मीडिया : सम्राट पृथ्वीराज: समीक्षा की समीक्षा

Last Updated 05 Jun 2022 12:38:36 AM IST

एक तो फिल्म का नाम ‘सम्राट पृथ्वीराज’। दूसरे उसे भाजपा-संघ ने पसंद किया।


मीडिया : सम्राट पृथ्वीराज: समीक्षा की समीक्षा

तीसरे उसका हीरो प्रो-भाजपा अक्षय कुमार और चौथे उसके लेखक निर्देशक ‘चाणक्य’ वाले चंद्रप्रकाश द्विवेदी। ऐसी फुल्टू हिंदुत्ववादी प्रस्तुति किस अंग्रेजी फिल्म समीक्षक को पंसद आती? जो फिल्म ‘पृथ्वीराज रासो’ नाम के हिंदी महाकाव्य पर आधरित हो, जिसे ‘महान इतिहासकारों’ का आशीर्वाद प्राप्त न हो, वह फिल्म ‘क्वालिटी फिल्म’ कैसे मानी जा सकती है? फिर जो फिल्म ‘देशप्रेम व राष्ट्रवाद’ का सीधा संदेश देती हो, जिसे भाजपा व संघ के कुछ बड़े नेताओं ने देखकर सराहा  हो और जिसे यूपी ने टैक्स फ्री कर दिया हो, उसकी प्रशंसा करना संघ की प्रशंसा करने जैसा हुआ। तिस पर जिसका हीरो ‘प्रो पीएम’ अक्षय कुमार  हो, जिसे पीएम ने विशेष इंटरव्यू  दिया हो, जो हिंदुत्व व भाजपा के आलोचकों को निशाने पर हो, उसकी फिल्म ‘कलात्मक ऊंचाई’ वाली कैसे हो सकती है? एक अंग्रेजी फिल्म समीक्षक की ‘समीक्षा’ को देखकर हम समझ पाए कि आखिर, इस फिल्म को क्यों कूटा जा रहा है और सोशल मीडिया में कुछ लोग इसकी निंदा में क्यों लगे हैं, क्यों कई लेग इसे ‘कश्मीर फाइल्स’ की तरह की ‘प्रचार फिल्म’ बताने में लगे हैं?

 समीक्षक ने पहली कुछ लाइनों में फिल्म की कुछ तारीफ सी भी की है जैसे कि यह इंडिया के अंतिम हिंदू राजा पृथ्वीराज द्वारा इस्लामी हमलावर शहाबुद्दीन गोरी के हमले से अपने राज्य की रक्षा करने के लिए किए गए वीरतापूर्ण युद्ध की कहानी है। यह एक कास्ट्यूम ड्रामा है। हीरो अक्षय ने अपने रोल से न्याय किया है, और चंद्रप्रकाश द्विवेदी का डायरेक्शन भी अच्छा है। इसके बाद समीक्षा ‘अपनी-सी’ पर उतर आती है कि यह सपाट और एक मानी में ‘डरावनी’ है कि यह उन फिल्मों की तुलना में कमतर है, जो इतिहास को लेकर बनी हैं। समीक्षा कहती है कि फिल्म में ‘तग्गड़ राष्ट्रवाद’ चरम पर है। यह हर अवसर पर दर्शकों याद दिलाती रहती है कि मुगलों ने  भारत पर कैसे-कैसे अत्याचार किए, हमारे मंदिर तोड़े, उनकी जगह मस्जिदें बनवाई और सदियों तक अत्याचार सहने के बाद 1947 में भारत इन अत्याचारों से मुक्त हुआ। समीक्षा कहती है कि फिल्म समकालीन राष्ट्रवादी मूड के साथ ‘सिंक’ करती है।
ऐसे में स्वाभाविक ही था यह फिल्म रिलीज के साथ विवाद में आ जाती। यही हो रहा है लेकिन यह विवाद फिल्म को प्रमोट करने का बहाना नहीं, बल्कि रीयल है। इस तरह हम कह सकते हैं कि यह फिल्म कई प्रकार से ‘अपराधी’ है : एक तो यह ‘देशभक्ति और राष्ट्रवाद की राजनीति का खुला संदेश देती है। दूसरे यह कि देश के समकालीन मूड को अपील करती है। तीसरे यह इसलिए भी निंदा की पात्र बन रही है कि उसके प्रशंसक भाजपा व संघ के बड़े नेता हैं। समकालीन राजनीति जिस तरह से ‘हिंदू और मूसलमान’ या ‘सांप्रदायिक और सेक्युलर’ में बंटी है, उसमें हर चीज विवादास्पद बन जाती है, या बना दी जाती है, लेकिन ऐसा होते रहना है क्योंकि अब राष्ट्रवाद की चरचा करना देशभक्ति की बात करना और मुगलों के अत्याचार की बात करना शर्म की बात न होकर बहुतों के लिए गर्व की बात है।
समीक्षकों को दर्द का एक कारण यह भी है कि  फिल्में ऐसे विषयों को खुलकर दिखाने-बताने लगी हैं। जाहिर है कि यह फिल्म भी उस इतिहास को नये राष्ट्रवादी नजरिए से दिखाती है, जिसका खलनायक मुहम्मद गोरी था जिसने सोमनाथ मंदिर तोड़ा था और जिसका जबर्दस्त प्रतिकार भारत के अंतिम हिंदू राजा पृथ्वीराज ने किया था। इस काल के इतिहास भी दो तीन तरह के हैं : एक वह है जो तथाकथित सेक्युलर  इतिहासकारों ने लिखा जो पाठ्यपुस्तकों में रहा, दूसरा वह है जो चंदबरदाई के महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ में है, तीसरा वह है जो लोक स्मृति में है। इतिहास कहता है कि गोरी ने कई बार हमला किया। हर बार हारा लेकिन आखिरी बार उसने पृथ्वीराज को बंदी बना कर  अपने साथ ले गया और वहीं मार दिया। लेकिन ‘रासो’ की कहानी यह नहीं कहती, न लोक स्मृति की कहानी ऐसा मानती है, बल्कि वह गोरी से हार की नहीं,‘जीत की कहानी’ सामने आती है कि गोरी पृथ्वीराज को गिरफ्तार करके तो ले गया लेकिन वहां भी पृथ्वीराज ने चंदबरदाई की सहायता से ‘शब्दबेधी बाण’ से गोरी का वध कर अपनी हार का बदला लिया। हमने इसीलिए समीक्षा की समीक्षा की कि यह बता सकें कि कोई भी समीक्षा अंतिम नहीं होती। हमें अपनी समीक्षा खुद बनानी होती है। ‘समीक्षा के जनतंत्र’ में सब के अपने-अपने मानी हो सकते हैं।

सुधीश पचौरी


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