शशि थरूर (Shashi Tharoor) की गुगली से चित कांग्रेस
राजनय से राजनीति में आये शशि थरूर (Shashi Tharoor) ने जो गुगली फेंकी है, उसे खेल पाना कांग्रेस (Congress) और उसके अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) के लिए आसान नहीं।
![]() थरूर की गुगली से चित कांग्रेस |
नेहरू परिवार (Nehru Family) का आशीर्वाद प्राप्त खड़गे से अध्यक्ष पद के चुनाव में भारी अंतर से हारने के बावजूद थरूर ने हिम्मत नहीं हारी है। हालांकि उम्रदराज खड़गे खुद कर्नाटक से आते हैं, लेकिन अपेक्षाकृत युवा थरूर चाहते हैं कि कांग्रेस (Congress) कम-से-कम दक्षिण भारत में तो उन्हें अपना चेहरा बनाए। कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों को आगे लाते हुए व्यापक विपक्षी एकता की सार्वजनिक रूप से दी गई थरूर की सलाह भी इसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित लगती है।
नहीं भूलना चाहिए कि दक्षिण भारत में ही क्षेत्रीय दलों का दबदबा ज्यादा है। इस सलाह से खासकर क्षेत्रीय दलों में थरूर की छवि स्वाभाविक ही बेहतर बनी होगी, जिसका लाभ उन्हें शायद भविष्य की राजनीति में मिल पाए। जैसा कि खुद थरूर ने टिप्पणी की: अगर वह नेतृत्व की भूमिका में होते तो ऐसा करते, जाहिर है, विपक्षी एकता की दिशा में पहल की रणनीति कांग्रेस नेतृत्व को ही तय करनी है। यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि उसमें सिर्फ खड़गे नहीं, बल्कि सोनिया-राहुल-प्रियंका गांधी की निर्णायक भूमिका होगी। वैसे थरूर ने सलाह गलत नहीं दी है। तटस्थ भाव से जमीनी राजनीति का आकलन करें तो साफ नजर आता है कि बिना व्यापक विपक्षी एकता के आगामी लोक सभा चुनाव में मोदी की भाजपा को हरा पाना नामुमकिन है।
विपक्षी दलों को भी इसका अहसास है, पर टकराव राजनीतिक हितों और महत्त्वाकांक्षाओं का है। बेशक आज भी लोक सभा में 52 सांसदों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ा दल है, लेकिन उसकी ऐतिहासिक कमजोरी को ज्यादातर क्षेत्रीय दल अपने राजनीतिक हित में देखते हैं। ऐसा इसलिए भी कि वे या तो पूर्व कांग्रेसी नेताओं द्वारा बनाए गए हैं अथवा कांग्रेस से छीने गए जनाधार की जमीन पर उनकी राजनीति टिकी है। कांग्रेस को भी मन ही-मन यह बात सालती है कि उसे हाशिये पर धकेल कर उसी के जनाधार पर खड़े क्षेत्रीय दल अब राष्ट्रीय राजनीति का भी सपना देखने लगे हैं, पर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के अभूतपूर्व विस्तार और आक्रामक राजनीति ने ज्यादातर विपक्षी दलों के लिए भविष्य तो छोड़िए, अस्तित्व का ही संकट पैदा कर दिया है। सच जब सामने आएगा, तब आएगा, लेकिन आज ज्यादातर विपक्षी दलों के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों में सीबीआई और ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियां का शिंकजा कसता जा रहा है। इसी शिकंजे के विरु द्ध शुरू हुई विपक्षी एकता की कवायद को मानहानि मामले में राहुल को सजा और फिर सांसदी समाप्ति से राजनीतिक आधार और नई गति मिली है। जो दल और नेता कल तक कांग्रेस-भाजपा से समान दूरी की बात कर रहे थे, आज संसद से सड़क तक विपक्षी एकजुटता में कांग्रेस के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। इस एकजुटता को विपक्षी एकता का ताना-बाना पहनाना अब कांग्रेस की जिम्मेदारी ज्यादा है। संभव है निजी महत्त्वाकांक्षा भी हो, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोहरा ही रहे हैं कि उन्हें विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस की पहल का इंतजार है।
वैसे भी अगर तृणमूल, सपा, बीआरएस और आप जैसे कुछ प्रमुख विपक्षी दल हाल तक भाजपा-कांग्रेस से समान दूरी की राजनीति की बात करते रहे हैं, तो उन्हें निकट लाने की पहल कांग्रेस को ही करनी होगी। आगामी लोक सभा चुनाव की दृष्टि से देखें तो क्षेत्रीय दलों की तुलना में कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य ज्यादा दांव पर होगा। क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने में समर्थ हैं, पर कांग्रेस महज तीन-चार राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने या सरकार भी बना सकने की अपनी सामथ्र्य पर संतुष्ट होने का राजनीतिक जोखिम नहीं उठा सकती। इसलिए यह समझ पाना ज्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिए कि विपक्षी एकता की कांग्रेस को ज्यादा जरूरत है, पर क्षेत्रीय दलों को आगे लाने के जिस फॉर्मूले का सुझाव थरूर ने दिया है, उसे अपनाने से पहले कांग्रेस को खुद अपनी राजनीति-रणनीति की बाबत बड़ा फैसला करना होगा। साफ कहें तो कांग्रेस को पहले यह तय करना होगा कि वह खुद जीतना चाहती है या भाजपा को हराना। प्रथम दृष्टया ये दोनों स्थितियां एक ही सिक्के के दो पहलू लग सकती है, पर ऐसा है नहीं।
अगर कांग्रेस की मंशा खुद जीतने की है तो वह अपना खोया हुआ जनाधार और स्थान वापस पाने के लिए क्षेत्रीय दलों से अपनी शर्तों पर गठबंधन की कोशिश करेगी, पर यदि एकमात्र उद्देश्य भाजपा को हराना है तो वह अपनी पुनरुत्थान-योजना को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल कर विपक्षी एकता के लिए जहां-तहां अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों पर भी समझौता करने में संकोच नहीं करेगी। मसलन, जिस तरह कांग्रेस ने बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड को तथा तमिलनाडु (Tamilnadu) में द्रमुक (Dramuk) को अपने बड़े भाई की भूमिका में स्वीकार कर लिया है, वैसे ही पश्चिम बंगाल (West Bengal) में तृणमूल कांग्रेस (TMC), ओडिशा (Odisa) में बीजू जनता दल आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस (YSR Congress) या तेलुगु देशम (Telugu Desham), तेलंगाना (Telangana) में बीआरएस (BRS), उत्तर प्रदेश (UP) में सपा (SP) तथा दिल्ली और पंजाब (Punjab) में आप (AAP) को स्वीकार करना पड़ेगा। यह संदेश देना पड़ेगा कि राष्ट्रीय राजनीति में भी कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की भूमिका का सम्मान करती है। कभी चंद्रबाबू नायडू, जॉर्ज फर्नाडीज और शरद यादव को राजग का संयोजक बना कर भाजपा ने यही संदेश दिया था। अगर सोनिया गांधी का स्वास्थ्य उन्हें इजाजत दे तो संप्रग काल के अनुभव के मद्देनजर शायद क्षेत्रीय दल गठबंधन के संयोजक के रूप में उनके नाम पर भी सहमत हो सकते हैं।
उस सूरत (Surat) में कांग्रेस को विपक्षी गठबंधन को बहुमत मिलने पर सरकार के नेतृत्व के लिए अपना दावा छोड़ना पड़ेगा, जो अभी बहुत दूर की कौड़ी है। व्यापक राजनीतिक हित में जनता दल सेक्यूलर के नेता एचडी कुमारस्वामी को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस अतीत में ऐसी समझदारी दिखा भी चुकी है, पर असल सवाल वही है : कांग्रेस खुद जीतना चाहती है या भाजपा को हराना? बेशक किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह फैसला कर पाना आसान नहीं, पर ऐतहासिक मोड़ पर लिये जाने वाले फैसले आसान कहां होते हैं!
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