खेल महासंघ : खिलाड़ी ही हों अधिकारी

Last Updated 01 May 2023 01:45:48 PM IST

जब भी कभी किसी खेल महासंघ में कोई विवाद उठता है तो उसके पीछे ज्यादातर मामलों में दोषी गैर-खिलाड़ी वर्ग से आए हुए व्यक्ति ही होते हैं।


खेल महासंघ : खिलाड़ी ही हों अधिकारी

खेल और खिलाड़ियों के प्रति असंवेदनशील व्यक्ति अक्सर ऐसी गलती कर बैठते हैं, जिसका खमियाजा उस खेल और उससे जुड़े खिलाड़ियों को उठाना पड़ता है। यदि ऐसे खेल महासंघों के महत्त्वपूर्ण पदों पर राजनेताओं या गैर-खिलाड़ी वर्ग के व्यक्तियों को बिठाया जाएगा तो उनकी संवेदनाएं खेल और खिलाड़ियों के प्रति नहीं, बल्कि उस पद से होने वाली कमाई और शोहरत के प्रति ही होगी।

पिछले कई दिनों से देश का नाम रोशन करने वाली देश की बेटियां दिल्ली के जंतर-मन्तर पर धरना (Wrestlers protest at Jantar-Mantar) दे रही हैं। इन्हें आंशिक सफलता तब मिली जब देश की शीर्ष अदालत ने दिल्ली पुलिस (Delhi Police) को आड़े हाथों लेते हुए एफआईआर (FIR) दर्ज करने के निर्देश दिए। देश के लिए मेडल जीतने वाली इन महिला पहलवानों को हर किसी का समर्थन मिल रहा है, सिवाय देश के सत्तारूढ़ दल के। कारण साफ है, इन महिला पहलवानों ने जिसके खिलाफ मोर्चा खोला है, वो भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश से BJP के बाहुबली नेता ब्रजभूषण शरण सिंह (Brijbhushan Sharan Singh) हैं। इन पर कुछ महिला पहलवानों के साथ यौन शोषण (sexual harassment of women wrestlers) का आरोप है। महिला पहलवानों की मांग है कि केवल एफआईआर ही नहीं ब्रजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी भी हो। इसके साथ ही यह भी कहा है कि जब तक इस मामले की जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक उनको कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से हटा दिया जाए और नैतिकता के आधार पर वे संसद से भी इस्तीफा दें।

कैसी विडंबना है, जब भी देश का नाम रोशन करने वाले ये खिलाड़ी कोई पदक जीत कर देश लौटते हैं, तो देश का शीर्ष नेतृत्व इन्हें पलकों पर बिठा कर इनका जोरदार स्वागत करता है। इन्हें सरकारी पदों पर नौकरी भी दी जाती है। इनके सम्मान में होने वाले स्वागत समारोह की तस्वीरों को मीडिया में खूब फैलाया जाता है परंतु जैसे ही इनके आत्मसम्मान की बात उठती है तो सरकार, चाहे किसी भी दल की क्यों न हो, इनसे मुंह फेर लेती है, और इन्हें अपनी लड़ाई लड़ने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। ऐसा ही कुछ देश की इन बहादुर बेटियों के साथ भी हो रहा है। जब जनवरी में इन महिला पहलवानों ने ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ मोर्चा खोला था तो सरकार ने इन्हें आश्वासन दिया था कि मामले की जांच होगी और दोषी को उचित सजा दी जाएगी। परंतु जब कई महीनों बाद भी कुछ नहीं हुआ तब इन पहलवानों ने दोबारा मोर्चा खोला। इस बार देश के किसान और अन्य सामाजिक और राजनैतिक दल भी इनके समर्थन में उतर आए। मामले में नया मोड़ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस को लताड़ा और एफआईआर न लिखने का कारण पूछा। सुप्रीम कोर्ट के दबाव में आकर दिल्ली पुलिस ने एफआईआर लिखने का आासन तो दिया पर धरना देने वाले पहलवानों ने आशंका जताई कि पुलिस हल्की धाराओं में एफआईआर दर्ज करेगी और सारी कोशिश मामले को रफा-दफा करने की होगी।

बात-बात में हम अपनी तुलना चीन से करते हैं जबकि अंतरराष्ट्रीय खेलों में मेडल जीतने के मामले में चीन हमसे कहीं आगे है। उधर अमेरिका, जिसकी आबादी भारत के मुकाबले पांचवां हिस्सा है, मेडल जीतने में भारत से बहुत ज्यादा आगे है। कारण स्पष्ट है कि जहां दूसरे देशों में खिलाड़ियों के खान-पान और प्रशिक्षण पर दिल खोल कर खर्च किया जाता है वहीं भारत में इसका उल्टा होता है। अरबों रु पया, जो खेलों के नाम पर आवंटित होता है, का बहुत थोड़ा हिस्सा ही खिलाड़ियों के हिस्से आता है। यह पैसा या तो भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है, और या खेल संघों के नियंत्रक बने हुए राजनेताओं और दूसरे सदस्यों के पांच सितारा ऐशो-आराम पर उड़ाया जाता है। पाठकों को याद होगा कि कुछ दिनों पहले समाचार आया था कि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को नगर निगम के शौचालय में खाना परोसा जा रहा था।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने वाले खिलाड़ी बहुत छोटी उम्र से ही अपनी तैयारी शुरू कर देते हैं। इनमें से ज्यादातर देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसे परिवारों से आते हैं,  जिनकी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं होती। फिर भी वे परिवार पेट काट कर इन बच्चों को अच्छी खुराक, घी, दूध, बादाम आदि खिला कर और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्रशिक्षण दिलवा कर प्रोत्साहित करते हैं। फिर भी इन खिलाड़ियों को अक्सर चयनकर्ताओं के पक्षपातपूर्ण रवैये और अनैतिक आचरण का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो इनसे रिश्वत भी मांगी जाती है। ऐसी तमाम बाधाओं को झेलते हुए भी भारत के ये बेटे-बेटी हिम्मत नहीं हारते। पूरी लगन से लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। इनकी परेशानियों का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने के बाद भी इन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए सड़कों पर संघर्ष करना पड़ रहा है। जब अंतरराष्ट्रीय पदक विजेताओं के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हो रहा है, तो बाकी के हजारों खिलाड़ियों के साथ क्या होता होगा, यह सोच कर भी रूह कांप जाती है।

जब कभी ऐसे विवाद सामने आते हैं, तो सारे देश की सहानुभूति खिलाड़ियों के साथ होती है। हो भी क्यों न? ये खिलाड़ी ही तो अंतरराष्ट्रीय खेलों में भारत का परचम लहराते हैं, और हर भारतीय का मस्तक ऊंचा करते हैं। भारत जैसे आर्थिक रूप से प्रगतिशील देश ही नहीं, पश्चिम के विकसित देशों में भी, उनके खेल प्रेमी नागरिकों की संख्या लाखों करोड़ों में होती है। स्पेन में फुटबॉल हो, इंग्लैंड में क्रिकेट हो या अमेरिका में बेसबॉल या अन्य खेल हों, स्टेडियम दशर्कों से खचाखच भरे होते हैं, और माहौल लगातार उत्तेजक बना रहता है। खेल में हार-जीत के बाद प्रशंसकों के बीच प्राय: हिंसा भी भड़क उठती है। कभी-कभी तो हिंसा बेकाबू भी हो जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि हर खिलाड़ी के पीछे उसके लाखों करोड़ों चाहने वाले होते हैं। आम मान्यता है कि लोकतंत्र में राजनेता हर उस मौके का फायदा उठाते हैं, जहां भीड़ जमा होती हो। खिलाड़ियों की जीत पर तो फोटो खिंचवाने और स्वागत समारोह करवाने में हर स्तर के राजनेता बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।  फिर यह कैसी विडंबना है कि उन्हीं खिलाड़ियों को आज अपनी इज्जत बचाने के लिए धरने प्रदर्शन करने पड़ रहे हैं।

विनीत नारायण


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