मीडिया : नई तैयारी की जरूरत

Last Updated 12 Jun 2022 05:02:49 AM IST

धन्य है अपना मीडिया। कल तक ‘नफरत’ बेच रहा था। अब कह रहा है कि ‘नफरत’ न फैलाएं यानी पहले आगे लगाओ, फिर कहो कि आग लगाना गलत है।


मीडिया : नई तैयारी की जरूरत

हमारा मानना है कि मीडिया भी कोई दूध का धुला नहीं है। लेकिन आज जो कुछ हो रहा है, उसका ‘उत्पादक’ मीडिया नहीं, बल्कि राजनीति है, और कट्टर धर्मिंक समूह हैं, जो असहिष्णु हैं, और उनके खिलाफ बोलने वाले भी उनसे खौफ खाते हैं।
हमारे मीडिया का इतिहास बताता है कि वह किसी प्रोफेशनल्स मीडिया की तरह विकसित नहीं  हुआ, बल्कि  किसी पालतू बच्चे की तरह विकसित हुआ है। इसीलिए हर चैनल के अपने देवता हैं, जिनका आशीर्वाद उसे प्राप्त रहता है। फर्क है तो इतना कि किसी के देवता सेक्युलर हैं, किसी के राष्ट्रवादी।  लेकिन हैं सब अपने देवताओं को खुश करने वाले ही। इसीलिए हमारे चैनल कुछ आसान से  कामों को बेहतर ढंग से करते हैं। इनमें से एक है : अपने किसी इष्ट नेता का लंबा इंटरव्यू देना। उसको बार-बार बजाना और ‘हिज मास्टर वॉयस’ बनकर भी अपने को ‘आजाद’ दिखाना। दूसरा है : पेड इंटरव्यूज व प्रोमोज देना और खूब पैसे कमाना। तीसरा है : दस मिनट में सौ खबरों का पैकेज देना लेकिन जो किसी तरफ झुकी खबर हो, उसे दिन भर बजाते रहना और शाम से रात तक उस पर विचार करते-कराते रहना। फिर अपने आकाओं से कहना कि सर, आपका काम हो गया है। चौथा है : किसी पांच सितारा होटल में खाते-पीते लेगों के बीच चिंतन का ‘कॉनक्लेव’ कराना और हर दल के नेता को मंच देकर खुश रखना। पांचवां है : बॉलीवुड की पिक्चरों की रिलीज से पहले प्रोमो करने आए हीरो- हीरोइनों से प्राइम टाइम में बातचीत दिखाना। छठा है : डिबेटें (बहसें) कराना और उनके जरिए राजनीति के पॉपूलर विचारों व विमशरे को जनता के बीच ले जाना।
साफ है कि अपना मीडिया ‘झगड़े भरी’ घटनाओं व विषयों को कवर करने की कला में माहिर नहीं है, न एंकर ही ‘झगड़े भरी बहसों’ को किस तरह से संयोजित करें कि न कोई किसी को बुरा कहे न बुरा सुने-इसके एक्सपर्ट हैं। इसीलिए हमारी बहसों में देर तक ‘तू तू मैं मैं’ होती  नजर आती है। एंकर ऐसी ‘तू तू मैं मैं’ को देर तक होने देते हैं क्योंकि टीआरपी की नजर से यही ‘हिट मोमेंट’ होते हैं। वे सोचते हैं कि लोग इस तरह की ‘तू तू मैं मैं’ को पसंद करते हैं। जब ऐसी ‘तू तू मैं मैं’ कुछ देर हो लेती है, तब एंकर बीच बचाव करते हैं।

इसीलिए हमारी बहसें किसी खास ‘घटना’ या ‘विषय’ पर न होकर उसके इतिहास में चली जाती हैं कि ‘इसने ये किया तो उसने भी तो वो किया’ या फिर पर्सनल किस्म की हो जाती हैं, और इसीलिए कई प्रवक्ता एक दूसरे को गरियाने तक पर उतर आते हैं। हमारी बहसों में या तो दलों के प्रवक्ता होते हैं, या ‘राजनीतिक विश्लेषक’ होते हैं या ‘लेखक’ या ‘चिंतक’ होते हैं, या कुछ वकील होते हैं, या कुछ मित्र पत्रकार होते हैं, या अपने कुछ यार दोस्त  होते हैं, जो हर विषय पर राय रखते हैं या जैसे इन दिनों कुछ बाबा और कुछ मौलाना होते हैं। लेकिन चैनलों के रिपोर्टरों और एंकरों में से किसी के पास ‘झगड़े भरे’ मुद्दों की जटिलताओं को समझने, विश्लेषण करने और ‘सर्वानुमति’ तक पहुंचने-पहुंचाने की दक्षता नहीं होती।
इसी तरह धर्मिंक मुद्दों के ‘झगड़े भरे’ पहलुओं की नजाकत को समझने-समझाने की क्षमता भी एंकरों में नहीं नजर आती। इसीलिए जब दो स्पर्धी प्रवक्ताओं को बुला लिया जाता है तो एंकर को भी पता नहीं होता कि कौन क्या बोलेगा और किस शालीन तरीके से  उनको समझाया-बुझाया जा सकता है या ताकि किसी को किसी से परेशानी न हो।  अब हम जरा दंगों के कवरेज के असर की ‘डाइलेक्टिक्स’ को देखें : एक चैनल जब एक दंगे को दिखाता है, तो उसके देखा देखी बाकी चैनल भी उसे दिखाने लगते हैं। रिपोर्टर शुरू करते हैं : आज का दिन बड़ा अहम है। आज के दिन यहां तब ये हुआ था। पुलिस ने बेहद कड़े इंतजाम किए हैं। पहले से उपद्रवी दिमाग इसे ‘चैलेंज’ की तरह लेते हैं, और देखते देखते कैमरों के आगे नारे लगाने लगते हैं, और वे ‘इलाकाई हीरो’ हाक जाते हैं। फिर शहरों में कंपटीशन होने लगता है : वो शहर खबर में है तो हमारा क्यों नहीं और व्हाट्सएप ग्रुप निकल पड़ते हैं, और  दो सेकेंड के हीरो बन जाते हैं। इसीलिए जहां दंगा नहीं हुआ होता वहां भी होने लगता है। जैसे  हाथरस जैसे शहर में जहां कभी दंगा नहीं होता था इस बार हुआ।  
इसीलिए जरूरी है ‘झगड़े भरे’ विषयों को कवर करने, बहसों को लेकर प्रवक्ताओं, रिपोर्टरों और एंकरों को नये सिर से तैयार किया जाय है ताकि जैसी ‘गलती’ हुई वैसी न हो।

सुधीश पचौरी


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