राहुल की नई भूमिका
पंडित नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री वैिक मंच पर गर्व से घोषणा करते आए हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।
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किसी भी सफल लोकतंत्र का प्रमाण यह होता है कि उसमें पक्ष और विपक्षी दल सबल भूमिका में सक्रिय रहें। न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, महालेखाकार और जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता भी सुनिश्चित हो और वे निडर होकर काम कर सकें।
अनुभव बताता है कि हमारे देश में सत्ता पक्ष विपक्ष को कमजोर करने का हर संभव प्रयास करता है पर स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड या अमेरिका जैसे देशों में सत्ता पक्ष की ओर से ऐसे अलोकतांत्रिक प्रयास प्राय: नहीं किए जाते। किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए जरूरी होता है कि देश की गृह नीति ऐसी हो जिससे समाज में शांति व्यवस्था बनी रहे। सामुदायिक भेद-भाव या सांप्रदायिकता को बढ़ने का मौका न दिया जाए। विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति और सामाजिक कल्याण की नीतियों में निरंतरता बनी रहे इसके लिए विपक्ष को भी सरकार के साथ मिलकर रचनात्मक भूमिका निभानी होती है। भारत में मौजूदा राजनैतिक माहौल ऐसा बन गया है, मानो पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक न हो कर शत्रु हों। इस पतन की शुरुआत इंदिरा गांधी के जमाने से हुई जब उन्होंने चुनी हुई प्रांतीय सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारें बिठाना शुरू कर दिया।
इससे पारस्परिक वैमनस्य भी बढ़ा और राजनीति का नैतिक पतन भी हुआ पर यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौर में यह काम नगालैंड, गोवा और मेघालय जैसे छोटे राज्य छोड़ कर और कहीं नहीं हुआ। इसी कारण उस दौर में देश की आर्थिक प्रगति भी तेजी से हुई। मौजूदा दौर में भाजपा के नेतृत्व ने कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा देकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को अस्थिर कर दिया है। यह हर हथकंडा अपना कर चुनी हुई सरकारों को गिराने का काम कर रहा है। इससे न तो समाज में स्थायित्व आ पा रहा है, और न ही उमंग। हताशा और असुरक्षा फैलती जा रही है, जिसका विपरीत प्रभाव उद्यमियों, सरकारी कर्मचारियों, युवाओं और महिलाओं पर पड़ रहा है।
सरकार पर आरोप जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का भी लग रहा है, जो वह हर चुनाव के पहले कर रही है। ऐसे में जहां भाजपा 2024 के चुनावों में 360 संसदीय सीटें जीतने का लक्ष्य रख कर रणनीति बना रही है वहीं विपक्ष में भी भारी हलचल है। भाजपा की तरफ से एक आरोप लगाया जाता है कि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री के पद के लिए कोई सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है। 2004 में कांग्रेस ने चुनाव बिना प्रधानमंत्री के चेहरे के लड़ा था पर बाद में डॉ. मनमोहन सिंह के रूप में 10 बरस तक ज्ञानी, शालीन, बेदाग प्रधानमंत्री दिया जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बिना प्रचार के चुपचाप काम करके नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। मुख्यत: ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर और अरविंद केजरीवाल जैसे दावेदारों की चर्चा अक्सर होती रहती है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर कि विपक्षी एकता का प्रधानमंत्री चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, विपक्षी दलों के सामने चुनौती खड़ी कर दी है, जबकि राहुल ने आज तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं।
विपक्ष के हर दल के नेता और उसके कार्यकर्ता दिल में यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि वे एकजुट हो कर भाजपा के विरु द्ध खड़े नहीं होते तो 2024 में सरकार बनाने का उनका मंसूबा अधूरा रह जाएगा और तब उन्हें 2029 तक इंतजार करना होगा। इस बीच, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर विभाग इन नेताओं और उनके परिवारों के साथ क्या सलूक करेंगे, इसका ट्रेलर वो गत आठ वर्षो से देख ही रहे हैं। फिर भी वे नहीं चेते तो अपनी तुच्छ महत्त्वाकांक्षाओं के कारण भारत के लोकतंत्र को समाप्ति की ओर बढ़ता हुआ देखेंगे। इसलिए विपक्ष के लिए तो ‘करो या मरो’ की स्थिति है। भले ही प्रांतीय चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस, समाजवादी दल, भारत राष्ट्र समिति के नेता एक दूसरे पर बयानों के हमले कर रहे हों पर 2024 के चुनावों के लिए उनके ये बयान आत्मघाती हो सकते हैं। इसलिए इस दौर में राहुल की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई है। भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ रहे कुछ लोगों ने बताया कि इस यात्रा से राहुल के व्यक्तित्व में भारी बदलाव आया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आज तक एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राहुल के बराबर इतनी लंबी पदयात्रा की हो और उसमें भी पूरी आत्मीयता के साथ समाज के हर वर्ग से दिल खोल कर मिला हो।
इस जमीनी सच्चाई को देखने और समझने के बाद सुना है, राहुल निर्णय कर चुके हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनना, बल्कि समाज के आम आदमी को हक दिलाने के लिए संवेदनशील भूमिका में रहना है। यह सच है तो यह राहुल की बड़ी उपलब्धि है। इसलिए अब लोकतंत्र मजबूत करने में उनकी नई भूमिका बन सकती है। जहां कांग्रेस मानती है कि वो देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी है, इसलिए उसे वरीयता दी जानी चाहिए वहीं जमीनी हकीकत यह है कि देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस का नाम है ही नहीं। अनेक राज्यों में प्रांतीय सरकारें बहुत मजबूत हैं, और वहां कांग्रेस का वजूद लुप्तप्राय: है। जिन राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है, उन राज्यों में भी उसकी स्थिति अपने बूते पर सरकार बनाने की नहीं है। इसके अपवाद भी हैं पर कमोबेश यही स्थिति है। इस हकीकत को समझ और स्वीकार करके राहुल बड़ा दिल दिखाते हैं, और देश के हर बड़े विपक्षी नेता के साथ बैठ कर राजनैतिक स्थिति पर खुली चर्चा करते हैं, इस वायदे के साथ, कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो विपक्षी दलों को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
यही भाव ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और स्टैलिन को भी रखना होगा। तब ही विपक्ष उन गंभीर मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दे पाएगा जिन पर वो विफल रही है। मसलन, रोजगार, महंगाई, किसानों और मजदूरों की दशा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन आदि। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है, भाजपा सहित कोई भी दल बेदाग नहीं है। इसलिए उस मुद्दे को छोड़ कर बाकी सवालों पर भाजपा को घेरा जाएगा तो उसके लिए चुनौती तगड़ी होगी। इसी प्रक्रिया से लोकतंत्र मजबूत होगा और आम जनता को कुछ राहत मिलेगी।
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