एशिया-प्रशांत क्षेत्र : दिल्ली-टोक्यो बॉन्डिंग

Last Updated 01 Feb 2023 01:47:06 PM IST

हिंद प्रशांत क्षेत्र भू-राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय दिख रहा है।


एशिया-प्रशांत क्षेत्र : दिल्ली-टोक्यो बॉन्डिंग

इसका कारण यह है कि इस क्षेत्र में चीन आक्रामक है, और एक विश्व व्यवस्था का निर्माण करने की कोशिश में है जिसकी केंद्रीय शक्ति वही हो। अमेरिका अपने पुराने युग की ओर देख रहा है, और इस उद्देश्य से चीन को रोकना चाहता है। जापान फिर से सैन्य ताकत बनने का सपना देख रहा है, और शेष देश इस गेम में चाहे-अनचाहे हिस्सा बन जा रहे हैं। क्या भारत-जापान के बीच परंपरागत मैत्री भर है अथवा इससे आगे की बात? निष्कर्ष की ओर प्रस्थान से पहले तीन बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है। पहला-वाशिंगटन स्थित सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में अपने वक्तव्य में जापान के व्यापार एवं उद्योग मंत्री यासुतोषी निशिमूरा का कथन कि अमेरिका और उसकी जैसी सोच रखने वाले दुनिया के लोकतांत्रिक देशों को नई वैश्विक व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना चाहिए।

उनका तर्क है कि शीत युद्ध के बाद मुक्त व्यापार और अर्थव्यवस्थाओं के कारण तानाशाही ताकतों को मजबूती मिली है। उनका इशारा बीजिंग और मॉस्को की तरफ था। दूसरा- दिसम्बर, 2022 में जापान ने अपनी रक्षा रणनीति में बदलाव लाने का निर्णय लिया। इसका उद्देश्य है जवाबी कार्रवाई के लिए सैन्य क्षमता में वृद्धि। तो क्या जापान नई एशियाई सैन्य शक्ति बनना चाह रहा है? क्या यह फिर से जापानी सैन्यवाद के उस युग की ओर लौटने की कोशिश है जिसका अंतिम परिणाम द्वितीय विश्व युद्ध अथवा हिरोशिमा, नागासाकी पर परमाणु हमला था? तीसरा है-जनवरी, 2023 में भारत के साथ जापान द्वारा पहला संयुक्त सैन्य अभ्यास करना।

अहम प्रश्न है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक जापान सैन्य शक्ति के विस्तार और अपग्रेडेशन के विरुद्ध रहा तो अब ऐसा क्यों? क्या जापान ने चीन की सैन्य ताकत को भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक दृष्टि से समझ लिया है? अथवा कारण कुछ और है? शी जिनिपंग कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) की 20वीं कांग्रेस में घोषणा कर चुके हैं कि 2049 तक चीन को उस हैसियत में ले चाहते हैं कि वह राष्ट्रीय शक्ति के रूप में दुनिया को नेतृत्व करे। अहम बात है कि अगर जिनिपंग एशियाई देशों के नेतृत्व वाली क्षेत्रीय व्यवस्था का आह्वान कर सकते हैं, जो तकनीकी तौर पर सैन्य गठबंधन की शक्ल का हो सकता है। अगर आज से दस वर्ष पूर्व तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओं चीन को सामुद्रिक महाशक्ति बनाने की घोषणा कर सकते हैं तो फिर आज हिंद-प्रशांत के प्रत्येक राष्ट्र को ऐसी महत्त्वाकांक्षा पैदा करने का पूरा करने का अधिकार है।

दरअसल, जापान को पता है कि चीन केवल अर्थव्यवस्था के कारण अपना दबदबा कायम करने में सफल नहीं हुआ है, बल्कि सैन्य ताकत कहीं अधिक निर्णायक है। इसलिए जापान को भी आर्थिक ताकत के साथ-साथ सैन्य शक्ति बनना होगा। इसी दिशा में आगे जाने के लिए जापान ने अपने रक्षा खर्च को दोगुना बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2 प्रतिशत तक पहुंचाने का निर्णय लिया है। इसका अर्थ हुआ कि 2027 तक जापान 320 अरब डॉलर रक्षा पर खर्च करेगा। जापान का यह ‘डिफेंस बिल्डअप प्लान’ वार्षिक बजट में 73 अरब डॉलर की वृद्धि करेगा। इसके बाद अमेरिका और चीन के बाद जापान दुनिया का तीसरा सबसे बड़े रक्षा बजट वाला देश हो जाएगा। हाल के वर्षो में न केवल ट्रांस-पेसिफिक, बल्कि पूरे हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन भू-राजनीति में जिस आक्रामकता का प्रदशर्न कर रहा है, वह किसी भी देश को अपनी रक्षा पंक्ति मजबूत करने और सैन्य गठबंधन को विस्तार देने के लिए विवश कर सकता है। उधर चीनी ऋण जाल अपना कार्य तो कर ही रहा है, साथ ही मलक्का से जिबूती तक अपनी सामुद्रिक शक्ति का विस्तार, चाइना-पाकिस्तान इकोनिमक कॉरिडोर (सीपेक) के जरिए ‘काश्गर से ग्वादर’ तक सैनिक-आर्थिक दीवार का निर्माण और ‘बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव’ द्वारा दुनिया में नये किस्म के उपनिवेशवाद की बुनियाद रखना नई विश्व व्यवस्था में असंतुलन व नये संघर्ष की संभावनाओं का संकेत है।

यदि कोविड 19 महामारी के कारण चीन बेनकाब न हुआ होता, दुनिया के अंदर उसके प्रति ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ न बढ़ा होता तथा आंतरिक चुनौतियों के कारण जिनिपंग बैकफुट पर आने के लिए विवश न हुए होते अथवा चीनी अर्थव्यवस्था सांसें न फूल रही होती तो चीन किसी नये इतिहास को लिखने की कोशिश में होता। रूस-यूक्रेन युद्ध के परिणाम कुछ और रहे होते तो शायद चीन ताइवान पर हमला कर चुका होता। ये स्थितियां बताती हैं कि जापान के लिए ही नहीं, बल्कि भारत सहित अन्य देशों के लिए भी जरूरी है कि साझी सामरिक नीति की ओर निर्णायक रूप में बढ़ें। भारत के साथ जापान का साझा युद्धाभ्यास इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। यह युद्धाभ्यास केवल जापान के भू-सामरिक हितों के लिहाज से महत्त्वपूर्ण नहीं,  बल्कि भारत के लिए ‘बैक-एंड प्रेसर’ (दूसरे छोर पर दबाव) की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है विशेषकर डोकलाम, गलवान और लद्दाख में चीनी पीपल्स आर्मी की हरकतों को देखते हुए।
 इस तरह की चीनी हरकतों में उसके दो उद्देश्य छिपे हैं।

पहला-अपेक्षाकृत छोटे और आर्थिक रूप से कमजोर देशों के अंदर भय पैदा करना कि वे चीनी छतरी के नीचे नहीं आए तो आर्थिक संकट का शिकार हो सकते हैं। दो-लघु स्तर के युद्ध लड़ना या सीमा पर दबाव बनाना ताकि और शक्तिशाली बनकर उभर सके। जरूरी है कि दूसरे देश भी अपनी सैन्य क्षमता को बेहतर बनाएं। ऐसे में नई दिल्ली-टोक्यो बॉन्डिंग अथवा नई दिल्ली-टोक्यो-वाशिंगटन ट्राईलेटरल अथवा नई दिल्ली-टोक्यो-वाशिंगटन-कैनबरा क्वाड्रिलैटरल अपेक्षित भी है, और अपरिहार्य भी। जब जिनिपंग ‘चीनी युग’ लाने के दंभ से बाहर न आ पा रहे हों और वाशिंगटन कभी बीजिंग की ओर खिसकता हुआ तो कभी दूर होता दिख कर भ्रम पैदा कर रहा हो तब नई दिल्ली-टोक्यो पुनर्सयोजन आवश्यक हो जाता है। वैसे भी भारत-जापान दोस्ती दो अर्थव्यवस्थाओं, दो संस्कृतियों, दो सामरिक शक्तियों, दो रणनीतियों और दो सार्थक संयोजनों की प्रतिनिधि है, जो नई एशियाई व्यवस्था की दृष्टि से विशिष्ट, पारस्परिक जरूरतों के साथ-साथ एशियाई सदी के लिए बेहतर संभावनाओं वाली हो सकती है।

डॉ. रहीस सिंह


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