Manipur Violence : मूल में है हक-हकूक का मसला

Last Updated 17 May 2023 01:41:21 PM IST

मणिपुर विवाद (Manipur Dispute) की तह की बुनियादी हकीकत को अच्छे से समझें तो डरावनी तस्वीर उभरती है। ऐसी ‘तस्वीर और ऐसा विवाद’ उभरता दिखता है जो सचेत करता है कि हिंसा आज वहां है, तो कल और भी कहीं उठ सकती है ऐसी चिंगारी?


मणिपुर हिंसा : मूल में है हक-हकूक का मसला

अपनी हिस्सेदारी और मुकम्मल हक की मांगों को लेकर आदिवासी समुदाय छत्तीसगढ़ और अन्य उन राज्यों में दशकों से आवाजें उठाते रहे हैं, जहां वे बहुतायत में हैं। केंद्र और राज्य की हुकूमत के साथ-साथ आम जन को भी मणिपुर घटना की हकीकत से वाकिफ होना अति जरूरी है।

घटना की मूल वजह की जहां तक बात है तो इसे समझने में हमें ज्यादा कठिनाई नहीं होगी। मणिपुर का तकरीबन एक तिहाई भाग पहाड़ी क्षेत्र से घिरा है, जो प्राकृतिक संपदाओं से पूरी तरह लबरेज है। जहां, तरफ-तरह के फल, जड़ी-बूटियां, ड्राईफ्रूट से लेकर कमाई करने और पेट पालने के साधन व्याप्त हैं। बहरहाल, घटना हक, हकदारी और कब्जेदारी को लेकर हुई है। मणिपुर में, मुख्यत: तीन जातियों का वर्चस्व रहा है, जिनमें दो समुदायों में आपसी रजामंदी रहती है थोड़ी-बहुत। और तीसरे समुदाय का रवैया ‘एकला चलो’ यानी पूरी तरह से अलहदा रहा है। इनमें राज्य सरकार की तरफ से नागा और कुकी समुदाय को आदिवासी का दर्जा प्राप्त है। वैसे हैं वे ईसाई?

वहीं, मैतई जाति को हुकूमत ने शुरू से गैर-आदिवासी माना, लेकिन अगड़ी जाति से बाहर रखा। मैतई हिंदू धर्म से वास्ता रखते हैं। उनके रीति-विराज उत्तर भारत जैसे होते हैं। इनकी आपसी लड़ाई पहले भी कई मर्तबा खूनी संघर्ष में तब्दील हो चुकी है। पर, इस बार कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। मैतई इस दफे सरकार से भी नाखुश दिखते हैं। उनका आरोप है कि चुनाव के वक्त उनकी समस्या को सुलझाने का वादा नेताओं ने किया था। जीतने और सरकार बनाने के बाद भी वादा पूरा नहीं किया गया। राज्य का करीब नब्बे प्रतिशत भाग पहाड़ी क्षेत्र से घिरा है। मैतई समुदाय के लोग अनुसूचित जाति होते हुए भी पहाड़ी इलाकों में अपना घर नहीं बना सकते। उनकी यह मांग आज की नहीं है, बल्कि दशकों पुरानी है। समस्या का हल निकला चाहिए वरना कभी भी राज्य हिंसा की चपेट में फिर से आ सकता है।

गनीमत यह रही कि समय रहते सरकार ने मोर्चा संभाल लिया वरना यह चिंगारी पूरे राज्य में फैल सकती थी। रोजगार और काम-धंधों के लिहाज से मणिपुर में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। आलम हर जगह एक सा ही है। जहां, जो समुदाय दशकों से काबिज है, वो नहीं चाहता वहां किसी की दखलंदाजी हो। इसलिए मणिपुर जैसे मसले हिन्दुस्तान की कइयों जगहों पर हैं। हिस्सेदारियों को लेकर तेलंगाना में बड़ा मूवमेंट सबने देखा। अलग राज्य तक बनाया गया।

उत्तर प्रदेश में 2000 में उत्तरांचल में मूवमेंट जो कटकर उत्तराखंड में तब्दील हुआ। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में रहने वाले बंजारा समुदाय के लोग भी अपनी मांगों को लेकर दशकों से उग्र हैं। काका कालेकर आयोग भी बनाया गया था। मसला आज तक नहीं सुलझा। दरअसल, ये ऐसे मुद्दे हैं जो केंद्र सरकार के हस्तक्षेप बिना नहीं सुलझ सकते। ये बातें राज्य सरकारों के बस की होतीं तो वे सुलझा चुकी होतीं। केंद्र को मणिपुर की स्थिति को अविलंब सहज बनाना चाहिए वरना ऐसी और भी चिंगारियां भड़क सकती हैं। देशभर में ऐसा होने लगा तो स्थिति काबू में रखना मुश्किल होगा। मणिपुर विवाद की वजह यह भी है कि मणिपुर के कानून के मुताबिक आदिवासी ही पहाड़ी इलाकों में रह सकते हैं। कारोबार, काम-धंधे आदि कर सकते हैं। घर बना सकते हैं जबकि, मैतई भी यही सब चाहते हैं। मैतई लोगों को लगता है कि राज्य सरकारों में नागा और कुकी को आरक्षण भी मिला हुआ है, जिससे उनके लोग सरकारी सेवाओं में भी हैं। मैतई समुदाय को लगता है कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। इस विवाद में केंद्र की अ-प्रत्यक्ष भूमिका को देखें, तो उसका समर्थन इस जाति के साथ है जरूर? गृह मंत्री अमित शाह इस मसले को लेकर मुख्यमंत्री बीरेंद्र सिंह से लगातार संपर्क में हैं, लेकिन घटना घट गई, कई हताहत हो गए और कई शिकार भी हुए। घटना थम जाएगी, इसकी गारंटी अभी कोई नहीं देता।

प्रदेश के जातीय समीकरण पर नजर दौड़ाएं, तो मैतई समुदाय की संख्या 53 प्रतिशत के करीब है जबकि, नागा 40 फीसद और कुकी समुदाय मात्र 7 फीसद हैं। 3 फीसद के आसपास मयांग और अन्य धर्मो के लोग मणिपुर में रहते हैं जो देश के अन्य भागों से आकर यहां बसे हुए हैं। मयांग समुदाय मुस्लिम धर्म को मानता है। मणिपुर की घटना अचानक से घटने वाली हिंसा तो कतई नहीं है। साफ दिखता है कि इसकी स्क्रिप्ट अंदरखाने कई वर्षो से लिखी जा रही थी। घटना देखते-देखते 8-9 जिलों में कैसे फैल गई। यहां थोड़ा संशय होता है। फिलहाल स्थिति काबू में है। कई जगहों पर धारा 144 लगाई गई है। इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई हैं। स्थिति काबू में है, लेकिन घटनाएं फिर से भड़केंगी, इसका अंदेशा है। तभी, किसी भी अनहोनी होने से निपटने के लिए असम राइफल्स की 34 और सेना की 9 कंपनियां मुस्तैद हैं।

डॉ. रमेश ठाकुर


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