स्वामी सहजानंद : किसान आंदोलन के प्रणेता

Last Updated 21 Feb 2023 01:43:36 PM IST

अमृतकाल महोत्सव के अवसर पर भारत सरकार ने घोषणा की है कि स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के जिन पुरुषों के बलिदान एवं संघर्ष शीर्ष स्थानों में शामिल नहीं हो सके, वर्तमान सरकार उन घटनाक्रमों एवं महापुरुषों को महिमा मंडित करने का कार्य करेगी।


स्वामी सहजानंद : किसान आंदोलन के प्रणेता

स्वामी सहजानंद सरस्वती आजादी आंदोलन का वह सम्मानपूर्ण विस्मर्ण है जिस पर समूचे भारतीय समाज को गौरवान्वित होने का अनुभव होता है।

गांधी जी के भारत आगमन एवं चंपारण आंदोलन से पहले कांग्रेस पार्टी कुलीन एवं अभिजात्य वर्ग के भारतीयों का मंच था जहां अंग्रेज एवं चंद भारतीय सामाजिक विषय पर विचारों का आदान-प्रदान करते थे। गुजरात प्रांत में सरदार पटेल के नेतृत्व में खेड़ा और बारडोली के किसान संग्रामों में मिली सफलता ने किसानों का विश्वास स्थापित किया कि आजादी के बाद उनकी दशा-दिशा सुधारने का काम कांग्रेस पार्टी ही कर सकती है। स्वामी जी ने किसान आंदोलन को और जनमुखी बनाने का प्रयास किया जब उन्होंने स्वतंत्र भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त करने का शंखनाद किया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि समूचे उत्तर भारत में पार्टी का बड़ा नेतृत्व जमींदार परिवार से संबंधित था। भूमि सुधार, सामाजिक परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दों से नेतृत्व का बड़ा हिस्सा न सिर्फ  दूरी बनाए रखा था बल्कि समय-समय पर वर्ग हितों पर हो रहे हमलों का मजबूती से मुकाबला करने को भी तैयार रहता था। स्वामीजी गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में नागपुर सम्मेलन में शामिल हुए। इससे पूर्व उनका बैरागी मन सन्यास से ज्यादा प्रभावित था।

परिवारजनों ने उनके इस रुझानों पर विराम लगाने के लिए 16 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें विवाहित जीवन जीने हेतु मजबूर कर दिया। दुर्भाग्यवश: शादी के 2 वर्ष बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। परिवारजनों के स्नेहपूर्ण आग्रह को नकारते हुए वे पुन: विवाह बंधन में जाने से मना करने के बाद काशी पहुंचकर दशनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानंद से प्रथम दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बने। काशी के निकट ही उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला देवा ग्राम में 22 फरवरी 1989 को उनका जन्म हुआ। इसी दिन पवित्र त्योहार शिवरात्रि का भी ऊंचे पैमाने पर समारोह आयोजित होते हैं। धार्मिंक रुझानों के कारण ही 1908 में गुरु  की खोज में तीथरे का भ्रमण किया। पुन: 1909 में काशी पहुंचकर दशामेध घाट स्थित दण्डी स्वामी अच्युतानंद सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दण्ड प्राप्त किया और नाम पड़ा दण्डी स्वामी सहजानंद सरस्वती। 5 नवम्बर 1920 को पटना में मजहरु ल हक के निवास पर ठहरे महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद असहयोग आंदोलन का हिस्सा बन गांव-गांव घूमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को एकजुट किया। इसी सिलसिले में गांव-देहात की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को नजदीक से अध्ययन करने का अवसर मिला। प्रारंभ में लोग गेरु आ वस्त्रधारी युवा संन्यासी को देखकर अचरज में पड़ गए कि मठ-मंदिर में तप साधना करने के बजाय दलित-वंचितों की स्थिति जानने में अपनी ऊर्जा लगा रहा है। इसी क्रम में उन्हें जमींदारों द्वारा किसानों पर किए जा रहे जुल्मों को भी करीब से देखने का अवसर मिला।

1927 में पटना जिला के बिहटा में सीताराम जी द्वारा प्रदत्त भूमि में श्री सीताराम आश्रम बनाकर स्थायी निवास बनाया। 1929 में भूमिहार ब्राह्मण सभा से मतभेद के कारण नाता तोड़ने का निर्णय लिया। सर गणोश दत्त जी से हुए वैचारिक मतभेद इसका प्रमुख कारण बने। 1929 में प्रदेशव्यापी भ्रमण के बाद उन्होंने प्रांतीय किसान सभा का गठन किया। जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकान हक दिलाने के लिए संग्राम छेड़ दिया। बिहार 1934 के भयंकर पल्रयंकारी भूकंप से तबाह हुआ वो स्वामी जी प्रदत्त एवं पुनर्वास के कार्यों में संगठन को सक्रिय कर अग्रणी भूमिका निभाने लगे। भूकंप से तबाह किसानों के सामने बड़ा आर्थिक संकट पैदा हो गया। दूसरी ओर जमींदार किसानों से टैक्स देने के लिए निरंतर दबाव बनाए हुए थे। कई स्थानों पर जमींदारों के लठैतों द्वारा प्रताड़ित करने के प्रयास हुए। गांधी जी का इन्हीं दिनों पटना आगमन हुआ और उन्होंने किसानों की दुर्दशा का निर्मम चित्र गांधी जी के सामने रखा। जमींदारों की कार्यशैली और आक्रामक रु ख के कारण संघर्ष को उन्होंने क्रांतिकारी स्वरूप देना प्रारंभ कर दिया। और यही से कांग्रेस नेताओं के आचरण और सामंती समर्थक व्यवहार के कारण उनके मतभेद खुलकर सामने आने लगे।

सन 1934 में पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में एक विराट सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन में उपस्थित महानुभावों ने समूचे देश को चौंका दिया जब इस सम्मेलन में जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, आश्रम के महंत, आचार्य कृपलानी, डॉ. संपूर्णानंद और अच्युत पटवर्धन, ई.एम.एस. नंबूदरीपाद, अरुणा आसफ अली जैसे दिग्गज नेता उपस्थित रहे। यद्यपि समाजवाद और भूमि सुधारों के दो प्रबल समर्थक नेता इससे नदारद रहे जो निराशा एवं आलोचना का केंद्रबिंदु बने, लेकिन इसी बीच वर्ग संघर्ष की आवश्यक अनिवार्यता के सिद्धांत से खिन्न होकर पंडित रामानंद मिश्र, गंगा शरण सिंह एवं बसावन बाबू जैसे सहयोगी भी दूरी बनाने लगे। स्वामी जी का नारा ‘लट्ठ हमारा जिंदाबाद’ किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बनने लगा। 1936 में लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई, जिसमें सर्वसम्मति से स्वामी जी को अध्यक्ष चुना गया। किसान सभा में देशभर के नामी-गिरामी नेताओं का जमघट लगा, जिसमें एन.जी. रंगा, ई.एम.एस. नंबूदरीपाद, आचार्य नरेंद्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राममनोहर लोहिया, पी. सुंदरय्या,  बंकिम मुखर्जी और योगेंद्र शर्मा, पं. यदुनंदन शर्मा, शीलभद्र याजी आदि प्रमुख थे।

किसान सभा ने उसी साल किसान घोषणा पत्र जारी कर जमींदारी प्रथा को समाप्त कर सभी प्रकार के कर्ज माफी की मांग उठाई। 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन के बाद सुभाष चंद्र बोस भी कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रमों को लेकर निराश हो चले थे और उन्होंने स्वामी जी के साथ मिलकर जनसंघर्ष की अगुआई करने लगे। 26 जून 1950 को मुजफ्फरपुर में स्वामी जी महाप्रयाण कर गए। उन्हीं के संघर्ष का नतीजा रहा कि स्वतंत्र भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुई, लेकिन सपने अभी अधूरे हैं। वर्तमान में राजधानी में चले लंबे किसान आंदोलन के मुद्दों ने इसे साबित कर दिया है।
(लेखक पूर्व सांसद हैं)

के.सी. त्यागी


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