सर्वदलीय सरकार की आहट
श्रीलंका में जारी गहरे राजनीतिक संकट के बीच यह सुकून देने वाली खबर है कि वहां प्रमुख विपक्षी दल अंतरिम सर्वदलीय सरकार के गठन पर राजी हो गए हैं।
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हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नागरिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों के अधिकार और मानवाधिकार के मामलों में दागदार रिकॉर्ड रखने के बावजूद कोलंबो दक्षिण एशिया का पुराना लोकतांत्रिक देश है। वहां की जनता का लोकतंत्र और उसके मूल्यों के साथ पुराना अनुभव है। लिहाजा, श्रीलंका की समस्याओं का समाधान संसदीय राजनीति से ही निकलेगा। इसलिए देश को आर्थिक बदहाली, राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता से बाहर निकालने के लिए फौरन एक स्वच्छ, ईमानदार और आर्थिक प्रबंधन में कौशल रखने वाली जनपक्षीय लोकतांत्रिक सरकार की आवश्यकता है।
श्रीलंका को आर्थिक बदहाली और राजनीतिक संकट की अंधेरी सुरंग में ढकेलने की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राष्ट्रपति गोटाबाया और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को नये राजनीतिक नेतृत्व के उभरने की जमीन तैयार करने में मदद करनी चाहिए। उम्मीद की जा रही है कि गोटाबाया के इस्तीफे की घोषणा के बाद महंगाई और रोजमर्रा की चीजों की किल्लत से त्रस्त आंदोलनकारी कुछ राहत महसूस करेंगे और देर-सबेर अपने घरों को लौट जाएंगे।
श्रीलंका में शनिवार और रविवार को जो दृश्य दिखाई दिए उसने ‘अरब स्प्रिंग’ की स्मृतियों को ताजा कर दिया। मध्य पश्चिमी एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका में सिलसिलेवार विरोध प्रदर्शनों एवं धरने का दौर 2010 में शुरू हुआ था, इसे ‘अरब स्प्रिंग’ या ‘अरब जागृति’ कहते हैं। ‘अरब स्प्रिंग’ क्रांति की लहर थी, जिसकी मुख्य वजह आम जनता की वहां की सरकारों से बदहाल अर्थव्यवस्था, तानाशाही तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर नाराजगी थी। श्रीलंका की घटना विश्व के सभी देशों की सरकारों विशेषकर पिछड़े और अर्धविकसित देशों की सरकारों के लिए सबक है। अगर शासक वर्ग जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करेगा तो उसे जनाक्रोश के आगे घुटने टेकने पड़ेंगे।
इस बीच भारत ने ‘पड़ोस पहले’ की नीति का अनुसरण करते हुए कहा है कि वह श्रीलंका के लोगों के साथ खड़ा है। भारत सहित विश्व समुदाय को पहल करनी चाहिए कि श्रीलंका में जल्द-से-जल्द एक जनपक्षीय सरकार का गठन हो। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं को भी कोलंबो को आर्थिक बदहाली के दौर से निकालने के लिए अपने नियमों को थोड़ा शिथिल करना चाहिए।
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