मुद्दा : हमारी समझदारी से ही बचेगी धरती

Last Updated 15 Jun 2022 01:51:56 AM IST

पर्यावरणीय प्रदशर्न के मामले में अमेरिका स्थित संस्थानों के एक सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में सबसे निचले पायदान पर है।


मुद्दा : हमारी समझदारी से ही बचेगी धरती

हालांकि भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने इस सूचकांक को खारिज करते हुए कहा है कि इसमें उपयोग किए गए सूचक अनुमानों और अवैज्ञानिक तरीकों पर आधारित हैं। गौरतलब है कि ‘येल सेंटर फॉर एनवार्यनमेंटल लॉ एंड पॉलिसी’ और कोलंबिया यूनिर्वसटिी के ‘सेंटर फॉर इंटरनेशनल अर्थ साइंस इंफॉरमेशन नेटवर्क’ द्वारा हाल में प्रकाशित 2022 पर्यावरण प्रदशर्न सूचकांक (ईपीआई) में डेनमार्क सबसे ऊपर है। इसके बाद ब्रिटेन और फिनलैंड को स्थान मिला है।

ईपीआई 11 श्रेणियों में 40 प्रदशर्न संकेतकों का उपयोग करके 180 देशों को जलवायु परिवर्तन प्रदशर्न, पर्यावरणीय स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र स्थिति के आधार पर अंक देता है। इस सूचकांक के आंकड़ों की बात छोड़ दें तो भी कटु सत्य है कि पूरी दुनिया में विकास के नाम पर पर्यावरण की अनदेखी की जा रही है।  पिछले साल और इस साल भी लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण पर पड़े सकारात्मक असर से यह बात तो साफ हो गई है कि हम चाहें तो प्रदूषण कम कर सकते हैं। लेकिन आज विभिन्न देशों में अनेक मंचों से जो पर्यावरण बचाओ आंदोलन चलाया जा रहा है, उसमें  अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है। पर्यावरण सभी बचाना चाहते हैं, लेकिन अपने त्याग की कीमत पर नहीं, बल्कि दूसरों के त्याग की कीमत पर। स्थायी विकास, हरित अर्थव्यवस्था और पर्यावरण संबंधी विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा जरूरी है, लेकिन इसका फायदा तभी होगा जब हम व्यापक दृष्टि से सभी देशों के हितों पर ध्यान देंगे। गौरतलब है कि ग्रीन इकोनॉमी के तहत पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सभी वगरे की तरक्की वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण करना शामिल है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हरित अर्थव्यवस्था के उद्देश्यों के क्रियान्वयन के लिए विकसित देश विकासशील देशों की अपेक्षित सहायता नहीं करते।

स्पष्ट है कि उनकी हठधर्मिंता की वजह से पर्यावरण के विभिन्न मुद्दों पर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाती। पर्यावरण की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। हालात ये हैं कि मौसम का समस्त चक्र भी अनियमित हो गया है। वैज्ञानिकों का मानना है मौसम की यह अनिश्चितता और तापमान का उतार-चढ़ाव जलवायु परिवर्तन के कारण हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण एक ही ऋतु में किसी एक जगह पर ही मौसम में उतार-चढ़ाव या परिवर्तन हो सकता है। इस दौर में पर्यावरण को लेकर कुछ अंतराल पर विभिन्न अध्ययन प्रकाशित होते रहते हैं। कभी-कभी इन अध्ययनों की विरोधाभासी बातों को पढ़कर लगता है कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन जब पर्यावरण के बिगड़ते स्वरूप पर गौर किया जाता है तो जल्दी ही यह भ्रम टूट जाता है। वास्तव में हम पिछले अनेक दशकों से भ्रम में ही जी रहे हैं। यही कारण है कि पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। मानना होगा कि जलवायु परिवर्तन की समस्या किसी एक शहर, राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं। इसीलिए इस समय संपूर्ण विश्व में पर्यावरण के प्रति चिंता देखी जा रही है। हालांकि इस चिंता में खोखले आदशर्वाद से लिपटे हुए नारे भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलनों में हम इस तरह के नारे अक्सर सुनते रहते हैं। सवाल है कि क्या खोखले आदशर्वाद से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हल हो सकता है? यदि विकसित देश एक ही लीक पर चलते हुए केवल अपने स्वाथरे को तरजीह देने लगें तो जलवायु परिवर्तन पर उनकी बड़ी-बड़ी बातें बेमानी लगने लगती हैं।

दरअसल, जब हम प्रकृति का सम्मान नहीं करते हैं तो वह प्रत्यक्ष रूप से तो हमें हानि पहुंचाती ही है, परोक्ष रूप से भी हमारे सामने कई समस्याएं खड़ी करती है। पिछले दिनों इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं और लड़कियों के प्रति होने वाली हिंसा में इजाफा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार गरीब देशों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में सरकारें विफल हो रही हैं। इसके कारण संसाधन बर्बाद हो रहे हैं। इसका असर बढ़ती हुई लैंगिक असमानता के रूप में दिखाई दे रहा है। जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे इलाकों में संसाधनों पर काबिज होने के लिए वर्ग संघर्ष जारी है। दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में कई तौर-तरीकों से समाज पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि विकासशील देशों को भाषण देने से पहले विकसित देश स्वयं अपने गिरेबान में नहीं झांकते। हमें समझना होगा कि सिर्फ नारों से पृथ्वी नहीं बचेगी। ग्लोबल वार्मिग एवं जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए विकसित देशों को विकासशील देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा नहीं तो पृथ्वी को प्राकृतिक आपदाओं के कहर से कोई नहीं बचा सकता।

रोहित कौशिक


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