विपक्षी एकता : करते रहिए वार्ता, एकता

Last Updated 15 Apr 2023 12:47:11 PM IST

वर्ष 2024 में भाजपा (BJP) यदि लगातार तीसरी दफा केंद्र में सरकार बनाती है, तो मेरे जैसे लोगों के लिए यह उदास खबर होगी। इसलिए नहीं कि भाजपा (BJP) से मैं उस तरह परेशां हूं जैसे कुछ सेक्युलर भारत-व्याकुल लोग प्राय: रहते हैं।


विपक्षी एकता : करते रहिए वार्ता, एकता

BJP पिछले नौ वर्षो से केंद्र की सत्ता में है, और आगे भी रह सकती है। लेकिन उसका लगातार तीसरी बार आना हमारे कमजोर लोकतंत्र का परिचायक होगा। स्पष्ट है हमारा विपक्ष इतना कमजोर कभी नहीं था, जितना अभी है। इसका आगे और कमजोर होना अंतत: लोकतंत्र को कमजोर करेगा।

इस बीच Delhi में विपक्षी दलों की सक्रियता कुछ बढ़ी है। क्या सचमुच इन दलों के गठबंधन से BJP के खिलाफ मोर्चा बन पाएगा अथवा इस जोड़तोड़ की स्थिति 1971 के इंदिरा विरोधी ग्रैंड अलायंस जैसी हो जाएगी। तत्कालीन इंदिरा विरोधी लगभग सभी दल ग्रैंड-गठबंधन में शामिल थे लेकिन नतीजा क्या हुआ था सबको मालूम है। पांच दशक बाद क्या वही स्थिति एक बार फिर नहीं दिख रही है? दरअसल, विपक्षी दलों को विचार करना चाहिए था कि भाजपा वोटों के विपक्षी बिखराव के कारण सत्ता में नहीं है। 1977 की स्थिति अलग थी। तब वोटों का बिखराव दीखता था। उस समय कांग्रेस और जनता पार्टी में वैचारिक रस्साकशी उतनी नहीं थी। दोनों सेक्युलर, दोनों गांधीभक्त, मोटे तौर पर दोनों पक्ष  समाजवादी। लेकिन आज तो विचारों की सीधी लड़ाई है।

एक गांधी- नेहरूवादी है तो दूसरा तिलक-सावरकरवादी। एक सेक्युलर (secularism), तो दूसरा हिंदुत्ववादी (Hinduism)। आर्थिक नीतियों में भी एक अधिक कॉरपारेटवादी। और वोटों का आधार! तो पिछले 2019 के लोक सभा चुनाव में  भाजपा प्लस को कुल वोट आए थे 45 .5 फीसद;  तो कांग्रेस प्लस को केवल 27 फीसद। दोनों के वोट का अंतर 18 फीसद से अधिक था। बिखरी हुई पार्टयिों के वोट यदि कुछ हद तक इकठ्ठा भी होते हैं, तो फासले को तो कम जरूर कर सकते हैं, उसे जीत के नतीजों में तब्दील करना मुश्किल होगा। मेरा मानना है कि भाजपा के विकल्प में राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक और नैतिक सत्ता विकसित करने की जरूरत है। विपक्ष दरअसल, उसके खिलाफ नफरत फैला कर लाभ उठाना चाहता है।

कांग्रेस सहित सभी भाजपा विरोधी दलों को शिद्दत से यह भी स्वीकार करना होगा कि उनकी बुनियादी सोच में कोई कमी है। सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सवालों पर उसे पुनर्विचार की जरूरत है। ऐसा प्रतीत होता है कि 1980 के बाद  आर्थिक सुधारों के कारण सामाजिक स्थितियां तेजी से बदलीं। 1990 में मंडलवादी मुबाहिसों और 1991 में आर्थिक उदारीकरण ने  समाजवादी सोच के पूरे ठाठ को बदल दिया। इस स्थिति ने भाजपा को सीधा लाभ पहुंचाया। सच्चाई यह भी है कि वही एक पार्टी है, जिसने समकालीन स्थितियों पर लगातार विचार किया है। ओबीसी दलित राजनीति को उसने वानर-हनुमान राजनीति में बदल दिया। इसका जवाब कांग्रेस नहीं दे सकी। कांग्रेस और समाजवादी घराने की पार्टयिां पुराना घिसा-पिटा डिस्क बजाती रहीं।

नई पीढ़ी के लोगों को समझाना मुश्किल हो रहा था कि 1920 के गांधीवादी दौर का हिन्दू-मुस्लिम एकता वाला पाठ अब कितना फिजूल हो गया है। तब हिन्दू मुस्लिम आबादी दो: एक के अनुपात में थी। सांप्रदायिक आधार पर देश के बंटवारे के बाद वह स्थिति नहीं रही। अब हिन्दुओं से अधिक मुस्लिम समुदाय को सेक्युलर ढांचे की जरूरत थी। हिन्दू-मुस्लिम एकता की जगह धर्मनिरपेक्ष राजनीति। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए यह जरूरी पाठ था। नेहरू और अंबेडकर इस हकीकत को समझते थे। लेकिन पुराने गांधीवादी नेता सेक्युलरवाद को नापसंद करते थे। अपने हिन्दूवादी आग्रहों की रक्षा के लिए वे मुस्लिमवादी आग्रहों के भी प्रवक्ता बन बैठे। पंडित-मुल्ला गठबंधन गंगा-जमुनी तहजीब के नारे उछालता रहा। यह असहज भी था और अवैज्ञानिक भी। 2010 के आसपास कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक बयान कि देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार सबसे पहले है, मूर्खतापूर्ण बयान सिद्ध हुआ, जिसने भाजपा के ग्राफ को बहुत बढ़ा दिया।

दरअसल, भारत की नई पीढ़ी अधिक सेक्युलर थी। लेकिन कॉमन सिविल कानून और ऐसे ही कई मुद्दों पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के समक्ष कांग्रेस और सोशलिस्टों के बिछ जाने को इस पीढ़ी ने चुनौती के रूप में लिया। कांग्रेस से उसके मोहभंग का आरंभ शाहबानो मामले से हुआ। उत्तर भारतीय राजनीति विशेष कर हिंदी क्षेत्र में भाजपा को  बढ़ाया  मुलायम और लालू की अदूरदर्शी  राजनीति ने। पहले दौर में तो इसने भाजपा को पटकनी दी। लेकिन फाइनल में ये खुद पिट गए। 1990 के इर्द-गिर्द इन नेताओं ने मुस्लिम मतों को कांग्रेस से खींच कर अपनी तरफ लाने की कोशिश में समाजवादी आदशरे को ताक पर रख दिया। पार्टी दफ्तरों यहां तक कि मुख्यमंत्री आवास तक में इफ्तार पार्टयिां, नमाज आदि होने लगे। राजनीति के सेक्युलर रीत-नीत और मर्यादा को लालू-मुलायम ने सबसे अधिक ध्वस्त किया। सोशलिस्टों के झंडे इसी दौर में लाल से हरे हो गए। इसकी प्रतिक्रिया तो होनी ही थी।

लालू-मुलायम की इस मजहबी-पॉलिटिक्स ने एक तरफ कांग्रेस की जड़ें सुखा दीं, दूसरी तरफ भाजपा के वोटबैंक को आगे कर दिया। नई पीढ़ी चाहती थी कि भारत का लोकतांत्रिक स्वरूप सेक्युलर हो। इंदिरा के जमाने तक कांग्रेस इसी भाव में रही। खालिस्तान के सवाल पर इंदिरा गांधी को शहीद होना पड़ा लेकिन राजीव को लोगों ने ऐसा समझाया कि वे मुसलमानों और हिन्दुओं के अलग-अलग तुष्टिकरण पर लग गए। नतीजा हुआ दोनों उनसे दूर चले गए। क्या कांग्रेस समीक्षा करेगी कि उसका शाहबानो मामले में दखल देना और रामजन्मभूमि का ताला खुलवाना गलत निर्णय था? क्या लालू-मुलायम की कुनबापरस्त पार्टयिां अपनी करतूतों पर पुनर्विचार केलिए  तैयार हैं। यदि नहीं, तो करते रहिए वार्ता और एकता। 2024 का चुनावी नतीजा भी उसी तरह स्पष्ट दिख रहा है जैसे अर्जुन को महाभारत का नतीजा कृष्ण के विराट दशर्न में दिख रहा था।

प्रेमकुमार मणि


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