बुंदेलखंड : कब तक रहेगा उपेक्षा का शिकार
यह वर्ष भारत की आजादी का वर्ष है और प्रधानमंत्री जी ने इसे अमृतकाल कहा है, परंतु इन 75 वर्षो में बुंदेलखंड क्षेत्र-जिसमें मध्य प्रदेश के 7 जिले तथा लगभग इतने ही उत्तर प्रदेश के जिले आते हैं-में आज भी विष-काल चल रहा है।
![]() बुंदेलखंड : कब तक रहेगा उपेक्षा का शिकार |
इस क्षेत्र की लगभग 6 से 7 करोड़ की आबादी आज भी भारत के तथाकथित विकास की तुलना में बहुत पीछे है। अगर हम ऐतिहासिक कारणों को देखें तो अंग्रेजी शासनकाल में भी बुंदेलखंड अंग्रेजों के निशाने पर रहा। क्योंकि इस पूरे अंचल में निरंतर विद्रोह के स्वर उठते रहे। इसलिए या तो अंग्रेजों ने इस अंचल में छावनियां बनायी ताकि अपनी सेना रखकर विद्रोह को दबाया जा सके या फिर अपनी राजसत्ता को कायम रखने और भारत की खनिज संपदा को खोदकर ले जाने के लिए एक-दो रेल लाइन डाली जो कि उनकी अपनी मजबूरी थी।
आजादी के बाद भी यह अंचल राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों की उपेक्षा का शिकार रहा क्योंकि यहां का नेतृत्व कभी भी अपने दल की केंद्रीय सत्ता को न समझा सका, ना मना सका और ना ललकार सका। सरकारों में हिस्सेदारी भी बहुत सीमित रही और अप्रभावी जैसी रही। अभी भी स्थिति यह है कि बुंदेलखंड में अनेकों नदियां हैं, परंतु बुंदेलखंड सूखा और भूखा है। ऐतिहासिक और धार्मिंक स्थल प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण हैं मगर अंचल को पर्यटन का कोई लाभ नहीं मिल पा रहा।
रोजगार और काम धंधा के नाम पर सुखी खेती और पत्थर खदान हैं, जिसके परिणाम स्वरूप प्रतिवर्ष लाखों लोग पलायन करने को लाचार होते हैं। भले ही बुंदेलखंड की आबादी देश की आबादी का लगभग 6 फीसद हो परंतु राष्ट्र के बजट में उसकी हिस्सेदारी 0.3 फीसद ही है। इसी प्रकार भारत के 80000 किलोमीटर रेल पथ में बुंदेलखंड के हिस्सेदारी 1 फीसद से भी कम है। झांसी रेल मंडल, देश के सबसे पुराने रेल मंडलों में से है और बीना बहुत पुराने जंक्शनों में है। इसके बावजूद भी बीना रेल मंडल और झांसी रेलवे का जोन नहीं बन सका। तेंदूपत्ता और बीड़ी उद्योग लगभग बंदी के कगार पर है, परंतु अपार संभावनाओं के बावजूद खाद्य प्रसंस्करण के कारखाने स्थापित नहीं हुए। बुंदेलखंड की समस्या को लेकर प्रतिवर्ष सैकड़ों लोग दिल्ली के जंतर मंतर पर आते हैं। अपनी आवाज पहुंचाते हैं, परंतु केंद्र और राज्य की सरकार कान और आंखें बंद कर मूक बनी रहती है। हालांकि, यह भी सही है कि बुंदेलखंड की जनता अपने प्रति होने वाले राजकीय भेदभाव और पिछड़ेपन को लेकर मुखर नहीं होती और कोई संघर्ष नहीं करना चाहती। डॉ. हरिसिंह गौर जैसे शिक्षा-दानी और मेजर ध्यानचंद जैसे राष्ट्रवादी खिलाड़ी, आज तक, भारत रत्न के हकदार नहीं हो सके।
महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ने जन सहयोग से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी और उन्हें भी लगभग 70 वर्षो के बाद भारत रत्न से विभूषित तब किया जा सका जब नरेन्द्र मोदी बनारस से चुनाव लड़कर जीते। राज्य सत्ता और उपाधियों का संबंध इससे समझा जा सकता है, परंतु, डॉ. हरिसिंह गौर जिन्होंने, 1946 में उस पिछड़े और गरीब अंचल में अपनी संपूर्ण कमाई को लगाकर बगैर किसी व्यक्ति या सरकार से सहयोग लिये विश्वविद्यालय की स्थापना की, उन्हें भारत नहीं मिल सका। इसी प्रकार मेजर ध्यानचंद जो न केवल हॉकी के जादूगर थे-अपराजेय थे बल्कि एक ऐसे राष्ट्रभक्त थे कि जिन्होंने जर्मनी में हिटलर जैसे तानाशाह को स्पष्ट उत्तर दिया था कि मैं भारतीय हूं और केवल भारत के लिए खेलूंगा। उन्हें भी भारत रत्न नहीं मिल सका। ललितपुर में एक्सप्लोसिव और मेडिसिन डिपो बनना थे, जो नहीं बने। सागर एक बहुत बड़े लंबे क्षेत्र का सैन्य क्षेत्र रहा है, परंतु रक्षा उत्पादन का कोई भी कारखाना सागर में नहीं खुला। यहां तक कि जिस डिफेंस कॉरिडोर की घोषणा हाल ही में प्रधानमंत्री जी ने की है वह भी झांसी से आगे ललितपुर सागर होकर जबलपुर तक नहीं जा सका। बुंदेलखंड की विभूतियों डॉ. हरिसिंह गौर, मेजर ध्यानचंद और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जीवनियाँ सरकारी पाठ्यक्रम में स्थान नहीं पा सकीं।
अपने राजनीतिक लक्ष्य और वोट के खेल के लिए सरकारें नई रेल लाइनें बिछा रही हैं, मगर लगभग 17 वर्षो से स्वीकृत और 7 वर्षो से संपूर्ण योजना के रूप में तैयार, रेल लाइनों को पैसा नहीं दिया जा रहा। बुंदेलखंड के सागर मंडल की दो करोड़ आबादी को दक्षिण से जोड़ने के लिए कोई सीधी रेल नहीं है, जबकि बुंदेलखंड के हजारों विद्यार्थी पढ़ने के लिए और जनता इलाज के लिए नागपुर, हैदराबाद, बंगलुरू और चेन्नई जाते हैं। दरअसल, बुंदेलखंड के पिछड़ेपन की वजह सरकारों की भेदभाव-पूर्ण नीति है। जहां से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन जाते हैं, सरकारों के बजट बजट की गंगा उसी दिशा में मुड़ जाती है। इस क्षेत्रीय अन्याय के विरु द्ध खड़े होना हर भारतीय का दायित्व है। अब तो सरकारों को बाध्य करना चाहिए कि, वह हर क्षेत्र को आबादी के समतुल्य, केंद्र और राज्यों के बजट में हिस्सेदारी देने का कानून बनाएं तथा जो क्षेत्र 75 वर्ष से उपेक्षित और पीछे रह गए हैं उन्हें विशेष बजट अनुदान देकर बराबरी पर आने और लाने की नीति बनाएं।
| Tweet![]() |