मीडिया : संसदीय क्या असंसदीय क्या?
जब संसद में बोले गए ‘असंसदीय शब्दों’ की लिस्ट आई तो विपक्ष के कुछ प्रवक्ताओं और मीडिया के एक हिस्से ने सरकार पर आरोप लगाया कि अब संसद में बोलने की आजादी भी खत्म होने जा रही है क्या?
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क्या सांसदों की जुबान पर भी ताला लगाया जाएगा? जो शब्द सरकार को नापसंद हैं, उनको बैन किया जा रहा है। ऐसे में सांसद बोलेंगे तो क्या बोलेंगे? क्या मुंह पर टेप बांध कर काम करेंगे?
यद्यपि स्पीकर महोदय ने स्वयं मीडिया में आकर साफ किया कि ऐसे शब्दों की लिस्ट संसदीय सचिवालय द्वारा हर साल बनाई और प्रकाशित की जाती है लेकिन इसका मतलब सिर्फ यह बताना है कि क्या बोलना ‘असंसदीय’ है। ‘बैन’ करना नहीं है। अब देखें कि लिस्ट में कौन-कौन से शब्द हैं जिनको ‘असंसदीय’ ठहराया गया है? यह लिस्ट अब प्रकाशित है। इसी लिस्ट के आधार पर एक चैनल के एंकर ने ऐसे बहुत से शब्दों को पढ़ा जिनको अलग-अलग दलों की सरकारोें के कार्यकाल में ‘असंसदीय’ माना गया। इनमें सभी दलों की सरकारें शामिल बताई जाती हैं। इनमें से कुछ चुनिंदा शब्द इस प्रकार हैं-जुबान संभाल के, जुमला, जुमलाबाजी, तानाशाह, मिर्ची लगना, तलवे चाटना, चमचागीरी, निकम्मा, खालिस्तानी, गोबर, गुलर्छे, घड़ियाली आंसू, घंटानंद, अंधा बांटे रेवड़ी, अनर्गल, अनार्किस्ट, चिंतानंद, बाल बुद्धि, काला दिन, खून से खेती, चोर चोर मौसेरे भाई, गुल खिलाना, बेवकूफ, बॉबकट, औकात, गिरगिट, तड़ीपार, जयचंद, पागल, लुच्चे, क्रिमिनल, ठग, चेला, चमचा, कोवार्ड, शकुनि आदि आदि।
यहीं हमें भी शिकायत है लेकिन हमारी शिकायत संसद के सचिवालय से है कि वह बेकार में भाषा का दुश्मन बना हुआ है। कहने की जरूरत नहीं कि ये जितने भी शब्द हैं, उनमें से सारे के सारे जीवन के अनुभवों से निकले हैं। इनको न बोलने दिया जाएगा तो आदमी बोलेगा क्या? आप इन शब्दों को स्वयं देखें? क्या ये विदेशी भाषा के हैं या जीवन के अनुभवों से बने हैं? ‘चोर’ को ‘चोर’ न कह कर ‘शाह’ कहें? जो ‘निकम्मा’ है उसे क्या ‘मेहनती’ कहें? सच! यह लिस्ट ‘डरी हुई सत्ताओं’ और ‘नौकरशाहों’ के ‘दिमागों’ की उपज है जो न भाषा की ‘शब्दशक्ति’ यानी ‘लक्षणा’ को समझते हैं, न ‘व्यंजना’ को, न बोलचाल के मुहावरों की सटीकता समझते हैं। सो, असली खतरा बोलने की आजादी पर नहीं हमारी भाषा पर है और इसीलिए हमारी आपत्ति उसे ‘तमीज’ सिखाने पर है, ‘संसदीय शालीनता’ सिखाने पर है। यह अन्याय है।
कुछ को छोड़ हमारे अनेक सांसदों की भाषा एक दम ‘देसी’ है, ‘लोकल’ है और अगर इन शब्दों को संदर्भ के साथ देखें तो ये रेाजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले शब्द हैं। इसीलिए इनमें दोटूक तीखापन है। यों भी यह सोशल मीडिया का जमाना है। सोशल प्लेटफार्मो पर लिखी-बोली जाती भाषा ‘बिंदास’ होती है, और यही भाषा हमारे जीवन से लेकर मीडिया और संसद तक में आ पहुंची है। एकदम बेलौस, दोटूक भाषा है। मामूली आदमी की अहंकारी भाषा है, और आजकल यही सबकी जुबान पर रहती है। उसने हमारा शब्दकोश बदल दिया है। बातचीत का अंदाज बदल दिया है, और उसे ‘डाइरेक्ट’ कर दिया है।
अब भाषा में पुराने तरह की औपचारिकता नहीं बची हैं, न समाज में कोई ‘हाइरार्की’ यानी ‘ऊंच-नीच’ बची है कि आप हर बात पर अपने से बड़े के ‘बड़प्पन’ का खयाल रखें। उनको हमेशा ‘आदरणीय’ या ‘परमादरणीय’ कहकर संबोधित करें और जब अंत करें तो ‘सादर’ लगाना न भूलें और अंत में ‘आपका कृपाकांक्षी’, ‘आपका दासानुदास’ बताएं, आपका ‘परम आज्ञाकारी’ बताएं। यह भाषा ‘औपनिवेशिक’ है, जिससे हम पल्ला छुड़ा चुके हैं। क्या हम फिर उसी भाषा में जाएं? इस ‘श्रद्धाविहीन समय में ‘श्रद्धा’ या ‘आदर’ का ऐसा नकली प्रदर्शन हास्यास्पद ही हो सकता है। ऐसी औपचारिक भाषा किसी काम की न है, न हो सकती है। लिस्ट में जिन शब्दों को ‘असंसदीय’ बताया जा रहा है, वह ‘आलंकारिक भाषा’ है, उनमें ‘लक्षणाएं’, ‘व्यंजनाएं’ और ‘वक्रोक्तियां’ काम करती हैं, तभी उनमें दम आता है, और तीखी मारकता आती है, और तभी वे उतने ही तीखे प्रतिउत्तर पाते हैं।
बताइए, ऐसी जीवंत हिंदी भाषा को भी कुछ बाबू मनोवृत्ति के लोग मारने पर तुले हैं। शायद परेशान हैं कि संसद में जनता की भाषा में क्यों बात होती है। उसे तो ‘ऐेलीट’ की भाषा में होना चाहिए लेकिन हमारे सांसदों ने जनता की भाषा को ही संसद की भाषा बना डाला है। संसद और जनता की भाषा एक सी हो रही है, तो उसमें ‘संसदीय’ क्या और ‘असंसदीय’ क्या?
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