जमीयत ए उलेमा का अधिवेशन : डराती है ऐसी भाषा

Last Updated 01 Jun 2022 01:45:43 AM IST

सामान्यत: जमीयत ए उलेमा ए हिंद या ऐसे संगठनों की बैठकों या सम्मेलनों पर राष्ट्रीय मीडिया की नजर नहीं रहती। छोटी सी खबर आ जाती है।


जमीयत ए उलेमा का अधिवेशन : डराती है ऐसी भाषा

किंतु देवबंद में जमीयत के 2 दिनों के सम्मेलन ने राष्ट्रीय सुर्खियां पाई तो इसके कारण हैं। वाराणसी से लेकर मथुरा, आगरा, दिल्ली तक ज्ञानवापी, ईदगाह मस्जिद, ताजमहल और कुतुबमीनार होते हुए मध्य प्रदेश से कर्नाटक तक के विवाद जिस स्थिति में आ गए है, उसमें सबकी रु चि यह जानने में है कि जमीयत सहित मुस्लिम संगठन या देवबंद जैसे महत्त्वपूर्ण शिक्षा केंद्र की राय क्या है।
जब से ये मामले उठे हैं तब से भारत के ज्यादातर मुस्लिम नेताओं, मुल्ला, मौलवी, उलेमाओं, शिक्षाविद्, एक्टिविस्टों आदि ने आम मुसलमानों के अंदर अनेक प्रकार के डर पैदा करने वाले बयान दिए हैं। उन बयानों में सच्चाई के अंश नहीं हैं। सारे मामले न्यायालयों में चल रहे हैं। भारत में कानून का राज है। कोई सरकार चाहे भी तो किसी स्थल का धार्मिंक स्वरूप यूं ही नहीं बदल सकती। कुछ लोग उसे बदलने की कोशिश करेंगे तो उन पर अपराध का मुकदमा दर्ज होगा। क्या देश का कोई भी विवेकशील व्यक्ति ईमानदारी से स्वीकार करेगा कि आज दिखने वाला कोई मस्जिद या इस्लामी कही जाने वाली संरचना बिना न्यायालय के आदेश से मंदिर या हिंदू संरचना में बदली जा सकती है? कतई नहीं।
निश्चित रूप से संपूर्ण भारत और बाहर के भी हिंदू समाज की चाहत है कि उनके जो भी स्थल मध्यकाल में ध्वस्त कर इस्लामी संरचना में परिणत किए गए वे सारे फिर से मंदिर या हिंदू स्थल में बदले जाएं। किंतु इसके लिए बलपूर्वक उनको तोड़ो ऐसा सोचने वाले अत्यंत कम होंगे और जो होंगे उनको समर्थन भी न के बराबर मिलेगा। हां, अगर मुस्लिम नेताओं की ओर से बार-बार आक्रामक बयान दिए जाएंगे तब इसकी प्रतिक्रिया आक्रामक मानसिकता के रूप में आएगी। इसलिए आज के समय में सबसे पहली जरूरत भाषणों सहित अपने सभी प्रकार के वक्तव्यों में संयमित और शालीन रहने की है। ओवैसी से लेकर शफीक उर रहमान बर्क, माजिद मेनन और न जाने ऐसे कितने नाम हैं, जिनको लगता ही नहीं कि बोलने में उनको किसी प्रकार का संयम रखना है। महमूद मदनी अन्य नेताओं से थोड़ा संतुलित माने जाते रहे हैं। किंतु जमीयत ए उलेमा हिंद के कार्यक्रम में उन्होंने जिस तरह के भाषण दिए, उससे पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय में मजहबी, बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व की सोच किस दिशा में जा रही है। क्या देश में मुसलमानों का सड़कों पर चलना कठिन हो गया है? जमीयत के नेता इस तरह का बयान देते हैं तो इसे क्या कहा जाएगा? क्या आम मुसलमानों से इस देश में नफरत का भाव हिंदू या अन्य समुदाय के लोग रखते हैं? आखिर, ऐसे विवादित बयान देने वाले को क्या कहेंगे? देश के प्रति इनकी कोई जिम्मेदारी है या नहीं?

जो प्रस्ताव पारित किए गए वे भी चिंताजनक हैं। एक प्रस्ताव में कहा गया कि बनारस और मथुरा की निचली अदालतों के आदेश से विभाजनकारी सियासत को मदद मिली है। पूजा स्थल विशेष प्रावधान कानून, 1991 की स्पष्ट अवहेलना हुई है। संसद से यह तय हो चुका है कि 15 अगस्त, 1947 को जिस इबादतगाह की जो हैसियत थी वह उसी तरह बरकरार रहेगी। निचली अदालतों ने बाबरी मस्जिद के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भी अनदेखी की है। एक ओर ये लोग कहते रहे हैं कि अदालतों पर उनका विश्वास है और दूसरी ओर अदालत को ही किसी का पक्षकार बना देने का यह प्रस्ताव! वाकई खतरनाक है। इन सबको पता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज्ञानवापी में सर्वे या सील करने आदि के आदेश को गलत नहीं कहा गया। पूजा स्थल कानून, 1991 के बारे में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि यह किसी स्थल के धार्मिंक स्वरूप की पहचान करने का निषेध नहीं करता है। जब मुसलमानों का सबसे बड़ा संगठन देवबंद जैसे दुनिया भर के मुसलमानों के प्रमुख केंद्र में बैठकर भारत के न्यायालय को परोक्ष रूप में मुस्लिम विरोधी साबित करने की कोशिश रहा है तो कल्पना की जा सकती है कि कैसी मानसिकता पैदा हो चुकी है।
सम्मेलन में ऐसा वातावरण बनाया गया मानो मुसलमानों और इस्लाम मजहब के वजूद पर भारत में खतरा उत्पन्न हो गया हो। मौलाना मदनी ने कहा कि किसी को हमारा मजहब बर्दाश्त नहीं है तो वे मुल्क छोड़कर चला जाए। बात-बात पर पाकिस्तान भेजने वाले पाकिस्तान चले जाएं। प्रश्न है कि क्या भारत के किसी भी जिम्मेवार राजनीतिक दल, बड़े नेता, सरकार या देश का कोई महत्त्वपूर्ण बड़ा संगठन कभी किसी मुसलमान को देश से बाहर भेजने की बात करता है? कई बार जब किसी में भारत विरोध या मजहबी अतिवाद दिखता है तो जरूर सामान्य लोगों की प्रतिक्रियाएं आती हैं कि ऐसे लोगों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। महमूद मदनी या जमात-ए-इस्लामी ने अपने प्रस्ताव में कहीं भी ऐसे मुसलमानों की निंदा नहीं की है, जो पाकिस्तान परस्ती से लेकर भारत विरोध की सीमा तक चले जाते हैं। अगर उनकी आलोचना करते तो  दूसरे पक्ष की आलोचना करने का उनको अधिकार होता। महमूद मदनी ने समान नागरिक संहिता को मुसलमान द्वारा नहीं स्वीकारने की बात कही। प्रस्ताव में आगे कहा गया कि पर्सनल लॉ में बदलाव या पालन से रोकना धारा 25 में दी गई गारंटी के खिलाफ है। महमूद मदनी जो कह रहे थे; प्रस्ताव उसी अनुसार आना था। जब वे कहते हैं कि मुसलमानों को शरीयत को पकड़े रहना है और यही हमारी ताकत है तो फिर संविधान में आस्था पर प्रश्न खड़ा होता है।
उनके कथन को देखिए, शरीयत में किसी तरह की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं होगी। कानून हमको तीन तलाक करने से रोकता है, लेकिन शरीयत नहीं रोकता है और अगर दोनों राजी हो गए तो कानून क्या करेगा? या मुसलमानों को तीन तलाक के विरु द्ध कानून को न मानने के लिए उकसाना ही है। दोनों समुदायों को इस देश में साथ रहना है और देश का विकास करना है। जिन महत्त्वपूर्ण धर्म स्थलों पर कब्जा व ध्वस्त कर इस्लामिक संरचना खड़ी की गई उनकी मुक्ति का प्रश्न हिंदू और मुस्लिम विवाद का नहीं है। यह करोड़ों हिंदुओं के पूजनीय स्थल के मुक्ति का प्रश्न है। इस दृष्टि से मुस्लिम संगठन और नेता नहीं सोच रहे हैं तो इसे दुर्भाग्य के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता।

अवधेश कुमार


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