अफ्रीका महाद्वीप : विकास की प्राथमिकता जरूरी
आज अफ्रीका के अनेक देशों में भूख व अकाल का संकट विकट होने के समाचार मिल रहे हैं।
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अत: इस स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संगठन व विश्व खाद्य कार्यक्रम ने व्यापक स्तर पर आर्थिक राहत शिविरों व खाद्य सहायता के लिए कहा है। यह जरूरी तो है, पर केवल अल्प-कालीन राहत से दीर्घकालीन स्तर पर यहां की समस्याएं नहीं सुलझेंगी। दीर्घकालीन स्तर पर समाधान के लिए जरूरी है कि विकास की सही प्राथमिकताओं को अपनाया जाए।
अफ्रीका में अधिकांश किसान छोटे किसान हैं। इन छोटे किसानों के अनेक संगठन भी आज यही मांग कर रहे हैं कि कृषि व खाद्य क्षेत्र की प्राथमिकताओं में महत्त्वपूर्ण सुधार किया जाए तभी दीर्घकालीन व टिकाऊ समाधान मिलेंगे। इन किसान संगठनों का दावा है कि पश्चिमी देशों से सहायता प्राप्त ऐसे कार्यक्रम अफ्रीका के एक बड़े भाग में चलाए गए हैं, जो बड़ी कंपनियों के बीजों, रासायनिक खाद व कीटनाशकों के प्रसार पर आधारित हैं। इन्हें अफ्रीका की हरित क्रांति के नाम पर फैलाया गया है। इसकी प्रमुख परियोजना एज़ी.आर.ए. जिसे संक्षेप में आगरा भी कहा जाता है। अब तो पश्चिमी देशों के स्वतंत्र विशेषज्ञ भी इसकी भरपूर आलोचना कर रहे हैं कि इसने अफ्रीका के छोटे किसानों पर महंगी तकनीकें थोपने का कार्य किया है जो वहां की स्थितियों के अनुकूल भी नहीं है। यदि ऐसे कार्यक्रमों के लिए पश्चिमी देशों से धन आता है तो इससे कहीं अधिक धन अफ्रीकी देशों की सरकारों को सब्सिडी के नाम पर खर्च करना पड़ता है। इस तरह अफ्रीकी देशों का कृषि बजट बाहरी व्यावसायिक हितों को बढ़ाने पर खर्च होता है, जबकि टिकाऊ खेती, पर्यावरण हितों के अनुरूप खेती को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त संसाधन सरकार के पास बचते ही नहीं हैं।
बड़ी कंपनियों ने अनेक स्थानों पर बड़े क्षेत्र हथिया लिये हैं जहां केवल उस फसल की मोनोकल्चर खेती होती है, जिसकी उस कंपनी को जरूरत है। यहां पहले मजबूत जैव-विविाता वाली वह खेती किसान करते थे जो स्थानीय मिट्टी व पानी की स्थितियों के अनुकूल थी। बड़ी कंपनियों की मोनोकल्चर खेती से भूमि की उर्वरता का व जल-संसाधनों का तेजी से हास होता है। इस तरह जब बड़े क्षेत्रफल पर भूमि-उपयोग बदल जाता है तो पशुपालकों के मार्ग भी अवरुद्ध हो जाते हैं। अफ्रीका में सीमित संसाधनों का उचित उपयोग करने में घुमंतू पशुपालकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने किसानों से अच्छा तालमेल मिलाया हुआ था। पर बड़ी कंपनियों की खेती में ऐसा तालमेल बन पाना संभव नहीं है। बड़े व्यावसायिक हितों के अनुकूल कृषि व विकास नीतियां जबसे अपनाई गई हैं तबसे सारण छोटे किसानों व घुमंतू पशुपालकों दोनों की कठिनाइयां बढ़ी हैं।
इससे पहले औपनिवेशिक शासन काल की भी यही कहानी थी। सबसे अधिक अत्याचार तो गुलाम व्यापार के नाम पर हुए थे। औपनिवेशिक ताकतों ने अपने संकीर्ण स्वाथरे के लिए अफ्रीकी देशों का कृत्रिम बंटवारा किया। यह करते समय पशुपालकों के मागरे व लोगों की परंपरागत लेन-देन की उपेक्षा की गई। इस तरह परंपरागत सामाजिक व आर्थिक सहयोग व ताने-बाने की जो क्षति हुई वह आज तक चल रही है। अब समय आ गया है कि अफ्रीका की विकास की प्राथमिकताओं को यहां के किसानों, पशुपालकों व अन्य, समुदायों की जरूरतों के अनुकूल बनाया जाए। इसके लिए पर्यावरण की जरूरतों व परंपरागत ज्ञान की खूबियों की सही समझ होना भी जरूरी है। परंपरागत ज्ञान की समझ से पर्यावरण व टिकाऊ आजीविका में तालमेल बनाने में मदद मिलेगी। बढ़ती भूख की समस्या के बीच यह याद दिलाना जरूरी है कि वर्ष 1971-2011 के 40 वर्षो के बीच सेहल क्षेत्र, हार्न ऑफ अफ्रीका क्षेत्र व अन्य क्षेत्रों में लाखों लोग भुखमरी और अकाल से मारे गए हैं। विकास व पर्यावरण पर विश्व आयोग ने वर्ष 1987 में बताया था कि पिछले लगभग तीन वर्षो में अफ्रीका में अकाल व भुखमरी से लगभग दस लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। 1970 से 2022 के बाद के 52 वर्षो में किसी अन्य क्षेत्र में भूख से इतनी अधिक मौतों का कोई अन्य उदाहरण नहीं है। इससे पहले 1959-60 के आसपास चीन में ‘बड़ी छलांग’ के दौर में इससे भी अधिक मौतें अकाल व भुखमरी में हुई थीं।
विश्व खाद्य संगठन व विश्व खाद्य कार्यक्रम ने वर्ष 2021 के आरंभ में रिपोर्ट तैयार की थी ‘हंगर हॉटसपाट’ जिसमें विश्व में उन 20 देशों की पहचान की गई थी, जहां भूख की समस्या सबसे कम है व भविष्य में और उग्र हो सकती है। इन 20 देशों में से 12 देश अफ्रीका महाद्वीप के थे। इसके बाद के सवा वर्ष को देखें तो तबसे लेकर अब तक अत्यधिक भूख से प्रभावित अफ्रीकी देशों व क्षेत्रों की संख्या और बढ़ गई है। नाईजीरिया व केन्या की गिनती अपेक्षाकृत ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति के देशों में होती है पर यहां के कुछ बड़े क्षेत्रों में भी भूख की समस्या काफी विकट है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार 2010-2012 के दौरान केवल एक देश सोमालिया में भुखमरी और अकाल से 2,60,000 मौतें हुई थीं। 21वीं शताब्दी में किसी एक देश में इतने कम समय में भूख से इतनी मौतें होने का कोई भी समाचार नहीं है। ऐसी आशंकाओं और डर को देखते हुए अफ्रीका में भुखमरी व अकाल से राहत के लिए प्रयासों को तेजी से बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए युद्धस्तर पर कार्यक्रम तैयार करने होंगे और समझदारी से कार्यक्रमों पर अमल करना होगा। इसके साथ ही अफ्रीका में कृषि, पशुपालन व जलवायु बदलाव अनुकूलन नीतियों को बेहतर करने की बहुत जरूरत है।
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