शिवसेना : ये हश्र तो होना ही था

Last Updated 28 Jun 2022 04:38:55 AM IST

महाराष्ट्र की राजनीति की तस्वीर धीरे-धीरे चाहे जितना कुरूप हो रही हो इसमें हैरत का कोई कारण नहीं है।


शिवसेना : ये हश्र तो होना ही था

शिवसेना के अंदर उद्धव ठाकरे अल्पमत में है। ज्यादातर विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं। उद्धव के नेतृत्व में महा विकास आघाड़ी की सरकार विधानसभा में बहुमत खो चुकी है। कोई अपनी सरकार आसानी से गंवाना नहीं चाहता और यही कोशिश उद्धव और उनके साथी कर रहे हैं। इन कोशिशों से महाराष्ट्र का वातावरण विषाक्त हो रहा है।
सामान्यत: सत्ता की राजनीति में पद मिलने न मिलने के कारण असंतोष और पाला बदलने या विद्रोह करने की घटनाएं ज्यादा हुई हैं। यह नहीं कहा जाता कि इसमें यह पहलू नहीं है किंतु इसमें शिंदे सहित उनका साथ देने वाले ज्यादातर विधायकों ने विचारधारा का प्रश्न उठाया। एक ही शर्त रखी कि उद्धव कांग्रेस और राकांपा का साथ छोड़ भाजपा के साथ आएं। उद्धव इसे मानने को तैयार नहीं हुए तो विभाजन तय था। केवल पद की लड़ाई होती तो मामला निपट गया होता। उद्धव ने अपनी लाइव अपील में कहा, ‘मैं मुख्यमंत्री से शिवसेना प्रधान तक सारे पद छोड़ने को तैयार हूं, आप लोग लौट आइए, बैठ कर बात करते हैं।’ इतनी भावुक अपील का भी विधायकों पर असर नहीं हुआ। मुख्यमंत्री निवास ‘वष्रा’ से निकल कर मातोश्री आना भी भावनात्मक रूप से लोगों का दिल जीतने और उनको वापस लाने की कोशिश थी। स्वयं संजय राउत स्वभाव के विपरीत विनम्र भाषा में अपील करते रहे। सारी कोशिशें विफल होने के बाद डराने-धमकाने और औकात दिखाने वाला तेवर सामने आया। बावजूद शिंदे और उनके साथी विधायक अपनी जगह कायम रहे तो फिर इसे सामान्य विघटन नहीं माना जा सकता।
वैसे तो भारत के किसी बड़े राज्य में गठबंधन का नेतृत्व करने वाली पार्टी के अंदर एक साथ इतने विधायकों के नेतृत्व के खिलाफ जाने की घटना हाल के दशक में नहीं हुई। दूसरे, हिंदुत्व की विचारधारा के नाम पर सत्ता त्यागने तक की सीमा तक जाने की घटना भी भारत की राजनीति में इस तरह सामने नहीं आई थी। इस नाते विद्रोह का महत्त्व बढ़ जाता है। टेलीविजन कैमरों में साफ दिखा कि शिंदे के साथ रेडिसन ब्ल्यू होटल, गुवाहाटी में 42 विधायक मौजूद हैं। यहां तक कि उद्धव की ओर से जो दूत बनकर गए वही वहां उन्हीं के होकर रह गए। यह कहना कि सभी विधायक अपहृत हैं, हास्यास्पद है। आजकल सोशल मीडिया, सूचना तकनीक जैसे अनेक औजार हमारे पास हैं, जिनसे हम कहीं से अपनी भावना सार्वजनिक कर सकते हैं। जिन विधायक ने जबरन ले जाने का आरोप लगाया उनके भी विजुअल सामने हैं, जिनमें वह सहायता से बातचीत करते मुस्कुराते दिख रहे हैं।

सच कहा जाए तो इस पूरे प्रकरण में किसी ने सबसे ज्यादा खोया है, तो वह उद्धव हैं। सत्ता जाना निश्चित है, और उनके नेतृत्व वाली शिवसेना का महाराष्ट्र में प्रभावी पार्टी के रूप में अस्तित्व भी संकट में आ गया है। आनन-फानन में बुलाई गई कार्यकारिणी की बैठक में पारित प्रस्तावों में मराठी अस्मिता और हिंदुत्व के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई लेकिन लंबे समय तक हिंदुत्व के मुद्दे पर उग्र रहने वाली पार्टी राकांपा और कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा और संघ विरोधी बुद्धिजीवियों, कलाकारों, एक्टिविस्टों को खुश करने के लिए उनके एजेंडा पर काम करने लगे तो पार्टी के अंदर असंतोष होना स्वभाविक है। सत्ता के कारण कुछ समय तक यह दबा रहता है। जिन्हें लाभ मिला वे भी अंदर के धिक्कार को दबाते हुए कुछ समय तक चुप रहते हैं किंतु एक समय इनका विस्फोट होना ही है। विचारधारा से कटने के कारण उद्धव अपने लोगों से भी कट गए। संजय राउत उनके आंख-कान बन गए तथा शिवसेना के अपने पुराने साथियों से ज्यादा राकांपा के नेता महत्त्वपूर्ण हो गए थे। शरद पवार की बात सरकार के लिए अंतिम मानी जाने लगी। भले उससे शिवसेना के साथियों में असंतोष ही क्यों न बढ़े। प्रश्न उठ रहा है कि शिंदे को ढाई साल बाद हिंदुत्व क्यों याद आया? इसका उत्तर वही जाने किंतु विद्रोह करना आसान नहीं होता। महाराष्ट्र और मुंबई में ठाकरे परिवार के विरु द्ध, वह भी सत्ता की ताकत के सामने खड़ा होना आसान नहीं होता। इसलिए देर हुई नहीं हुई है, इस पर बहस की बजाय आज का सच स्वीकार करना चाहिए।
उद्धव ठाकरे, संजय राउत और इनके दूसरे साथियों की भाषा बता रही है कि अंदर से वे कितने परेशान हैं। अपने बाप के नाम का इस्तेमाल करें बाला साहेब ठाकरे का नहीं, जैसी भाषा का प्रयोग सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं है। तिलमिलाहट और शालीन दादागिरीनुमा भाषा हमेशा विफलता का ही प्रमाण होती है। यह सच है कि बाला साहेब ठाकरे उद्धव ठाकरे के पिता थे किंतु शिवसेना के सभी लोगों ने उनके ही मार्गदशर्न में राजनीति की है। इस नाते वे केवल परिवार की बपौती नहीं हो सकते। दूसरे, बाला साहेब के रहते शिवसेना ने कभी राकांपा और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की न कोशिश की और न चुनाव लड़ने की ही। भाजपा के साथ उनके संबंध हमेशा सामान्य रहे। 2019 का विधानसभा चुनाव भाजपा शिवसेना साथ मिलकर लड़ी थीं और जनता ने गठबंधन को बहुमत दिया था। महाराष्ट्र में संदेश यही था कि विजय मिलने पर देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री होंगे। परिणाम आने के साथ शिवसेना ने स्टैंड बदल लिया। मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी जिसे भाजपा ने स्वीकार नहीं किया। फिर जो कुछ हुआ सबके सामने है। उद्धव से विद्रोह कर अलग होने वाले विधायकों को गद्दार कहा जा रहा है। दूसरे, बाला साहेब उद्धव के पिता अवश्य थे लेकिन वह एक विचार भी थे। बाला साहेब के विचार से हम सहमत-असहमत होंगे लेकिन उद्धव उनके विचार की राजनीति नहीं कर रहे थे, यही सच है। तीसरे, मुख्यमंत्री के रूप में ‘वष्रा’ से वे जब भी लाइव हुए, पृष्ठभूमि में केवल महाराष्ट्र का चित्र रहता था, बाला साहेब का नहीं। मातोश्री में आने के बाद महाराष्ट्र के साथ देश ने बाला साहेब की तस्वीर देखी। तो बाला साहेब को गायब करके आप किसे खुश कर रहे थे? क्या यह बाला साहेब का सम्मान था? इसलिए पिता का पुत्र होना पर्याप्त नहीं है। उससे एकाधिकार नहीं हो जाता। बाला साहेब के रास्ते पर उधर चले होते तो यह नौबत नहीं आती कि सरकार भी जा रही है, और पार्टी भी विखंडित हो गई। संजय राउत जैसे सलाहकारों को महत्त्व देना बता रहा था कि उद्धव विचारधारा और गठबंधन के साथ प्रतिबद्धता की राजनीति नहीं, कुछ और कर रहे हैं, और उसका परिणाम यही आना था।

अवधेश कुमार


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