा महत्त्व रहा है।
बेंगलुरू के शपथ ग्रहण समारोह के बाद मंच पर विपक्ष के ऐसे कई नेता उस तरह से नजर नजर नहीं आए जैसे आना चाहिए था। शरद पवार उसमें दिख ही नहीं रहे थे। कई उपस्थित नेताओं को ढूंढना पड़ता था कि जो लोग खड़े हैं, उनमें वो कहां हैं। इसका अर्थ हुआ कि विजय का उत्साह रहते हुए भी कांग्रेस ने इस घटना की व्यवस्थित तैयारी नहीं की थी। व्यवस्थित तैयारी होती तो तस्वीर भी अलग होती। दूसरे, शपथ ग्रहण के बाद केवल राहुल गांधी का भाषण देश ने सुना। इसके मायने भी ज्यादा गंभीर हैं। शपथ ग्रहण समारोह में या तो किसी का भाषण नहीं होता या भाषण होना है तो राहुल गांधी के साथ विपक्ष के नेताओं का भी कार्यक्रम होता। इससे विपक्षी एकजुटता का थोड़ा संदेश निकल सकता था।
केवल राहुल गांधी के भाषण का संदेश यही था कि कांग्रेस उनके नेतृत्व को ही सर्वोपरि मानती है और यह विपक्षी एकता के रास्ते की बाधा बनेगी। कांग्रेस लोक सभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में विपक्ष के बीच परस्पर सहयोग को केंद्र बनाकर विचार करती तो वह इससे बच सकती थी। आप विपक्षी नेताओं को निमंत्रित करें और मंच पर अकेले आपका भाषण हो तो साथ रहना जिनकी मजबूरी नहीं हो उन नेताओं के अंदर क्या विचार चल रहा होगा इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। ध्यान रखिए, 2018 में कुमारस्वामी ने भारत के संपूर्ण विपक्ष को निमंत्रित किया था। इस बार कांग्रेस ने सारे विपक्षी नेताओं को निमंत्रित नहीं किया। पांच वर्ष पूर्व सारे विपक्ष की एकजुटता होते हुए जब 2019 में भाजपा के मुकाबले जमीन पर एकता कहीं नहीं दिखी तो 2023 की तस्वीर उससे काफी कमजोर था। न मायावती, न ममता बनर्जी, न अरविंद केजरीवाल, न के चंद्रशेखर राव, न नवीन पटनायक, न जगन मोहन रेड्डी; तो फिर यह विपक्षी एकता कैसी?
शपथ ग्रहण समारोह उल्लास का उत्सव होता है, जिसमें मतभेद रहते हुए भी सभी को बुलाया जा सकता था। कांग्रेस ऐसा करती तो संदेश जाता कि वह विपक्षी एकता के लिए बड़ा दिल दिखा रही है। सभी नेताओं को आमंत्रित ही नहीं करेंगे और भाषण भी अकेले राहुल गांधी का होगा तो इसके गर्भ से कैसे विपक्षी एकता निकलेगी? कांग्रेस और अन्य पार्टयिां न भूलें 2018 के अंत में भाजपा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनाव हार गई थी। उसके बाद लगा था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ न्यूनतम स्तर पर आ रहा है। 2019 लोक सभा चुनाव में क्या हुआ? भाजपा 2024 के मुकाबले 21 सीटें ज्यादा पाने में सफल हो गई। इसलिए भी राज्यों की विजय से 2024 की विजय को लेकर आस्त हो जाना पीछे के अनुभवों तथा वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए कतई व्यावहारिक नहीं लगता। अगर विपक्ष भाजपा को लोक सभा चुनाव में बहुमतविहीन स्थिति में लाना चाहता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ ज्यादातर राज्यों में एक दूसरे का समर्थन और सहयोग करना होगा। क्या राजनीति में ऐसी परिस्थितियां दिखाई दे रही हैं?
क्या कांग्रेस सहित ज्यादातर भाजपा विरोधी पार्टयिों के नेता इसके लिए तैयार हैं? 2019 के लोक सभा चुनाव में विपक्षी पार्टयिों के बीच ही इस बात की प्रतिस्पर्धा थी कि कौन कितना ज्यादा सीटें जीत लेगा। गठबंधन सरकार का अनुभव बताता है कि जिस पार्टी के पास जितनी सीटें हैं उतनी ही उसकी सत्ता में मोल भाव की क्षमता बढ़ जाती है। यह मानसिकता आज भी है। जहां जिन राज्यों में गठबंधन हैं वहां तो सीट बंटवारे में कुछ ऊपर नीचे करके लोक सभा चुनाव की एकता कायम रह सकती है। उदाहरण के लिए बिहार, झारखंड में कांग्रेस वहां के मुख्य दलों के साथ गठबंधन में है, महाराष्ट्र में राकांपा एवं उद्धव शिवसेना के साथ इसका गठबंधन रह सकता है। इसी तरह तमिलनाडु में द्रमुक नेतृत्व वाले गठबंधन का कांग्रेस अंग बना रहेगा। किंतु इसके बाहर क्या? क्या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस और वाम मोर्चा के साथ गठबंधन करेंगी? क्या कांग्रेस लोक सभा चुनाव में दिल्ली, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में आम आदमी पार्टी के साथ हाथ मिलाएगी? क्या आम आदमी पार्टी ऐसा करेगी?
क्या हम मानते हैं कि पूर्व की अस्थिर गठबंधन सरकारों के अनुभवों को देखते हुए भी मतदाता इस स्थिति में लोक सभा चुनाव में भाजपा के विरुद्ध विरोधी दलों के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करेगा? एक ही मतदाता विधानसभा चुनाव व लोस चुनाव में अलग-अलग सोच से मतदान करने का प्रमाण कई बार दे चुका है। इस सोच को बदलने के लिए विपक्ष को सामूहिक शक्ति की प्रखरता दिखानी होगी जो है नहीं। प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के सामने विपक्ष का कोई नेता टिकता नहीं। लोक सभा चुनाव में बहुमत का आंकड़ा छूने के लिए विपक्ष को इन दो बड़ी बाधाओं को भी पार करना होगा। आप स्वयं इसका उत्तर ढूंढिए कि क्या ऐसी स्थिति की संभावना है?
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