सावन : अद्भुत है शिव की समन्वय शक्ति

Last Updated 13 Jul 2022 09:43:23 AM IST

भारतीय संस्कृति को जो विशेषता विश्व में सबसे विशिष्ट बनाती है, वो है उसकी समन्वय-शक्ति।


सावन : अद्भुत है शिव की समन्वय शक्ति

भारतीय संस्कृति की समन्वय-शक्ति ही है कि वो परस्पर विराट प्रतिकूलताओं के मध्य भी एक सार्थक अनुकूलता की संभावना का संधान और सिद्धि कर लेती है। प्रश्न उठता है कि भारतीय संस्कृति में समन्वय का ऐसा विराट गुणधर्म कहां से आया? क्या ये स्वत: ही विकसित हुआ? उत्तर भी इसी संस्कृति के ज्ञान-ग्रंथों में मिलता है कि स्वत: तो इस संसार में एक पत्ता भी नहीं डोलता तब और कुछ की बात ही क्या करनी! हमारी सांस्कृतिक चेतना हमें यही उपदेश देती है कि सृष्टि में जोभी घटित होता है, उसके मूल में ईश्वर की इच्छा ही प्रधान होती है। अत: संस्कृति के समन्वयकारी स्वरूप के स्रोत का कारण भी वह ईश्वर-तत्त्व ही है। कैसे? इसके साक्षात उदाहरण स्वयंभू, सनातन, देवों के भी देव एवं ईश्वरों के ईश्वर चंद्रमौलि भगवान शिव हैं।

महेर, महादेव, शंकर, त्रिपुरारी, नीलकंठ जैसे अनिगनत नामों से सुशोभित भगवान शिव का स्वरूप व जीवन समन्वय का साक्षात रूप है। अपनी वेशभूषा और रहन-सहन से लेकर परिवार जीवन तक शिव प्रतिकूलताओं में अनुकूलता की रचना करते दृष्टिगत होते हैं। एक ओर रूप से ‘कर्पूरगौरम’ हैं, दूसरी ओर ‘भस्मांगरागाय’ होकर विकट वेश बना लेते हैं। अमृत और विष दो विपरीत वस्तुएं हैं, परन्तु शिव मस्तक पर अमृतवर्षी चंद्रमा को धारण कर चंद्रमौलि रूप में सुशोभित होते हैं, तो कंठ में हलाहल विष को स्थान देकर विषपायी नीलकंठ कहलाते हैं। योद्धा ऐसे विकट हैं कि एक ही बाण से एक ही प्रहार में तीन दुर्भेद्य पुरों का विनाश कर त्रिपुरारी कहलाते हैं, तो वहीं नृत्य ऐसा करते हैं कि नटराज के रूप में हर नृत्यप्रेमी के लिए पूज्य बन जाते हैं। एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे में डमरू लेकर युद्ध की अशांति में संगीत की विश्रांति का समन्वय करते चलते हैं।

जब समाधि लगाते हैं तो हजारों हजार वर्ष तक नेत्र नहीं खोलते, वहीं जब माता पार्वती के साथ विहार में रत होते हैं, तो उसमें भी समाधि-सा ही डूब जाते हैं। संन्यास और श्रृंगार का ऐसा समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। उन्हें साधु-संत-देवता भी पूजते हैं, तो रावण-बाणासुर जैसे राक्षस और असुर भी उनकी भक्ति कर इच्छित वरदान प्राप्त करते हैं। उनकी दृष्टि में किसी के प्रति कोई भेदभाव नहीं है। वे सब पर समान भाव से प्रसन्न होते हैं। एक ओर योग, धनुर्वेद, मृतसंजीवनी, स्तंभिनी जैसी असंख्य विद्याओं के प्रणोता विद्वान हैं, तो दूसरी ओर इतने भोले हैं कि एक चोर मंदिर में लगे घंटे को चुराने के लिए जब शिवलिंग पर चढ़ जाता है तो यह मानकर कि इसने तो स्वयं को ही मुझे समर्पित कर दिया, तत्क्षण उसे वर देने के लिए प्रकट हो जाते हैं।

जीवन पर्यत पाप करने वाले एक व्याध द्वारा शिकार करने के उपक्रम के दौरान अनजाने में शिवलिंग पर बिल्व-पत्र और जल चढ़ जाता है, तो प्रसन्न होकर उसे सब पापों से मुक्त कर अपना लोक प्रदान कर देते हैं। क्रुद्ध होते हैं तो सृष्टि विस्तार के कारणभूत कामदेव को भी दग्ध कर देते हैं, परन्तु कोमल इतने हैं कि एक लोटा जल और वन में उगने वाले भांग-धतूरे के चढ़ावे भर से तत्क्षण प्रसन्न होकर सब मनोवांछित प्रदान कर देते हैं। इन विपरीतताओं के समन्वय के कारण ही एक ओर देवों के देव महादेव के रूप में पूजित होते हैं, तो दूसरी ओर भक्तवत्सल भोलेनाथ के रूप में भी भजे जाते हैं। शिव का परिवार भी उनकी ही तरह का है, जिसमें शेर-गाय और मोर-सांप-चूहा जैसे परस्पर विरोधी प्राणी भी शिव की समन्वय-शक्ति की छाया में प्रेम और शांति से साथ-साथ रहते हैं। स्त्री-पुरुष के द्वंद्व का समाधान करते हुए अर्धनारीर के रूप में शिव ने जो विराट समन्वय प्रस्तुत किया है, उसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

शिव के इस समन्वयकारी स्वरूप का विस्तार केवल उनके परिवार तक ही नहीं है, अपितु भारतीय लोक में भी उसकी स्पष्ट उपस्थिति दृष्टिगत होती है। तभी तो कहीं उनका ‘त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टि वर्धनम’ जैसे वैदिक महामंत्र से आह्वान किया जाता है, तो कहीं ‘गंजेड़ी बूढ़ऊ’ से लेकर ‘हमसे भंगिया ना पिसाई ए गणोश के पापा’ जैसे ठेठ लोकगीतों के द्वारा भी वे अवराधे जाते हैं। कहीं अत्यंत वैदिक विधि-विधान से रुद्राभिषेक संपन्न होता है, तो कहीं कांवड़िये विशुद्ध लौकिक व्यवहार के साथ अड़भंगी की तरह नाचते-गाते जल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाकर उनका लौकिक अभिषेक कर देते हैं। शिव को समर्पित श्रावण मास में कहीं लोग एकदम सात्विक जीवन बिताते हैं, तो कहीं शैव परम्परा से ही सम्बद्ध साधु तामसी जीवन बिताते हुए अघोरी बन तंत्र-मंत्र सिद्ध करने में लगे होते हैं। समग्रत: स्पष्ट है कि शिव की समन्वय-शक्ति की व्याप्ति भारतीय लोक में बड़े व्यापक रूप में है।

अब ऐसे समन्वयस्वरूप महादेव को पूजने वाली भारत की सनातन संस्कृति के चरित्र में भी यदि समन्वय की विराट शक्ति उपस्थित है, तो इसमें आश्चर्य कैसा? शिव ही सत्य हैं, शिव ही सनातन हैं, शिव ही सुंदर हैं और शिव से परे सृष्टि में कुछ भी नहीं है, ऐसा पुराणों का मत है। शिव की भक्ति को मन में बिठाकर जीवन में उनकी समन्वय-शक्ति का यथासंभव संधान करते हुए कर्मपथ पर सतत गतिशील रहना न केवल व्यक्ति अपितु समस्त सृष्टि के कल्याण का मार्ग है।

पीयूष द्विवेदी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment